सोमवार शाम को जब सारे अंग्रेजी और बड़े चैनल प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्रा, चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ घनिष्ठता बताती तस्वीरें दिखाने, विशेषज्ञों से उनका मतलब बताने और मोदी जी द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा किए भारत विरोधी फैसलों की काट ढूँढने का दावा कर रहे थे तब अधिकांश छोटे चैनल और यू ट्यूब वाले प्रसारण बिहार की राजधानी में राहुल गांधी-तेजस्वी की रैली की चर्चा में मगन थे। इसका कारण कई हो सकते हैं, पर इतना साफ है कि राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा ने भी बराबरी की दिलचस्पी पैदा की है। पहली सितंबर को उसका समापन था और भारी भीड़ उमड़ी थी। यह भी हुआ कि प्रशासन ने आयोजकों को गांधी मैदान में सभा की इजाजत नहीं दी तो वे आंबेडकर चौक तक जाना चाहते थे। रैली को वहां तक भी पहुँचने नहीं दिया गया। 

शुरुआती योजना लोगों की भारी भीड़ के साथ इंडिया गठबंधन के नेताओं को जुटाकर राजनैतिक संदेश देने की थी। पर नीतीश राज में शायद पहली बार इस तरह की राजनैतिक रोक-टोक दिखाई दी। उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी को सासाराम में अपनी यात्रा की शुरुआत की इजाजत भी काफी देर से दी गई और रात के अंधेरे में मोटरसाइकिल के हेडलैंप की रोशनी में हेलीपैड बनाना पड़ा। सब मुश्किलें पार करके यात्रा में सफल रहने के बाद अब उनकी असली परीक्षा शुरू हो रही है।
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बिहार कांग्रेस की स्थिति

अब नीतीश कुमार जैसे मंझे हुए राजनेता को यह सब कदम क्यों उठाना पड़ा, यह तो वही बताएंगे लेकिन यह बिहार की राजनीति की संस्कृति नहीं है। सिर्फ जेपी आंदोलन के समय ऐसी रोक टोक की असफल कोशिश कांग्रेसी सरकार ने की थी लेकिन स्टीमर बंद कराने के बावजूद नौजवान भरी गंगा को केले के पेड़ों को जोड़कर बनाई कामचलाऊ डेंगी से पार करके पटना जुट गए। उल्लेखनीय है कि तब पटना में कोई पुल न था और उत्तर बिहार वालों को स्टीमर के सहारे ही राजधानी आना होता था। पर तब यह भी हुआ कि जब कांग्रेस के आपातकाल के दौरान कम्युनिष्ट पार्टी ने पटना में रैली की तो उनके लोगों को स्टीमर घाट के कुलियों से भिड़ना पड़ा जो बच्चों का हाल देखकर नाराज थे। इस बार वैसी स्थिति तो नहीं थी लेकिन राहुल गांधी और बड़े नेताओं की सुरक्षा का सवाल बार बार उठता रहा। और इसी में दरभंगा में जब एक घुसपैठी ने मंच से प्रधानमंत्री की मां को गाली दे दी तो स्वाभाविक तौर पर बड़ा बवाल मचा। बीजेपी के लोग इसे ही मुद्दा बनाकर पूरी यात्रा के राजनैतिक ‘पुण्य’ को खत्म करना चाहते थे। कई जगह झड़प भी हुई, हिंसा हुई लेकिन बहुत ज्यादा बात नहीं बढ़ी। असल में कांग्रेस का संगठन अभी उस स्तर पर भाजपा से लोहा लेने लायक है भी नहीं।

लेकिन इस यात्रा को सफल बताने में हर्ज नहीं है और इस कारण कांग्रेसी कार्यकर्ता तो उत्साह में आए ही हैं (जिनकी संख्या काफी कम है) लेकिन राजद और भाकपा-माले के लोग ज्यादा उत्साह में हैं। एनडीए से चुनावी मुकाबला तो मुख्य रूप से उन्हें ही करना है। यह उत्साह चुनाव तक कायम रहता है या नहीं, यही राहुल ऐंड कंपनी की मुख्य चुनौती है। 

पहले भारत जोड़ो यात्रा, राफेल घोटाला, मोहब्बत की दुकान और सावरकर समेत कई मसलों पर वे ठीकठाक हवा बनाने में सफल रहे हैं लेकिन संगठन उस उत्साह को बढ़ाने में ही नहीं, बरकरार रखने में भी सक्षम नहीं है। खुद राहुल भी मुद्दा बदलकर पुराने को भूल जाते रहे हैं।

गाली कांड बनेगा बड़ा मुद्दा?

अब यह गाली कांड क्यों और कैसे हुआ, इसकी जांच हो रही है। उसका क्या नतीजा आएगा और तब वह कोई राजनैतिक हवा बनेगी, यह कहना मुश्किल है। मोदी जी ने मां को गाली वाला प्रकरण लेकर बिहार में भाषण शुरू कर दिया है, लेकिन इसका क्या असर होगा यह भविष्यवाणी भी मुश्किल है।

पर दो तीन चीजें साफ हैं। इस यात्रा ने ठीकठाक हलचल मचाई है। मीडिया कवरेज और सामने आए ओपिनियन पोल भी इसकी पुष्टि करते हैं। और जो प्रतिक्रिया काँग्रेसियों और इंडिया गठबंधन के साथियों की है वह भी इसकी पुष्टि करता है। सारा विपक्ष नए सिरे से एक हुआ है। कांग्रेस और इंडिया गठनबंधन के लिए यह चीज फायदे की हो सकती है कि अब बिहार चुनाव में ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। अभी से सिर्फ वही लोग नहीं, विपक्ष भी उतना ही सक्रिय हो गया है। खुद प्रधानमंत्री के कई दौरे हो चुके हैं और बिहार सरकार चुनावी रेवड़ियाँ घोषित करने लगी है। दो ढाई महीन में आधे से ज्यादा व्यक्त तो चुनाव का ही रहेगा और बाकी में गठबंधन बनाना और सीटों का हिसाब लगाना होगा। इस रैली ने इंडिया गठबंधन का काम आसान किया है जबकि चिराग पासवान और प्रशांत किशोर के चलते एनडीए को परेशानी दिखने लगी है।

'वोट चोरी' मुद्दे से नैया पार लगेगी?

राहुल गाँधी ने वोट चोरी को मोदी और शाह की जोड़ी तथा भाजपा की चुनावी सफलता से जोड़ने की कोशिश की है। कुछ बात बनी है। पर वोट चोरी का सवाल सीधे चुनाव आयोग के नाम जाता है जिसने हाल में अपना व्यवहार बहुत बदला है और अदालती दखल के चलते जिसे अपनी मूर्खतापूर्ण जिद छोड़नी पड़ी है। अभी भी लाखों आपत्तियां हैं और आयोग ने नामांकन के दिन तक आपत्ति स्वीकारने और शिकायतों का निपटारा करने का वायदा किया है। अगर आयोग का व्यवहार बदला तो वह राजनैतिक मुद्दा भी हल्का होगा। लेकिन जब एक एक ब्लॉक में हजारों आवेदन फीस के साथ आ चुके हैं तो निवास प्रमाणपत्र या जन्म प्रमाणपत्र देना भी एक काम होगा। अभी ही एक जोकीहाट ब्लाक में निवास के पचास हजार आवेदन आने की खबर है। ब्लॉक का सारा स्टाफ जुट जाए तब भी रोज हजार प्रमाणपत्र देना मुश्किल है। और अगर ब्लॉक के लोग यह काम कर सकते हैं तो विशेष सर्वेक्षण वाले बीएलओ क्यों नहीं कर सकते थे। आयोग के फैसलों में हजारों ऐसे सवाल जुड़े हैं और अब तक का उसका रुख और सवाल पैदा करता था।

उसका बदला व्यवहार देर से आया है और राहुल की वोट यात्रा के प्रभाव को कायम नहीं रहने देगा, यह देखने की चीज है। पर बांग्लादेशी घुसपैठ, रोहिंग्या घुसपैठ जैसे मसले तो गायब हो गए हैं जो भाजपा को ध्रुवीकरण कराने में मदद करते थे। नाम काटना और ऐसा करने का डर दिखाना अलग मुद्दा है। बीजेपी को उससे भी ज्यादा बड़ा सहारा नीतीश कुमार के साथ होने से है। वह उनको ज्यादा मान और सीटें देकर भी अपने खेमे को संभाल सकती है। आने वाला पखवाड़ा बहुत चीजों को साफ करेगा और राहुल की भी परीक्षा लेगा।