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कोरोना काल में ईद: जकात, सदका, फितरा पर ग़रीबों व लाचारों का पहला हक़

दुनिया भर के मुसलमानों के लिए ईद-उल-फितर की बेहद अहमियत है। यह त्योहार इसलाम के अनुयायियों के लिए एक अलग ही ख़ुशी लेकर आता है। ईद के शाब्दिक मायने ही ‘बहुत ख़ुशी का दिन’ है। ईद का चाँद आसमां में नज़र आते ही माहौल में एक ग़जब का उल्लास छा जाता है। हर तरफ़ रौनक ही रौनक अफरोज हो जाती है। चारों तरफ़ मुहब्बत ही मुहब्बत नज़र आती है। एक मुकद्दस ख़ुशी से दमकते सभी चेहरे इंसानियत का पैगाम माहौल में फैला देते हैं। शायर मोहम्मद असदुल्लाह ईद की कैफियत कुछ यूँ बयाँ करते हैं, ‘महक उठी है फजा पैरहन की खुशबू से/चमन दिलों का खिलाने को ईद आई है।’

क़ुरआन के मुताबिक़ पैगंबर-ए-इसलाम ने फरमाया है, ‘जब अहले ईमान रमज़ान के मुकद्दस महीने के एहतेरामों से फारिग हो जाते हैं और रोज़ों-नमाज़ों तथा उसके तमाम कामों को पूरा कर लेते हैं, तो अल्लाह एक दिन अपने उन इबादत करने वाले बंदों को बख्शीश व इनाम से नवाजता है। लिहाज़ा इस दिन को ईद कहते हैं और इसी बख्शीश व इनाम के दिन को ईद-उल-फितर का नाम देते हैं।’

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रमज़ान, इसलामी कैलेंडर का नौवाँ महीना है। मुसलमानों के लिए रमज़ान महीने का महत्व इसलिए भी है कि इन्हीं दिनों पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब के ज़रिए अल्लाह की अहम किताब क़ुरआन शरीफ ज़मीन पर उतरी थी। यही वजह है कि इस पूरे महीने मुसलिम भाई-बहन रोज़े रखते हैं और अपना ज़्यादातर वक़्त इबादत-तिलावतों (नमाज़ पढ़ना और क़ुरआन पाठ) में गुज़ारते हैं। रमज़ान माह के रोज़े मुसलमानों के लिए फ़र्ज़ क़रार दिए गए हैं। रोज़ों का महत्व इस मायने में है, ताकि इंसानों को भूख-प्यास का महत्व पता चले। भौतिक वासनाएँ और लालच इंसान के वजूद से हमेशा के लिए जुदा हो जाएँ और इंसान क़ुरआन के मुताबिक़ अपने आप को ढाल लें। रोज़ा जब्त-ए-नफ्स यानी ख़ुद पर काबू रखने की तरबियत देता है। उनमें परहेजगारी पैदा करता है।

पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब ने फरमाया है, ‘रमज़ान सब्र का महीना है। रोज़ा रखने में कुछ तकलीफ़ हो तो इसे बर्दाश्त करें।’ फिर उन्होंने कहा, ‘रमज़ान गम बाँटने का महीना है। यानी ग़रीबों के साथ अच्छा बर्ताव किया जाए।’ इस बारे में पैगम्बर-ए-इस्लाम ने यहाँ तक फरमाया है, ‘जो शख्स ख़ुद पेट भर खाए और उसके पड़ोस में उसका पड़ोसी भूखा रह जाए, वह ईमान नहीं रखता।’ रमज़ान महीने के ख़त्म होते ही दसवाँ माह शव्वाल शुरू होता है। माह की पहली चाँद रात, ईद की चाँद रात होती है। इस रात को दिखने वाले चांद से ही ईद-उल-फितर का एलान होता है।

पहली ईद-उल-फितर, पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब ने सन् 624 ईसवी में जंग-ए-बदर के बाद मनाई थी। तब से यह त्यौहार, हर साल सारी दुनिया में मनाया जाता है। इस दिन सभी मुसलमान ईदगाह या मस्जिद में इकट्ठे होकर, दो रक्आत नमाज़ शुक्राने की अदा करते हैं। यह पहली मर्तबा है, जब ईद की नमाज़ ईदगाह और मसजिद की बजाय घरों में ही होगी।

सिर्फ़ हमारे देश के ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में। तमाम उलेमा, मुफ्तियों और मज़हबी इदारों ने भी यही कहा है कि ईद की नमाज़ अपने घर में ही पढ़ें। मक्का स्थित मसजिद अल-हरम, अल-मसजिद अल-नवबी और मदीना स्थित प्रोफेट मसजिद में भी ईद की नमाज़ पढ़ने पर पाबंदी लगाई गई है। ताकि लोग कोरोना वायरस के संक्रमण से बचे रहें। कोरोना संक्रमण के ख़तरे को देखते हुए रमज़ान के आख़िरी जुमे के दिन भी मसजिदें बंद रहीं। मक्का और मदीना में भी मसजिदों में सिर्फ़ इमामों ने ही नमाज़ पढ़ी। हमारे देश में सरकार और स्थानीय प्रशासन की इजाज़त से कहीं पाँच, तो कहीं उससे कुछ ज़्यादा लोग ही ईदगाह और मसजिदों में इमाम के साथ नमाज़ पढ़ सकेंगे। अलबत्ता मसजिदों में पहले की तरह अजान ज़रूर होगी। 

हज़रत पैगम्बर मुहम्मद साहब के समय भी जब इस तरह की महामारी फैली, तो उन्होंने भी इससे बचने के लिए सारी उम्मत को दिशा-निर्देश दिए। उन्होंने फरमाया है, ‘यदि कोई बीमारी आम हो रही हो, तो हमें नमाज़ अपने-अपने घरों में ही पढ़ना चाहिए।’

नमाज़ पढ़ने के लिए जाने से पहले सभी मुसलमान फितरा यानी जान व माल का सदका, जो हर मुसलमान पर फ़र्ज होता है, वह ग़रीबों में बाँटते हैं। सदका, ग़रीबों की इमदाद (मदद) का एक तरीक़ा है। ग़रीब आदमी भी इस इमदाद से साफ़ और नये कपड़े पहनकर और अपना मनपसंद खाना खाकर अपनी ईद मना सकते हैं। इसके अलावा रमज़ान के महीने में आर्थिक रूप से सक्षम हर मुसलमान को अपनी सालाना आमदनी का ढाई फ़ीसदी ग़रीबों को दान में देना होता है। इस दान को जकात कहते हैं। इसलाम पाँच प्रमुख स्तंभों पर टिका हुआ है, जिसमें रोज़ा और जकात भी शामिल हैं।

जकात हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है। इस व्यवस्था के पीछे इसलाम मज़हब की यह सोच है कि हर ज़रूरतमंद तक मदद पहुँचे, जिससे वह भी ईद की ख़ुशियों में शामिल हो सके। आज जब सारी दुनिया कोरोना वायरस के भयानक संक्रमण से जूझ रही है, करोड़ों लोग अपने काम-काज छोड़ अपने घरों में बैठे हैं और उनमें भी लाखों ऐसे हैं कि उन तक तुरंत मदद ना पहुँचे, तो उन्हें और उनके परिवार को भूखा सोने की नौबत आ जाएगी।

ऐसे माहौल में इन लोगों को मुफलिसी से उबारना सबसे पहली ज़रूरत है। जकात, सदका और फितरा देकर हम उनकी मदद कर सकते हैं। जो भी आपके आस-पास ग़रीब, लाचार, अनाथ, मजलूम हैं इस पर उनका सबसे पहला हक़ है। भूखे का कोई मज़हब नहीं होता। जकात, सदका और फितरा बिना किसी भेदभाव के जो भी ग़रीब, ज़रूरतमंद हों उनको सबसे पहले दें। अपने आसपास जो ग़रीब हैं, उनकी दिल खोलकर मदद करें। यही सच्ची इंसानियत और हर इंसान का फ़र्ज़ है।

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इसलाम में अमीर-ग़रीब, छोटे-बड़े, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है। सभी एक समान हैं। लिहाज़ा सभी आपस में मिलकर यह त्यौहार मनाते हैं। नए-नए कपड़े पहने चहकते-महकते बच्चे, चारों तरफ़ एक खुशी का माहौल बना देते हैं। छोटों को अपने बड़ों से ईदी (पैसे या कोई तोहफा) मिलती है। हर घर में तरह-तरह की लजीज सेवईयाँ और पकवान बनते हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों को सेवईंयों की दावत दी जाती है। लेकिन यह पहली ईद होगी, जब गले मिलना तो दूर, बच्चों को ईदी या तोहफ़े देने में भी एहतियात बरतना होगा। किसी से मिलते वक़्त सोशल डिस्टेंसिंग का ख़ास तौर पर ख्याल रखना होगा। ताकि ख़ुशी का यह त्यौहार, जाने—अनजाने किसी को कोई गम न दे दे।
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वसीमा ख़ान
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