विडंबना देखिए कि जिस साल गाँधी के जन्म के 150 साल पूरे होने का जश्न मनाया जा रहा था उसी साल गाँधी की हत्या के षड्यंत्र के सरगना को भारत रत्न बनाने की माँग की जा रही थी। 2019 में अपूर्वानंद ने यह स्तंभ लेखा।
आज के समय की विडंबना पर शायद एक लम्बे वक़्त बाद ही बात हो पाएगी कि जिस साल गाँधी के जन्म के 150 साल पूरे होने का जश्न मनाया जा रहा था उसी साल गाँधी की हत्या के षड्यंत्र के आरोपी रहे को भारत रत्न बनाने की माँग की जा रही थी। इसके नेता वे ही थे जो देश को गाँधी के आदर्श पर चलने का उपदेश दे रहे थे। उस देश या उस जनता की समझ में जो भारी घपला है उसे इसी एक बात से समझा जा सकता है। यह कहते वक़्त इसकी सावधानी बरतना ज़रूरी है कि इस जनता में धर्म के लिहाज़ से हिंदू ही होंगे। मुसलमान या ईसाई या अन्य धर्मावलंबी इस जनता का हिस्सा नहीं हैं। यह भी कि यह हिंदू धार्मिक हिंदू नहीं हैं, राजनीतिक हिंदू हैं। यह उस विचारधारा का अनुयायी है जो हिंदुत्ववाद में यक़ीन करता है। यह विचारधारा अपनी वैधता व्यापक करने के लिए हिंदू शब्द की आड़ लेती है। इसका उद्देश्य शुद्ध सांसारिक है, सत्ता पर कब्जा करना और उस कब्जे को पक्का करने के लिए एक व्यापक आधार बनाना, भारत में यह आधार आसानी से हिंदुओं के सहारे तैयार किया जा सकता है। इसमें कोई पारलौकिक या आध्यात्मिक महत्वाकांक्षा नहीं है।
गाँधी की हत्या के बाद सावरकर गिरफ़्तार हुए लेकिन हत्या में शामिल होने के सीधे साक्ष्य न होने के कारण संदेह का लाभ उन्हें मिला और वह छूट गए।
वर्षों बाद जब जीवनलाल कपूर आयोग ने गाँधी हत्याकांड की सम्पूर्ण जाँच की तो वह इस नतीजे पर पहुँचा कि इस हत्या की साज़िश में सावरकर की शिरकत को न मानने का कोई आधार नहीं है, यानी वह इस हत्या की साज़िश में शामिल थे।
नेहरू के जीवनकाल में यह जाँच नहीं हुई थी। उस वक़्त और किसी का नहीं, सरदार पटेल का यह ख़्याल था कि सावरकर के नेतृत्व में किए गए षड्यंत्र के कारण ही गाँधी की हत्या हुई। लेकिन जैसा पहले कहा गया, सीधे साक्ष्य के अभाव में सावरकर को मुक्त कर दिया गया। आज की अदालत होती तो निर्णय क्या होता, अनुमान किया जा सकता है। अर्थात सिर्फ़ सत्ता की विचारधारा या जनता को संतुष्ट करने के लिए किसी को सज़ा नहीं दी जा सकती। इस सिद्धांत के कारण सावरकर को न सिर्फ़ सज़ा नहीं दी गई बल्कि वह उस राजनीति का प्रचार करने के लिए स्वतंत्र रहे जिसके कारण, पटेल के मुताबिक़ गाँधी की हत्या हुई।
सावरकर को स्वातंत्र्यवीर कहा जाता रहा। इसपर कम ही विचार किया गया है कि स्वतंत्रता और वीरता से वस्तुतः आशय क्या है। सावरकर के जीवनीकारों ने नोट किया है कि सावरकर वीरता की शिक्षा ज़रूर देते थे लेकिन ख़ुद वीरता दिखाने की मूर्खता उन्होंने नहीं की। उनकी शिक्षा के कारण मदनलाल धींगड़ा ने अँग्रेज़ अधिकारी की हत्या की, इसकी क़ीमत तरुण धींगड़ा को चुकानी पड़ी लेकिन सावरकर सुरक्षित बाहर रहे। उसी तरह भारत में नासिक में कलेक्टर आर्थर जैक्सन की हत्या में भी वह पीछे थे। जैक्सन संस्कृत के विद्वान् और भारत के प्रति सहानुभूति रखनेवाले अधिकारी माने जाते थे लेकिन उनकी हत्या का निर्णय किया गया। इसी मामले में सावरकर गिरफ़्तार हुए।
सावरकर ने लेकिन इनमें से किसी के लिए ज़िम्मेवारी कबूल नहीं की। यही उन्होंने गाँधी की हत्या के प्रसंग में किया। हर मामले में सावरकर से प्रभावित और दीक्षित तरुण या युवा बलि चढ़ते रहे, स्वातंत्र्यवीर मुक्त रहे। इसे कायरता नहीं रणनीतिक चतुराई मानकर उनके आराधक उनपर मुग्ध होते रहे। अब यह एक प्रवृत्ति बन गई है। महाभारत के कृष्ण का हवाला देकर इसे वरेण्य माना जाता रहा है। बाबरी मसजिद विध्वंस में भी इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, आदि ने ख़ुद कभी ज़िम्मेदारी नहीं ली। मानो वह सब कुछ स्वतःस्फूर्त था। इसे भी उनकी चतुराई में गिना गया। आपातकाल में जेल जाने पर सरकार को सहयोग का वादा देकर बाहर आने को भी एक चतुर युक्ति ही माना गया।
यह सब बावजूद इसके कि महाभारत में ही कृष्ण के बड़े भाई बलराम की कृष्ण को दी गई लानत उतनी ही तीखी है। महाभारतकार ने इसमें किसी भी तरह कृष्ण की रक्षा का प्रयास नहीं किया है। नीति और अनीति की इस बहस को याद रखने की आवश्यकता है जब हम वीरता की परिभाषा कर रहे हों।
गाँधी ने गीता को काव्य या रूपक माना और उससे अपनी अहिंसा का सिद्धांत गढ़ा। इस सिद्धांत में अनिवार्य है किसी भी कृत्य की पूरी ज़िम्मेवारी लेना और ख़ुद को खराद पर चढ़ाना। गाँधी इसमें कभी पीछे नहीं हटे और सावरकर को यह बेवक़ूफ़ी से अधिक कुछ न लगा।
इसी तरह हिंदू सावरकर के लिए एक धार्मिक पद नहीं, जनसंख्यात्मक अवधारणा है। वह साधन है सत्ता तक ले जाने का और उसपर नियंत्रण बनाए रखने का। आश्चर्य नहीं कि सावरकर किसी धार्मिक या आध्यात्मिक विषय से कभी उलझते ही नहीं। उनका सरोकार ख़ालिस दुनियावी है। इससे ठीक उलट गाँधी की सारी समस्या आध्यात्मिक या धार्मिक है। क्या राजनीति नीतिसम्मत हो सकती है? व्यक्ति का आचरण जो सांसारिक व्यामोह के बीच ही हो सकता है किस प्रकार सत्य से प्रतिबद्ध हो। इसलिए जहाँ सावरकर में ख़ुद को लेकर कभी और कहीं संशय नहीं, गाँधी हमेशा ख़ुद को अधूरा, अपूर्ण, अपनी आत्मा को संघर्षशील और सत्य की ओर उन्मुख बताते हैं। सावरकर के सामने साधन को लेकर कोई परहेज नहीं और गाँधी हमेशा साधन को साध्य जितना ही पवित्र मानते हुए उपयुक्त साधन की तलाश करते रहते हैं।
आज गाँधी की खाल ओढ़कर सावरकर के अनुयायी भजन गा रहे हैं। क्या उनके स्वर को पहचानने में हमें धोखा हो रहा है या इस धोखे के कारण ही हम खुश हैं?