जब सामूहिक निरुपायता का भाव प्रबल होकर हमें निष्क्रिय लगे, उसी समय एक अकेले का साहसी स्वर उठकर अंधकार को छिन्न-भिन्न कर देता है। यह अकेला निर्णय उस सामूहिक इच्छा को अभिव्यक्त करता है जो हम सबके भीतर दबी रहती है क्योंकि उसके जाहिर होने के लिए हम सबके पास साहस नहीं होता।
ठीक उस दिन जब प्रायः सारे अख़बारों के पहले पन्ने के साथ कई पन्ने शासक दल के एक नेता की मृत्यु की ख़बर और उनके गुणगान से अटे पड़े थे, एक अपेक्षाकृत युवा प्रशासनिक अधिकारी के निजी निर्णय को पहले पन्ने की ख़बर का दर्जा देने को इन्हीं अख़बारों को मजबूर होना पड़ा। इसका मतलब यही है कि उस अधिकारी ने कुछ ऐसा किया जिसे ये भी, जो इस निज़ाम से दबे हुए हैं, और कुछ तो स्वेच्छापूर्वक उसके पैरोकार हैं, करणीय मानते हैं। कण सबके भीतर का जो शुभ है, वह इस निर्णय से ताक़त पाता है।
2012 के बैच के अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने कुछ रोज़ पहले सेवा से इस्तीफ़ा दे दिया। कहनेवाले इसके बाद कहेंगे कि वह पहले दर्जेवाली सेवा में न थे, वह केंद्रशासित प्रदेशवाली प्रशासनिक सेवा में थे। लेकिन है वह भी अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा।
गोपीनाथन ने इस्तीफ़े का कारण निजी, पारिवारिक नहीं बताया जो अकसर ऐसे पदों से अलग होते वक़्त लोग करते हैं। उन्होंने बहुत साफ़ कहा, जैसा ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की ख़बर बताती है, उनका इस्तीफ़ा कश्मीर के ख़िलाफ़ की गई राजकीय कार्रवाई से असहमति के कारण दिया गया है। उन्होंने कहा कि कल अगर कोई मुझसे पूछे कि जिस वक़्त दुनिया का एक बड़ा जनतंत्र एक पूरे राज्य पर पाबंदी लगा रहा था और उसके नागरिकों के मौलिक अधिकार तक छीन रहा था, आप क्या कर रहे थे तब कम से कम मैं कह सकूँ कि मैंने (उसकी सेवा से) इस्तीफ़ा दिया था।
इस वक्तव्य के साथ इस्तीफ़े के लिए काफ़ी हिम्मत चाहिए थी जो भारत की सबसे ताक़तवर सेवा में बरसों गुज़ार चुके लोगों में शायद ही पाई जाती है। निजी बातचीत में कभी-कभी अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए ऐसे अधिकारी समझाने की कोशिश करते हैं कि उनका काम शासन करने का है, वे ऐक्टिविस्ट नहीं हैं। इसलिए नीति, जनतंत्र, नागरिक अधिकार वग़ैरह, उनके कोष के शब्द नहीं हैं।
ये अधिकारी यह भी समझाना चाहते हैं कि वे देश की जनता के भले के लिए ही ढेर सारे समझौते करते हैं, बल्कि ऐसा करने को बाध्य होते हैं। वे व्यवस्था के भीतर रहकर उसे बदलने की कोशिश करते हैं। कन्नन को जल्दी ही इस विश्वास के खोखलेपन का अहसास हो गया। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि मुझे कोई उम्मीद नहीं कि मैं इस व्यवस्था को ठीक कर सकूँगा।
इस सेवा में यह सोचकर आया था कि मैं उनकी आवाज़ बनूँगा जिन्हें चुप करा दिया गया है लेकिन यहाँ तो मैं ख़ुद ही अपनी आवाज़ गँवा बैठा। सवाल यह नहीं कि मैंने इस्तीफ़ा क्यों दिया बल्कि यह है कि मैं इस्तीफ़ा दिए बिना रह कैसे सकता था।
कन्नन को मालूम है कि एक इस इस्तीफ़े से शायद कोई बड़ा असर न पड़े लेकिन जब देश इस तरह की तबाही, उथल-पुथल से गुज़र रहा हो तो अपने निर्णय करने होते हैं।
एक तरह से यह अपनी आत्मा को बचाए रखनेवाला क़दम है। समझदार ऐसा कुछ नहीं करेंगे। वे समय का इंतज़ार करने का मशविरा देंगे और ख़ुद को सुरक्षित रखने की बुद्धिमानी अपनाने को कहेंगे। समझदारी की इस आँधी के बीच फिर भी कन्नन जैसे कुछ बेवक़ूफ़ बचे रह जाते हैं।
जब इतिहास लिखा जाता है तो मालूम पड़ता है कि जो सबसे ताक़त के ओहदों पर थे, वे सबसे कमज़ोर और भीरू थे। इस देश में भी संविधान की शपथ लेकर सेवा में प्रवेश करनेवाले अपनी वफ़ादारी की जगह तुरंत बदल देते हैं।

इसीलिए जब भी पिछड़े या दलित या मुसलमान समुदाय के भीतर कहा जाता है कि समुदाय के भले के लिए अपने अधिक से अधिक लोगों को इस सेवा में भेजा जाए तो कन्नन की इस अफ़सोस भरी स्वीकृति को याद रखना चाहिए, आप अपनी ही आवाज़ खो बैठते हैं, दूसरों की ज़ुबान बनना तो दूर की बात है।

कन्नन का यह वक्तव्य उसी दिन आया है जब देश के उनके मुक़ाबले कहीं अधिक शक्तिशाली, एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश ने, जो प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष हैं, उच्चतम न्यायालय में यह अर्ज़ी लगाई है कि कश्मीर में प्रेस पर लगी पाबंदी वाजिब मानी जाए।
इस युवक का यह निर्णय तब आया है जब सबसे ऊँची अदालत अयोध्या के मामले में तो सरपट दौड़ रही है लेकिन कश्मीर के लोगों के अधिकारों की बहाली के लिए उसे कोई जल्दी नहीं।
ये निर्णय भी वैसे ही स्वैच्छिक हैं जैसे कन्नन का। हमें इनमें से किसके साथ फ़ोटो खिंचानी है?