प्रेस स्वतंत्रता दिवस गुज़र गया। भारत के सूचना विभाग के मंत्री ने इस मौक़े पर दिए गए रस्मी बयान में दावा किया कि भारत में प्रेस को पूरी आज़ादी है। इस बयान को किसी ने नोटिस लेने लायक़ नहीं समझा।
भय की गोद में कितनी आज़ाद है पत्रकारिता?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 4 May, 2020

कहा जा सकता है कि कवि या उपन्यासकार की तरह ही पत्रकार की पहली दिलचस्पी जीवन और लोगों में होनी चाहिए। जैसे साहित्य के बारे में कहा जाता है कि वह सबसे अधिक वेध्य का पक्षधर होता ही है, वैसे ही पत्रकारिता अनिवार्यतः उसकी तरफ़ से की जाती है। यह कहना अनैतिक है कि पत्रकारिता निष्पक्ष होती है। उसका पक्ष सत्य का है।
कल ही डॉयचे वेले के सालाना दिए जानेवाले फ़्रीडम अव स्पीच अवार्ड का ऐलान हुआ। भारत के सिद्धार्थ वरदराजन भी इसमें शामिल हैं। उनके साथ चीन, रूस, बेलारूस, तुर्की, ईरान, कंबोडिया, फ़िलीपींस, जॉर्डन, युगांडा, ज़िंबाब्वे, वेनेज़ुवेला के पत्रकारों को भी सम्मानित किया गया है। ये सब पत्रकार किसी न किसी रूप में अपने यहाँ की सत्ताओं के उत्पीड़न के शिकार हुए हैं। इस वजह से पत्रकारिता की दुनिया में इनकी इज़्ज़त बढ़ गई है। देशों के नाम से अंदाज़ होगा कि दुनिया का शायद ही कोई कोना हो जहाँ पत्रकार और सत्ता का रिश्ता तनाव का न हो! हम कह सकते हैं कि हम अकेले नहीं हैं।
क्यों ऐसा कोई पुरस्कार नहीं जो सत्ता से कुरबत के लिए दिया जाता हो? इसका जवाब स्पॉटलाइट नाम की एक फ़िल्म से मिलता है। यह फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है। 2001 में बॉस्टन ग्लोब नामक अख़बार मार्टी बैरन को सम्पादक के रूप में नियुक्त करता है। अख़बार में स्पॉटलाइट नामक एक विशेष खंड है जो खोजी पत्रकारिता के लिए ही है और अख़बार में उसकी ख़ास जगह है। स्पॉटलाइट टीम को एक एक ख़बर करने में महीनों की खोज, शोध और जाँच पड़ताल करनी पड़ती है। अख़बार इसके लिए उन्हें पर्याप्त अवकाश देता है।