कोंसाम बोमेत ने 25 अगस्त को ख़ुदकुशी कर ली। 46 साल का कोंसाम मणिपुर का वासी था।लेकिन यह पहचान उसके बारे में पूरा नहीं बतलाती।कोंसाम मणिपुरी था लेकिन कम से कम पिछले 2 साल से उसकी पहचान एक पीड़ित मैतेयी की ही रह गई थी। वह पूर्वी इम्फ़ाल के एक गाँव का किसान था। 3 मई, 2023 को मणिपुर में हिंसा शुरू हुई उसके बाद अपने गाँववालों के साथ वह जान बचाने को भागा। उसे साजीवा में पनाह मिली जहाँ उस जैसे विस्थापित लोगों के लिए राहत शिविर बनाया गया था।
कोंसाम ने क्यों ख़ुदकुशी का फ़ैसला किया? अपने घर और खेत से सिर्फ़ 35 किलोमीटर दूर सरकार के रहमो करम पर राहत शिविर में रहते मानसिक अवसाद से घिर जाना अस्वाभाविक नहीं। सरकारी इमदाद से पूरा गुजारा होना भी मुश्किल है। बिना रोज़गार और काम के और अपना घर रहते हुए वहाँ लौट पाने की संभावना के लगातार धूमिल होते जाने से जो निराशा पैदा हुई होगी उससे जूझते हुए जीना सिर्फ़ कोंसाम के लिए दूभर हो, ऐसा नहीं।इसके पहले और आत्महत्याओं की खबर भी आती रही है।
कोंसाम की ख़ुदकुशी के कुछ पहले ही भारत की संघीय सरकार के गृहमंत्री ने दावा किया था कि मणिपुर में हालात सामान्य हो गए हैं। यह कहने की हिमाक़त वे तब कर रहे थे जब मणिपुर में अलग-अलग जगहों पर राहत शिविरों में 50000 से ज़्यादा लोग रह रहे हैं जो अपने अपने घरों, गाँवों से विस्थापित कर दिए गए हैं। उनमें कोंसाम की तरह के मैतेयी हैं तो हज़ारों कुकी भी हैं। यह सही है कि पिछले दो तीन महीने में कोई बड़ी हिंसा नहीं हुई है लेकिन न तो मैतेयी लोग उन इलाक़ों में जा सकते हैं जो कुकी बहुल हैं और न कुकी लोग मैतेयी बहुल इलाक़े में जा सकते हैं। 50,000 लोग अभी भी राहत शिविरों में हैं।क्या इसे हालात का सामान्य होना कहते हैं? लेकिन आज की भारत सरकार का काम करने का तरीक़ा कुछ और ही है। उसके मुताबिक़ अगर वह कह रही है तो हालात सामान्य हैं और अगर कोई असलियत बतलाए तो उस पर  हालात बिगाड़ने और अशांति फैलाने का आरोप लगाया जा सकता है।
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कोंसाम की आत्महत्या को भारत जैसे देश में ही अनदेखा किया जा सकता है। यह क्यों स्वाभाविक मान लिया गया है कि कुकी लोग वापस अपने घरों को नहीं जा सकते जो मैतेयी बहुल क्षेत्रों में हैं और क्यों मैतेयी अपने घरों को नहीं लौट सकते को कुकी बहुल इलाक़ों  में हैं? यह अलगाव क्या तक़रीबन स्थायी है? 
दो भिन्न समूहों में तनाव और हिंसा हो सकती है।लेकिन हर सरकार चाहती है कि वह जल्द से जल्द ख़त्म हो। 26 महीने तक अगर हिंसा जारी रहती है तो वह सरकार की उदासीनता का परिणाम है या फिर सरकार चाहती है कि हिंसा जारी रहे। ख़ासकर मणिपुर जैसी जगह में जहाँ हथियारबंद मैतेयी गिरोह पूरी तरह भारतीय जनता पार्टी की सरकार के द्वारा पोषित हैं और ऐसे हथियारबंद कुकी भी हैं जिन्हें राज्य मदद कर रहा है।हथियारबंद गिरोहों को नियंत्रित करना इतनी ताकतवर सरकार के लिए इतना मुश्किल भी नहीं है।लेकिन अब तक उसकी ऐसी कोई मंशा दीख नहीं रही। उसने मणिपुर को उसके भाग्य के हवाले छोड़ दिया है। शायद वह सोच रही है कि लोग थककर निष्क्रिय हो जाएँगे और हिंसा थम जाएगी। या वह हिंसा जारी रखना चाहती है जिससे दोनों ही समुदाय उसके आश्रित बने रहें। 
यह कितनी अजीब बात है कि संघीय सरकार को मणिपुर में अपने ही दल भाजपा की सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।पिछली सरकार के मुखिया ने  मैतेयी गिरोह के नेता की तरह बर्ताव किया और कुकी समुदाय के ख़िलाफ़ घृणा फैलाई। कुकी लोगों को ‘नार्कोटिक आतंकवादी’ और घुसपैठिया कहा। किसी भी क़ानून से चलनेवाले राज्य में वे जेल में होते लेकिन आज भी मुख्यमंत्री न रह जाने पर भी वे झूठ और घृणा फैलाने को आज़ाद हैं।
सरकार अपनी जगह है। उसकी नाकामी और हिंसा में मिलीभगत साफ़ है। लेकिन हमें इसकी फ़िक्र भी होनी चाहिए कि मैतेयी और कुकी बुद्धिजीवियों और सामाजिक समूहों की  इस प्रसंग में क्या भूमिका है। क्या इन दोनों समूहों में ऐसे प्रभावशाली व्यक्ति या समूह नहीं जिनकी लोगों के बीच प्रतिष्ठा हो और जो शांति के इच्छुक हों? जो आपसी समझदारी क़ायम करने के लिए कोशिश और मेहनत करें? 
दुर्भाग्य यह है कि मणिपुर के बाहर रहने वाले बुद्धिजीवियों ने अपने जातीय समूहों के प्रवक्ता का रोल निभाना तय किया है। उनमें कुछ अपवाद हैं। उन्हें अपने स्वतंत्र मत रखने और व्यक्त करने की क़ीमत चुकानी पड़ी है। लेकिन ऐसे बुद्धिजीवी नहीं दीखते जो शांति बहाल करने को कुछ कर रहे हों।प्रायः यह देखा गया है कि  जहाँ हिंसा चल रही है, उस जगह से बाहर रह रहे लोग बेहतर तरीक़े से शांति के लिए पहल कर सकते हैं। दूरी एक सुविधा देती है।मणिपुर के मामले में यह नहीं हुआ है। दोनों पक्षों के बुद्धिजीवी साबित करने में लगे रहे कि उनका पक्ष या समुदाय पीड़ित रहा है, हिंसा की शुरुआत उसने नहीं की और उसके साथ अन्याय हुआ है।यह  सच था कि कुकी पक्ष अधिक पीड़ित था क्योंकि राज्य ने उसके ख़िलाफ़ अभियान चला रखा था और उसपर हिंसा करनेवाले गिरोहों को वह खुलेआम प्रश्रय दे रहा था। लेकिन फिर उसने अपने इलाक़ों में भी मैतेयी लोगों को रहने नहीं दिया, यह भी सच है।
इस निष्क्रियता और अनिच्छा को देखते हुए पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज ने एक स्वतंत्र ट्रिब्यूनल बनाया जिसमें कुकी और मैतेयी न हों।भारत के अलग-अलग प्रदेशों और भिन्न भिन्न पेशों में प्रतिष्ठित जन इसके सदस्य हैं। 3 पूर्व न्यायाधीश , वकील, अध्यापक और सामाजिक कार्यकर्ता इस ट्रिब्यूनल के सदस्य थे। इसने मणिपुर का दौरा किया और दोनों ही समुदायों के लोगों की लंबी सुनवाइयाँ कीं।इसने हिंसा से प्रभावित लोगों को सुना और दोनों समुदायों के प्रतिनिधियों को भी सुना। राज्य का दौरा करने के दौरान इसने ख़ुद वस्तुस्थिति समझने की कोशिश की।
ट्रिब्यूनल ने पाया कि हिंसा के शिकार दोनों पक्ष रहे हों लेकिन राज्य समर्थित हिंसक मैतेयी समूह इसके लिए अधिक ज़िम्मेदार हैं। इसने तत्कालीन मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की भूमिका पर सवाल उठाया।इसे इसका सबूत नहीं मिला कि सीमा पार म्यांमार से कुकी ‘आतंकवादी समूहों’ ने हिंसा शुरू की। हिंसा भड़काने में मीडिया की संलिप्तता को भी उसने रेखांकित किया।उसने राहत शिविरों में जाकर वहाँ रहनेवालों की दयनीय स्थिति का भी जायज़ा लिया। रिपोर्ट ने आगे के लिए कई सुझाव दिए। असल काम अब शांति क़ायम करने का है लेकिन उसके साथ इंसाफ़ भी उतना ही ज़रूरी है।उसके लिए ईमानदार प्रयास आवश्यक हैं।
रिपोर्ट के जारी होते ही मैतेयी समूहों की तरफ़ से इसपर आक्रमण शुरू हो गया है। मणिपुर में इसके ख़िलाफ़ पुलिस रिपोर्ट तक दर्ज करवाई गई है।मणिपुर की मैतेयी बहुल राजनीतिक पार्टियों ने इस रिपोर्ट की आलोचना की है।उनमें कम्युनिस्ट पार्टी तक शामिल है।हिंसा रोकने में नाकाम या अनिच्छुक तत्कालीन मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने रिपोर्ट पर हमला किया।मणिपुर के बाहर रहनेवाले समूहों ने भी इस रिपोर्ट के ख़िलाफ़ प्रेस कांफ्रेंस तक की है।
इसका अर्थ यही है कि अभी भी बहुसंख्यक मैतेयी समाज के प्रतिनिधि सच्चाई देखने से इनकार कर रहे हैं।उनका रुख़ देखते हुए 2002 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया याद आ जाती हैं। उन्होंने भी स्वतंत्र नागरिक समूहों द्वारा गुजरात की हिंसा की रिपोर्टों को मानने से इनकार कर दिया था और उन्हें गुजरात विरोधी ठहराया था। सच्चाई क्या थी, वे भी जानते थे और हम भी। उसी तरह मणिपुर की हिंसा के मामले में भी बहुसंख्यक समुदाय के नेता और बुद्धिजीवी खुद को ही पीड़ित पक्ष के रूप में चित्रित करना चाहते हैं।
मणिपुर के बाहर रहनेवाले मैतेयी बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता भी रिपोर्ट पर हमला कर रहे हैं।वे शायद मणिपुर में सक्रिय हिंसक समूहों के रुख़ से अलग नहीं जा सकते।यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि यह रिपोर्ट एक मौक़ा थी कि वे दिल्ली से इसके आधार पर सरकार को जवाबदेह बनाएँ और मणिपुर में दोनों समुदायों के बीच संवाद की प्रक्रिया शुरू करें।संवाद हमेशा सच्चाई को स्वीकार करने से शुरू होता है।मणिपुर ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट वह सच्चाई सबके सामने पेश करती है।
यह इसलिए बहुत मूल्यवान है कि न तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर गठित समिति ने और न संघीय सरकार ने अब तक इस हिंसा पर कोई रिपोर्ट जारी की है।इसका एक ही अर्थ है।सरकार सच्चाई नहीं बतलाना चाहती।उसके अभाव में ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट यह काम करती है। इस ट्रिब्यूनल के सदस्यों का मणिपुर के मामलों में कोई निजी हित नहीं है।वे किसी भी पक्ष से जुड़े नहीं हैं। इसलिए इसके निष्पक्ष होने की संभावना कहीं अधिक है। उम्मीद करें कि अभी भी मैतेयी और कुकी समूह इस रिपोर्ट के सुझावों के आधार पर पहले दिल्ली में और फिर राज्य में आपस में संवाद शुरू करेंगे और सिर्फ़ सरकार का मुँह नहीं ताकते रहेंगे।
(स्वतंत्र ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट तैयार करने में लेखक ने विशेषज्ञ के रूप में योगदान दिया था)