आंबेडकर यूनिवर्सिटी में असहमति को निशाना बनाते हुए प्रशासन की कार्रवाई अकादमिक स्वतंत्रता और विश्वविद्यालय के पतन के बारे में चिंताएं बढ़ाती है। जाने माने चिंतक अपूर्वानंद बता रहे हैं पूरी बातः
दिल्ली का अंबेडकर विश्वविद्यालय लगातार खबरों में बना हुआ है। कारण यह नहीं है कि उसने ज्ञान के किसी क्षेत्र में कोई बड़ी खोज की है। या यह कि उसने कोई नया पाठ्यक्रम बनाया हो। उसकी प्रसिद्धि का कारण है छात्रों और अध्यापकों को निरंतर प्रताड़ित करना। अभी उसने 5 छात्रों को निलंबित किया है। इसके पहले 3 छात्रों को निलंबित किया गया था। इसी बीच अध्यापक कौस्तुभ बनर्जी को कारण बताओ नोटिस दी गई है। उनका अपराध यह है कि उन्होंने आंदोलनकारी विद्यार्थियों के धरने को संबोधित किया था। प्रशासन ने आरोप लगाया है कि प्रोफ़ेसर बनर्जी ने सार्वजनिक व्यवस्था भंग की है और शालीनता, नैतिकता के विरुद्ध आचरण किया है।उन्होंने विश्वविद्यालय के हितों के ख़िलाफ़ काम किया है।
अध्यापक कौस्तुभ बनर्जी ने वह किया जो किसी भी अध्यापक को करना चाहिए।वह है छात्रों के साथ खड़े होना।ज़ाहिर है कि इसका मतलब यह नहीं कि वे छात्रों के हिंसक कृत्य या किसी ग़लत काम के साथ खड़े हों।लेकिन जब छात्र किसी सही मसले पर बात कर रहे हों या आंदोलन कर रहे हों तो अध्यापकों का कर्तव्य है कि वे उनका साथ दें।विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों और अध्यापकों का रिश्ता मात्र कक्षा या प्रयोगशाला का नहीं।जब वे न्याय के साथ खड़े हों तो अध्यापक का काम है उनका साथ देना।
प्रायः अध्यापक यह नहीं करते। छात्र विश्वविद्यालय को उसके कर्तव्य की याद दिलाते हैं। वे बहुत कुछ करते हैं जो पाठ्यक्रम या शिक्षा योजना के बाहर होता है। परिसर में काम करनेवाले मज़दूरों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार, सही वेतन की माँग करनेवाले विद्यार्थियों की टकराहट प्रशासन से होती रहती है। उसमें क्या उन्हें अकेला छोड़ दें ? विद्यार्थी ऐसे मसलों पर भी आंदोलन करते हैं जो परिसर के बाहर के विषय हैं।जैसे 5 साल पहले नागरिकता के क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन की शुरुआत एक तरह से विद्यार्थियों ने की।
विद्यार्थी अनेक बार वह कह पाते हैं जो अध्यापक नहीं कह पाते। जैसे आंबेडकर विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने गणतंत्र दिवस के मौक़े पर कुलपति के भाषण की आलोचना की। कुलपति ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को जायज़ ठहराया था और राम जन्म भूमि अभियान की प्रशंसा की। यह सांप्रदायिक बयान था। विद्यार्थियों ने इसकी आलोचना की। अध्यापक यह आलोचना नहीं कर पाए। अध्यापकों को ऐसा लगता है कि यह अध्यापक की मर्यादा के विरुद्ध है कि वह कुलपति के इस प्रकार के आचरण की आलोचना करे। लेकिन विद्यार्थी यह कर सकते हैं।
कुलपति के वक्तव्य की आलोचना के कारण विद्यार्थियों को दंडित किया गया। उस समय अध्यापक का क्या कर्तव्य क्या है? क्या वे अपने विद्यार्थियों का साथ दें या ख़ामोश रहें। प्रायः वे चुप ही रहते हैं। प्रोफ़ेसर बनर्जी ने उनके साथ खड़ा होना तय किया। प्रशासन ने इसके कारण उनसे जवाब तलब किया है।
इसके पहले भी आंबेडकर विश्वविद्यालय ने प्रोफ़ेसर सलिल मिश्रा और प्रोफ़ेसर अस्मिता काबरा की सेवा समाप्त कर दी थी। उसका विरोध भी विद्यार्थियों ने किया था। अध्यापक उसके ख़िलाफ़ आंदोलन नहीं कर पाए।
अध्यापकों के इस संकोच के कई कारण हो सकते हैं। उन्हें अपनी नौकरी की फ़िक्र रहती है। आमतौर पर वे प्रशासन का कोप भाजन नहीं बनना चाहते। विद्यार्थी इस प्रकार के संकोच और भय से प्रायः मुक्त हुआ करते हैं। वे सच बोल सकते हैं। जानते हुए भी कि इसकी सज़ा उन्हें मिल सकती है।
अध्यापक कम से कम अपने विद्यार्थियों का साथ ऐसे प्रसंगों में दे सकते हैं।लेकिन अब विश्वविद्यालय प्रशासन अध्यापकों को भी दण्डित करने लगे हैं।साउथ एशिया यूनिवर्सिटी में विद्यार्थियों को दंडित किए जाने के बाद उनका साथ देने के लिए 4 अध्यापकों को निलंबित कर दिया गया था।
ऐसे मामले अब बढ़ते जा रहे हैं। इनसे सिर्फ़ यह मालूम होता है कि भारत के विश्वविद्यालय अपनी भूमिका भूलते जा रहे हैं। यह उनके पतन का कारण है। आंबेडकर विश्वविद्यालय प्रशासन का विद्यार्थियों और अध्यापकों के साथ शत्रुतापूर्ण रवैये और उसके पतन के बीच सीधा रिश्ता है।
स्थापना के मुश्किल से 15 वर्षों के भीतर आंबेडकर विश्वविद्यालय ढहने लगा है। यह कहना बेहतर होगा कि उसे पिछले 5-6 वर्षों से व्यवस्थित तरीक़े से ध्वस्त किया जा रहा है। वैसे ही जैसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को ध्वस्त किया गया है। आंबेडकर विश्वविद्यालय केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं है। उसे दिल्ली सरकार ने स्थापित किया है। राज्य-विश्वविद्यालय होने के बावजूद उसने स्थापना के कुछ समय बाद ही इतनी प्रतिष्ठा अर्जित कर ली थी कि कई छात्र जे एन यू और दिल्ली विश्वविद्यालय की जगह वहाँ दाख़िला लेना पसंद करने लगे थे। यह असाधारण उपलब्धि थी।
उसने नए प्रकार के पाठ्यक्रम बनाए और शिक्षा पद्धति में भी नई प्रयोग किए।लेकिन पहले कुलपति श्याम मेनन के सेवानिवृत्त होने के बाद नियुक्त नई कुलपति ने तय कर लिया कि इतने कम समय में अर्जित प्रतिष्ठा को धूलिसात कर देना है। वे वास्तव में विश्वविद्यालय को अपने स्तर तक घसीट लाना चाहती हैं। जैसा दुर्भाग्य से और कुलपति भी कर रहे हैं।
मैंने आंबेडकर विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में उनका वक्तव्य सुना। ‘डिकोलोनाइज़ेशन’ पर प्रोफ़ेसर राजीव भार्गव के वक्तव्य एक बाद वे अध्यक्षीय वक्तव्य दे रही थीं। उसमें उन्होंने अंग्रेज़ी नर्सरी राइम ‘जैक एंड जिल’ की हास्यास्पद रूप से मूर्खतापूर्ण व्याख्या की। मूर्खता के इस निःसंकोच प्रदर्शन के बाद मध्यकालीन भारत को लेकर उन्होंने सांप्रदायिक टिप्पणी की। सारा सभागार सुनता रहा। इससे उनकी हिम्मत बढ़ी। इस साल गणतंत्र दिवस पर उन्होंने फिर से सांप्रदायिक वक्तव्य दिया। लेकिन इस बार एक विद्यार्थी ने उनकी आलोचना की। उसकी सजा उसे मिली। उसका साथ देनेवाले विद्यार्थियों को भी सजा मिली। प्रोफ़ेसर कौस्तुभ बनर्जी को उनका साथ देने के लिए सज़ा की धमकी दी जा रही है। क्या भारत के विश्वविद्यालयों के अध्यापक और विद्यार्थी यह सब चुपचाप देखते रहें क्योंकि यह अंबेडकर विश्वविद्यालय का भीतरी मामला है?