‘आपको लिखना चाहिए’, मेरे युवा मित्र ने कहा।वह 22 अप्रैल, 2025 को कश्मीर के पहलगाम में हुए दहशतगर्द हमले के संदर्भ में बात कर रहा था। क्या कहना चाहिए मुझे या मुझ जैसे लोगों को? क्यों कुछ बोलना ही चाहिए? क्या बोलना कोई पेशा है? क्या कोई क्या बोले और कैसे बोले कि वह सुनाई भी पड़े? किसके लिए बोलें? कौन सुनना चाहता है?और क्या सुनना चाहता है? वह क्या है जिसे सुनने की इच्छा पैदा की जा रही है? और क्या वही मुझे बोलना चाहिए? 

मेरे मित्र का इरादा नेक था। मुझ जैसे लोग जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा का विरोध करते हैं, उन्हें इस हिंसा पर चुप नहीं रहना चाहिए, यह वह कहना चाहता था। इससे असहमति कैसे हो सकती है? कैसे यह सोचा भी जा सकता है कि कुछ लोग होंगे जो इस हमले और हत्याओं से उदासीन रह जाएँगे? 

सब बोले। सबसे पहले जो हर कोई बोला उसमें थी दहशतगर्द हमले की तीखी भर्त्सना। कौन है जो इसमें अगर-मगर करेगा? जो किया गया है उसके लिए भर्त्सना, निंदा जैसे शब्द बहुत कमजोर जान पड़ते हैं। भर्त्सना, निंदा के आगे सख़्त, कड़ी, तीखी जैसे विशेषण भीम वह व्यक्त नहीं कर पाते जो बोलनेवाला करना चाहता है। 

ओम थानवी ने ठीक लिखा, “मेरे पास शब्द नहीं। जो शब्द हैं, उनमें जान नहीं।”

हम क्या बोलें जो वाक़ई कुछ कहता हो? क्या हमारे पास वह भाषा है जिसमें हम पहलगाम में क़त्ल किए गए सारे लोगों के परिजनों को संबोधित कर सकें? भाषा की एक शक्ति है मौन की।उन सबके पास, उन सबके साथ सिर्फ़ मौन रहा जा सकता है। उन सबको जो धोखा महसूस हुआ है उसके बारे में कैसे बात करें? कैसे उन्हें दिलासा दें? कैसे हिम्मत बँधाएँ? हिंसा के ऐसे क्षण में अपनी भाषा की अपर्याप्तता को स्वीकार करना भी एक प्रकार की अभिव्यक्ति है।

ऐसा नहीं कि लोग बोल नहीं रहे। वह महिला जिसका पति मारा गया, कह रही है कि कश्मीर समस्या नहीं है। समस्या सरकार की क्रूर बेपरवाही है। वह सरकार जो पिछले 6 साल से आडंबर कर रही है अनुच्छेद 370 ख़त्म करके कि उसने कश्मीर में अमन-चैन क़ायम कर दिया है, उससे वह औरत अपने इस गहन शोक के क्षण में भी पूछ रही है कि जहाँ हज़ारों सैलानी इकट्ठा होते हैं, वहाँ सुरक्षा क्यों नहीं थी।अगर यह सवाल वह सीधे प्रभावित महिला पूछ सकती है तो हम भी तो पूछ सकते हैं।लेकिन यह बोलना अभी देश विरोधी माना जा रहा है। कहा जा रहा है, ऐसे शब्दों से बेचारी सरकार को इस संकट की घड़ी में असुविधा में नहीं डालना चाहिए।

वह औरत जिसका पिता मारा गया कह रही है कि वे मुसलमान टैक्सी ड्राइवर जो उस पूरी रात उसके साथ रहे, उसके भाई हैं। वह कश्मीर में अपने पिता को खो कर जा रही है लेकिन 2 भाई बना कर जा रही है। इस वक्त भी जब कहा जा रहा है कि दहशतगर्दों ने उन्हें मारा जो अल्लाह के नाम की दुआ नहीं पढ़ सके, वह औरत उन दो कश्मीरी मुसलमानों के लिए दुआ कर रही है कि अल्लाह उनकी हिफ़ाज़त करे। 

भारतीय जनता युवा मोर्चा के पदाधिकारी पंकज अग्रवाल के शब्द हमें क्यों नहीं सुनने चाहिए कि धर्म से परे हर कश्मीरी ने उनका ख़याल रखा, उनका बर्ताव, उनकी भाषा: सबमें रहमदिली थी। 

गुजरात की औरतें या अन्य राज्यों से आए सैलानी कह रहे हैं कि स्थानीय कश्मीरियों ने उनका ध्यान रखा है।

लेकिन हम इन सबको सुनना नहीं चाहते। 

जो इस सांप्रदायिक दहशतगर्द हिंसा के शिकार हुए हैं वे बदले की भाषा नहीं बोल रहे। वे घृणा की भाषा नहीं बोल रहे।वे चीख नहीं रहे। उनकी वाणी में दुख है, सदमा है लेकिन उसमें संयम है। वे कश्मीरियों को, मुसलमानों को इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहरा रहे। लेकिन हम उन्हें सुनना नहीं चाहते।

हमले के बाद कश्मीर के लोग बोल रहे हैं। अपनी दुकानें, कारोबार बंद करके। सड़कों पर औरत मर्द, बच्चे सब इस दहशतगर्द हमले के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं। वे ग़ुस्से में हैं। ग़म में हैं। यह कहना क्षुद्रता होगी कि वे सिर्फ़ इसलिए अपना क्षोभ जतला रहे हैं कि इस हमले से उनकी रोज़ी रोटी पर सीधा असर पड़ेगा। उन्हें लग रहा है कि इस हमले ने उनकी मेहमाननवाज़ी पर शक पैदा कर दिया है। यह किसी के लिए, और ख़ासकर कश्मीरियों के लिए अपमान की बात है। 

क्या यह सब कुछ सुना जा रहा है? क्या कोई इसे सुनना चाहता है? या कुछ लोग हैं जो यह सब सुनकर लोग निराश हो रहे हैं ? वे शायद देखना चाहते थे कि कश्मीरी इस हमले का समर्थन करें।या ख़ामोश रह जाएँ? अगर ऐसा होता तो उनकी कश्मीर विरोधी घृणा को बल मिलता। लेकिन कश्मीरियों ने उन्हें निराश किया।

सारे राजनीतिक दल बोले। इस हमले के ख़िलाफ़। दहशतगर्दी के ख़िलाफ़। उन्होंने कहा कि इस समय सरकार जो कदम उठाएगी, वे उसके साथ होंगे। लेकिन भारतीय जनता पार्टी क्या बोली? हमले की खबर आने के फ़ौरन बाद भाजपा के लोगों ने चारों तरफ़ पोस्टर फैला दिए: “धर्म पूछा, जाति नहीं।”

यह पोस्टर संभवतः हिंदुओं को एकजुट करने के लिए था। यह हमले के इस क्षण का इस्तेमाल करके यह बतलाने की कोशिश कर रहा था कि जाति उतनी महत्त्वपूर्ण सच्चाई नहीं, जितनी धर्म है। और यह कि हिंदुओं को उनके धर्म के कारण मारा गया। दहशतगर्द हमले के बाद, जब लोग सकते में थे, आनन फ़ानन में ऐसे पोस्टर कैसे बने और किस क्या उनमें दुख था, क्रोध था या एक इसका इस्तेमाल करने की क्रूर चतुराई थी?

व्यंग्यकार राजीव ध्यानी ने ठीक ही लिखा, “हम भी याद रखेंगे, कि उधर आतंकियों ने पहलगाम में नृशंस हत्याएँ की, और इधर तुम्हारे नफ़रती पोस्टर बँटने शुरु हो गए थे। तुरन्त नारा तैयार हुआ. तुरन्त उस नारे के चार पाँच वैरिएशन के पोस्टर बन गए। तुरन्त ही देश भर में प्रसारित भी हो गए।देश भर के तुम्हारे पार्टी तथा मीडिया कार्यकर्ता और पेड ट्रोल आर्मी एक स्वर में इस कैंपेन को आगे बढ़ाने में लग गए। 

इसे फुर्ती का उदाहरण माना जाए या तैयारी का?

हम याद रखेंगे, कि जब सारा देश शोक में था, लाशों का लहू तक नहीं सूखा था, तब तुम चुनावी फ़ायदे वाले नफ़रती पोस्टर प्रसारित करने में लगे थे।

हम याद रखेंगे, कि सोशल मीडिया की तुम्हारी पोस्टों में दुःख के शब्द खोजे नहीं मिल रहे थे, बल्कि यही एक चुनावी नारा दिखाई दे रहा था। देश भर के तुम्हारे पार्टी और मीडिया कार्यकर्ता एक स्वर में यही ऑर्गेनाइज्ड कैंपेन चला रहे थे। हम सब याद रखेंगे।”

पत्रकार हरीश खरे ने ध्यान दिलाया कि बैसरन की हिंसा का इस्तेमाल मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का प्रचार करने के लिए किया जा रहा है। इस तरह के ‘संदेश’ चारों तरफ़ प्रसारित किए जा रहे हैं: 

“श्रद्धांजलि


आज से शुरू करो जो उन्होंने किया,


नाम पूछो, पेट पर लात मारो,


नाम पूछो, काम से निकालो,


नाम पूछो, सामान मत खरीदो,


नाम पूछो, टैक्सी कैंसिल करो,


नाम पूछो, और पूरी तरह से बहिष्कार करो.


एक-दो हफ्ते की परेशानी होगी,


लेकिन नतीजे बहुत अच्छे आएंगे.

इस घृणा-प्रचार का असर हो रहा है। देश में जगह जगह कश्मीरी छात्रों पर हमले होने लगे, उन्हें धमकियाँ दी जाने लगीं। मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार और तेज कर दिया गया। आगरा में एक मुसलमान की हत्या कर दी गई।

हम जानते थे कि यह होगा। इस देश में, हिंदुओं में मुसलमान विरोधी घृणा है।एक बड़ा संगठित जाल है जो इस घृणा को उकसाता रहता है। हमें आशंका थी कि इस हमले का इस्तेमाल करके यही किया जाएगा। क़ायदे से देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री को अपने मतदाताओं को कहना चाहिए था कि यह समय राष्ट्रीय एकजुटता का है और भारत में कहीं भी कश्मीरियों के ख़िलाफ़ कुछ नहीं किया जाना चाहिए। मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा, हिंसा अस्वीकार्य है। लेकिन उन्होंने यह नहीं किया। क्या इसलिए कि वे यही करते हुए इन पदों पर पहुँचे हैं?

भले ही घृणा और हिंसा की राजनीति करते हुए वे भारत के भाग्य विधाता बन गए हों, उनके पद की मर्यादा की माँग थी कि वे देश के नागरिकों से यह अपील करें कि वे हमवतनों पर हमला न करें। वे देश में शांति और सौहार्द बनाकर रखें।लेकिन यह इनमें से किसी ने नहीं किया। 

दहशतगर्द हमलों के बाद अब कई दिन गुजर गए हैं। बिहार की चुनावी सभा के बाद प्रधानमंत्री ने एक बार और राष्ट्र के नाम अपना प्रसारण किया है। इस प्रसारण के पहले देश भर में कश्मीरी छात्रों को धमकियाँ दी गई हैं, उनपर हमले हुए हैं। मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं। उनके ख़िलाफ़ नफ़रत का प्रचार किया जा रहा है। क्या यह उम्मीद करना ग़लत है कि प्रधानमंत्री इस हिंसा की निंदा करें? क्या यह ज़रूरी नहीं कि देश में हर नागरिक सुरक्षित महसूस करे? क्या हिंदू भावना को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा की निंदा नहीं की जा रही?

बैसरन की हत्याओं के बाद पूरा कश्मीर एक स्वर में बोला, “हमारे नाम पर यह नहीं! हम इसे अस्वीकार करते हैं।” भारत भर की मस्जिदों से कहा गया, “ मुसलमानों के नाम पर यह नहीं।” ऐसा बोलना उचित था और ज़रूरी क्योंकि खबर यही है कि दहशतगर्दों ने नाम पूछ कर, धर्म पहचान कर लोगों को मारा।यानी उन्होंने दिखलाना चाहा कि वे मुसलमानों की तरफ़ से हिंदुओं को मार रहे हैं।इसलिए कश्मीरियों का, मुसलमानों का यह कहना ज़रूरी था कि उनके नाम पर यह नहीं किया जा सकता।वे दहशतगर्दों को अपना नहीं मानते। 

वे बोले, बोल रहे हैं लेकिन भारत भर में यह कहा जा रहा है कि कश्मीरी ही, मुसलमान ही इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। फिर कुछ कहने सुनने की गुंजाइश ही कहाँ बच जाती है?