शिवराज सिंह चौहान
बीजेपी - बुधनी
जीत
चुनाव आयोग की आंखें अब शायद थोड़ा खुली हैं, भले ही वो मसला बीजेपी की शिकायत का हो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ हो। ममता बनर्जी के मुसलमानों से एकजुट होने की अपील के बयान पर आयोग ने उनसे जवाब देने को कहा है। यह अलग बात है कि इस चुनाव के दौरान दर्जनों ऐसे मौके आए होंगे जब राजनीतिक दलों और नेताओं ने धर्म के इस्तेमाल की सीमाएं लांघीं होगीं।
आंकड़ों और आम धारणा को देखें तो पश्चिम बंगाल में पिछले कुछ चुनावों में मुसलिम वोटरों ने ममता बनर्जी का ही साथ दिया है तो फिर ममता को यह अपील करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
पश्चिम बंगाल में मुसलिम आबादी 27 फीसद है और यह राज्य की 294 विधानसभा सीटों में से करीब 130 सीटों पर निर्णायक हो सकती है। अब तक राज्य में तीन चरणों के चुनाव में 91 सीटों पर वोट डाले जा चुके हैं और अगले पांच चरणों में जिन 203 सीटों पर वोट डाले जाएंगे, उनमें से 110 से ज़्यादा सीटों पर मुसलिम वोटर नतीजों पर असर डाल सकते हैं, इनमें ज़्यादातर सीटों पर 25 फीसद से ज़्यादा अल्पसंख्यक आबादी है, लेकिन पांचवें से आठवें चरण तक यह बढ़कर 35 फीसद तक पहुंच जाएगी।
पहले माना जा रहा था कि तृणमूल कांग्रेस खुलकर मुसलिम कार्ड इसलिए नहीं खेल रही है क्योंकि इससे उसे बीजेपी के पक्ष में हिंदू वोटों के एकजुट होने का डर सता रहा था और सिर्फ मुसलिम वोटों के भरोसे वो सत्ता में नहीं आ सकती। लेकिन इस चुनाव में लेफ्ट-कांग्रेस के अलावा असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी और फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी की वजह से ममता दी को डर लगता रहा है कि कहीं मुसलिम वोटों का बंटवारा उनका नुकसान ना करा दे, हालांकि कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने पश्चिम बंगाल में मौटे तौरे पर चुनाव प्रचार नहीं करके ममता दी के लिए रास्ता थोड़ा आसान किया है।
अगले पांच चरणों में सिर्फ चौथे चरण को छोड़कर बाकी सभी में मुसलमानों की भूमिका अहम होगी और यहां यदि 50 फीसद से ज़्यादा मुसलिम वोट और 25 से 30 फीसद हिंदू वोट ममता को नहीं मिला तो उनकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं। इसलिए इस बात की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में चुनाव ज़्यादा साम्प्रदायिकता लिए और आक्रामक हो सकता है।
इसके साथ ही अब अन्य राज्यों में चुनाव खत्म हो गए हैं तो राष्ट्रीय पार्टियों यानी बीजेपी और कांग्रेस के नेता सिर्फ बंगाल पर ही फोकस करेंगे। बीजेपी के नेताओं और चुनावी कार्यकर्ताओं की पूरी टीम वहां पहुंच जाएगी। जाहिर है कि चुनाव आयोग ने अब सख्ती नहीं बरती तो संकट गहरा हो सकता है लेकिन यह सख्ती सिर्फ़ विपक्षी पार्टियों पर ही नहीं होनी चाहिए।
साल 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक़, पश्चिम बंगाल में 27 फीसद मुसलिम आबादी है। अहम बात यह है कि इस दशक में मुसलमान वोटर ने तृणमूल कांग्रेस का ज़्यादा साथ दिया है।
लोक-नीति के सर्वे के मुताबिक़ साल 2006 के चुनावों में मुसलमानों का 46 फीसद वोट लेफ्ट पार्टियों को, 25 फीसद कांग्रेस को और 22 फीसद तृणमूल कांग्रेस को मिला था। साल 2011 के चुनाव में लेफ्ट और तृणमूल कांग्रेस के बीच यह अंतर सात फीसद का रहा था। लेकिन 2014 के आम चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने 40 फीसद मुसलमानों का वोट हासिल कर के 34 लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया था। उस चुनाव में लेफ्ट और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था लेकिन दोनों को कुल मिला कर 55 फीसद मुसलिम वोट मिले थे, मगर उसका सीटों में फायदा उन्हें नहीं मिल पाया।
मोदी लहर में 2019 के लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को 70 फीसद मुसलमानों का वोट मिला जबकि लेफ्ट को 10 और कांग्रेस को 12 फीसद वोट मिले। नतीजतन मोदी लहर के बावजूद पश्चिम बंगाल में 40 में से 22 लोकसभा सीटों पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा हो गया और 18 सीटें बीजेपी को मिलीं। दूसरी तरफ बीजेपी को 2014 में आम चुनाव में बंगाल में 16 फीसद वोट मिला था जो 2019 में बढ़कर 40 फीसद तक पहुंच गया। उसे 50 फीसद से ज़्यादा हिंदुओं का वोट यहां मिला था।
सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक़, उन चुनावों में बीजेपी को हिंदू वोटों में 58 फीसद सवर्णों का, 65 फीसद ओबीसी, 61 फीसदी अनुसूचित जाति और 58 फीसद अनुसूचित जनजाति का वोट मिला था। तृणमूल कांग्रेस की चिंता यही है कि मुसलिम वोट बैंक को एकजुट करने से कहीं हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण नहीं हो जाए, तब उसे ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा।
साल 2019 के चुनावों में बीजेपी के मुकाबले तृणमूल कांग्रेस को 3 फीसद ज़्यादा वोट मिले थे। लोकसभा सीटों की जीत को विधानसभा सीटों में बदल कर देखा जाए तो तब तृणमूल को 164 सीटों पर और बीजेपी को 121 सीटों पर बढ़त मिली थी।
बीजेपी के बढ़ते आत्म विश्वास का कारण भी यही है कि वो इन 121 सीटों की बढ़त को तो नतीजों में बदलना चाहती ही है, साथ ही हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण से उसे सरकार बनाने के करीब पहुंचने की उम्मीद है जिसके लिए अमित शाह और बीजेपी 200 पार का नारा दे रहे हैं।
इन चुनावों में मुसलमानों के अलावा मतुआ आबादी की भी बहुत चर्चा है जो बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थी हैं। जिनकी कुल वोटों में हिस्सेदारी 15 फीसद तक बताई जाती है।
बीजेपी और तृणमूल दोनों ही इन्हें लुभाने की कोशिश करती रही हैं लेकिन किसी भी पार्टी ने उन्हें आबादी की भागीदारी के हिसाब से सीटों में हिस्सेदारी नहीं दी है। तृणमूल के पश्चिम बंगाल में लेफ्ट को हटा कर सत्ता में आने में सिंगूर और नंदीग्राम का वो आंदोलन है जिसमें किसानों, मजदूरों और मुसलमानों की लड़ाई तृणमूल ने लड़ी थी लेकिन उसके बाद कुछ खास बदलाव उनके हालात में नहीं आया। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद ममता दी ने कुछ कदम मुसलमानों की बेहतरी के लिए उठाए थे लेकिन तसवीर अभी बदली नहीं है।
अवैध घुसपैठियों का मुद्दा भी अहम है, बीजेपी बार-बार इसकी याद दिलाती है और उन्हें देश से बाहर निकालने की चेतावनी देती है, लेकिन हकीकत में अवैध घुसपैठियों को बाहर करने के बहाने वो हिंदुओं को एकजुट करना चाहती है।
About Us । Mission Statement । Board of Directors । Editorial Board | Satya Hindi Editorial Standards
Grievance Redressal । Terms of use । Privacy Policy
अपनी राय बतायें