अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं।
प्रेमचंद मानव समाज के बारे में क्या सोचते थे, वह मनुष्य की ज़िन्दगी को ऊपर उठाने के बारे में क्या राय रखते थे? प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष श्रृंखला, आठवीं कड़ी।
हिंदी साहित्य में किसी प्रेमचंद-युग की चर्चा नहीं होती, उर्दू साहित्य में भी शायद नहीं। लेकिन यह कहना बहुत ग़लत न होगा कि अज्ञेय हों या जैनेंद्र या और भी लेखक, वे प्रेमचंद-युग की संतान हैं।..प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष श्रृंखला की सातवीं कड़ी।
आडवाणी ने ही क़बूल किया कि इस पूरे अभियान में धर्म सिर्फ़ एक आवरण था, यह पूरी तरह राजनीतिक अभियान था। वही राम मंदिर हिन्दू आस्था का सवाल कैसे बन गया?
दीन और इंसानियत के बारे में प्रेमचंद के क्या विचार थे? सत्य हिन्दी की विशेष श्रृंखला में बता रहे हैं अपूर्वानंद।
दिल्ली के मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने कहा कि दिल्ली दंगों के दौरान मुसलमानों से बदला लेने के लिए भीड़ को उकसाया गया।
पवित्रता, पाकीज़गी का धर्म से क्या रिश्ता है? क्या धार्मिक भाव अनिवार्यतः पवित्रता से जुड़ा हुआ है? प्रेमचंद की इस पर क्या राय थी?
प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर अपूर्वानंद बता रहे हैं कि ‘ईदगाह’ की याद इस प्रसंग में सहज ही आती है। प्रेमचंद का प्यारा हामिद हास्यपूर्ण युक्तियों का सहारा लेता है अपने दोस्तों से बदला लेने का।
प्रेमचंद के हास्य बोध, उनकी करुणा और गढ़ी गई भाषा पर यह लेख लिखा है कि अपूर्वानंद ने। प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर यह सत्य हिन्दी की विशेष पेशकश है।
शायद अब वक़्त आ गया है कि इसे किसी एक ख़ास मुल्क या मज़हब या समुदाय को लगनेवाली बीमारी न मानकर वैसे ही महामारी माना जाए जैसे हम कोरोना वायरस के संक्रमण को मानते हैं।
प्रेमचंद का ठहाका मशहूर था, ऐसा ठहाका जो गगनभेदी होता था, जिसे सुन कर उनसे पहली बार मिलने वाला चौंक उठता था।
प्रेमचंद 140 के हुए। नहीं, यह कहना पूरी तरह सही न होगा। प्रेमचंद तो कुल जमा 110 के हुआ चाहते हैं। इनकी पैदाइश 1910 की है। उसके पहले का अवतार था नवाब राय।
तो क्या अब दुनिया भर के मुसलमानों के लिए यह जश्न का मौक़ा है? यह कि हागिया सोफ़िया या हाया सोफ़िया अब फिर से मसजिद है? वह जो कल तक संग्रहालय थी? उसके पहले मसजिद? और उसके भी पहले एक गिरजाघर?
आज जो चीन के सम्पूर्ण बहिष्कार का नारा दे रहे हैं, वे कल तक अफ़सोस कर रहे थे कि चीन ने विकास की जो ऊँचाइयाँ हासिल कर ली हैं, हम उनके क़रीब भी क्यों नहीं पहुँच पाए हैं।
पुलिस का नज़रिया तबतक नहीं बदल सकता जबतक समाज का ताक़त के इस्तेमाल को लेकर रवैया नहीं बदलता।
राजनीति में झूठ बोलना क्या एक नये दौर में पहुँच गया है। अमेरिका में तो मीडिया ने ट्रम्प के झूठ की लंबी फेहरिस्त तक छापी है। इस पर शोध हुए हैं कि उनके लगातार झूठ और ग़लत तथ्यों की जानकारी देने की ख़बरें छपने के बावजूद जनता और झूठ क्यों माँगती है।
अगर दिल्ली पुलिस की बात मानें तो हर्ष मंदर फ़रवरी महीने के आख़िरी दिनों में दिल्ली में हुए दंगों की साज़िश में शामिल थे।
जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या के बाद सारे अमेरिका में जो शोक और रोष उमड़ पड़ा है, उसमें गोरे भी बड़ी संख्या में शामिल हुए हैं।
एक तरफ़ छात्रों की गिरफ़्तारियों की ख़बर दिल्ली, अलीगढ़ और इलाहाबाद से आ रही है और दूसरी तरफ़ विश्वविद्यालय ऑनलाइन इम्तहान की चिंता में क्यों?
जवाहरलाल नेहरू और भगत सिंह का क्या रिश्ता हो सकता है? एक समय था कि दोनों ही भारत के युवाओं के हृदय सम्राट माने जाते थे।
सीमा भारत और पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश या म्यांमार के बीच नहीं रह गई है, अब बिहार और उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात, असम और मेघालय या कर्नाटक और केरल के बीच खिंच गई है।
प्राथमिक भाव भय का था। फिर घृणा। और तब स्वाभाविक क्रम में हिंसा। यह कैसे हुआ जबकि घोषणा युद्ध की की गई थी प्रत्येक देशवासी को योद्धा की पदवी प्रदान की गई थी? तो योद्धा कौन था और वीरता को कहाँ देखा हमने?
प्रेस स्वतंत्रता दिवस गुज़र गया। भारत के सूचना विभाग के मंत्री ने इस मौक़े पर दिए गए रस्मी बयान में दावा किया कि भारत में प्रेस को पूरी आज़ादी है। इस बयान को किसी ने नोटिस लेने लायक़ नहीं समझा। क्यों?
बंबई उच्च न्यायालय ने सरकार को समाज के जाने माने लोगों की मदद लेने की सलाह दी। मैं बंबई उच्च न्यायालय को कहना चाहता था कि इस समाज में अब कोई ऐसा बचा नहीं। सबकी प्रतिष्ठा रौंद डाली गई है।
जो कम्पनी आज 5000 लोगों को खाना बाँट रही है, वह जब 1000 कामगारों की छँटनी करेगी तो हम जो उससे यह अनुदान लेकर लोगों को ज़िंदा रखने का संतोष लाभ कर रहे हैं, क्या उन कामगारों की तरफ़ से कुछ बोल पाएँगे?
पिछले महीने दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाक़े में जो हिंसा हुई, उसके गुनहगारों को पहचानने और पकड़ने में दिल्ली पुलिस जुटी हुई है। पुलिसकर्मी पूरी चुस्ती के साथ एक-एक कर उन्हें पकड़ रही है।
तब्लीग़ी जमात के प्रकरण के बाद अख़बार और सोशल मीडिया मुसलमान विरोधी प्रचार से भरे हुए हैं। इसके पीछे मुसलमानों को ग़ैर-जिम्मेदार दिखलाना ही मक़सद है।