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प्रेमचंद के 140 साल : प्रेमचंद की हँसी क्या कहती है?

प्रेमचंद से पहली बार मिलनेवाले अक्सर उनके ठहाकों से चौंक पड़ते थे। उन्हें शायद प्रेमचंद के उपन्यासों या कहानियों से इनका मेल समझ न आता हो! कहकहे भी कैसे: गगनभेदी!...प्रेमचंद के 140 साल होने पर पढ़ें सत्य हिन्दी की विशेष श्रृंखला की दूसरी कड़ी। 
अपूर्वानंद
एक छाया-चित्र है। प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं। प्रसाद गम्भीर सस्मित। प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य। विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नज़र ठहरने का एक और कारण भी है। प्रेमचन्द का जूता कैनवस का है, और वह अँगुलियों की ओर से फटा हुआ है। जूते की क़ैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मजे से मैदान की हवा खा रही हैं। फोटो खिंचवाते वक्त प्रेमचन्द अपने विन्यास से बेखबर हैं। उन्हें तो इस बात की खुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं।

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इस फोटो का मेरे जीवन में काफी महत्त्व रहा है। मैंने उसे अपनी माँ को दिखाया था। प्रेमचन्द की सूरत देख मेरी माँ बहुत प्रसन्न मालूम हुई। वह प्रेमचन्द को एक कहानीकार के रूप में बहुत -बहुत चाहती थी। उसकी दृष्टि से, यानी उसके जीवन में महत्त्व रखने वाले, सिर्फ दो ही कादम्बरीकार (उपन्यास लेखक) हुए हैं - एक हरिनारायण आप्टे, दूसरे प्रेमचन्द। आप्टे की सर्वोच्च मराठी कृति, ‘उनके लेखे, पण लक्षान्त कोण देती है’ जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करुण कथा कही गयी है। वह क्रान्तिकारी करुणा है। उस करुणा ने महाराष्ट्रीय परिवारों को समाज-सुधार की ओर अग्रसर कर दिया। मेरी माँ जब प्रेमचन्द की कृति पढ़ती, तो उसकी आँखों में बार-बार आँसू छलछलाते से मालूम होते। और उन दिनों मैं साहित्य का एक जड़मति विद्यार्थी मात्र मैट्रिक का एक छोकरा था - प्रेमचन्द की कहानियों का दर्द भरा मर्म माँ मुझे बताने बैठती। प्रेमचन्द के पात्रों को देख, तदनुसारी-तदनरूप चरित्र माँ हमारे पहचानवालों में से खोज-खोजकर निकालती। इतना मुझे मालूम है कि माँ ने प्रेमचन्द का ‘नमक का दारोगा’ पिताजी में खोजकर निकाला था। प्रेमचन्द पढ़ते वक़्त माँ को खूब हँसी भी आती, और तब वह मेरे मूड की परवाह किये बगैर मुझे प्रेमचन्द-कथा-प्रसूत उसके हास्य का मर्म बताने की सफल-असफल चेष्टा करती।

क्या कहा था मुक्तिबोध ने?

गजानन माधव मुक्तिबोध के ‘मेरी माँ ने मुझे प्रेमचन्द का भक्त बनाया’ शीर्षक लेख से हिंदी साहित्य का हर पाठक खूब परिचित है। मराठीभाषी मुक्तिबोध की हिंदी की दीक्षा में प्रेमचंद की बड़ी भूमिका रही होगी, यह तो इस लेख की शुरुआत से ही मालूम हो जाता है। जिस जूते का ज़िक्र मुक्तिबोध ने किया है उसे उन्हीं के मित्र हरिशंकर परसाई ने अमर कर दिया है अपने मर्मस्पर्शी लेख ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ से। 
मुक्तिबोध का ध्यान जितना जूते के फटे होने पर जाता है, उतना ही ‘होठों पर अस्फुट हास्य’ लिए प्रेमचंद की मुद्रा पर जो ‘अपने विन्यास से बेख़बर’, खुश दिखलाई पड़ते हैं, इसलिए कि वह प्रसाद के साथ खड़े फ़ोटो खिंचवा रहे हैं।

माँ के होठों पर हँसी

इस उद्धरण को दशकों पहले पढ़ते हुए जहाँ अटक गया था, वह था इसका अंतिम वाक्य, 'प्रेमचंद पढ़ते वक्त माँ को खूब हँसी भी आती, और तब वह मेरे मूड की परवाह किए बिना ‘प्रेमचंद-कथा-प्रसूत उसके हास्य का मर्म बताने की सफल-असफल चेष्टा करती।’  इसके पहले प्रेमचंद को पढ़ती हुई माँ की आँखों से छलछलाते आँसुओं का ज़िक्र वे कर चुके हैं। उन्हीं नम आँखों वाली माँ के होठों पर हँसी, वह भी खूब!

'ईदगाह' की आलोचना

40 साल पहले प्रेमचंद जन्मशती वर्ष के मौक़े पर होने वाली प्रेमचंद-गोष्ठियों में से एक में पटना के जनप्रिय चिकित्सक डॉक्टर ए. के. सेन का ‘ईदगाह’ कहानी पर वक्तव्य भी कभी नहीं भूल सकता। उन्होंने उसे एक ‘चीयरलेस वर्ल्ड’ की कहानी बताया था।’ 'हामिद को प्रेमचंद ने अकालपरिपक्व बना दिया!’, इस कारण ही वह बच्चा कई सुधी पाठकों को एक अस्वाभाविक चरित्र जान पड़ता है। हामिद ने बड़े जैसा आचरण किया।
यह अलग बहस है कि बच्चे और बड़े का जो कठोर विभाजन हम करते हैं, वही कितना ठीक है। लेकिन इस चर्चा को यहाँ रहने दें, प्रेमचंद की दुनिया के बारे में, जोकि उनकी रचनाओं की दुनिया है, यह ख़याल आम है कि वह अभाव, शोषण और संघर्ष के चित्रों से भरी है।
डॉक्टर सेन के इस वक्तव्य के कई वर्षों बाद निर्मल वर्मा की शिकायत पढ़ी। उन्हें प्रेमचंद के संसार में विषाद का आधिक्य दिखलाई पड़ा। प्रकारांतर से वे उसे एकआयामी और अधूरा बता रहे थे।

गगनभेदी कहकहे

प्रेमचंद से पहली बार मिलनेवाले अक्सर उनके ठहाकों से चौंक पड़ते थे। उन्हें शायद प्रेमचंद के उपन्यासों या कहानियों से इनका मेल समझ न आता हो! कहकहे भी कैसे: गगनभेदी! उनसे मिलनेवाले उनके पुरमज़ाक़ मिजाज़ को देखकर हैरान रह जाते थे। जनार्दन राय ने उनकी मृत्यु के बाद लिखा, ‘मैंने प्रेमचंद की भवों में एक वेदना सोई पाई। वह जैसे समस्त जीवन का उपहास कर रही हो, ऐसा मुझे लगा। मुझे लगा, वे इतनी परवाह क्यों करते हैं?’

‘इतनी परवाह क्यों करते हैं?’ तो क्या इस ज़िंदगी की इतनी परवाह की सजा है यह वेदना या दुःख? लेकिन आगे राय साहब लिखते हैं,
‘लेकिन वाह रे मैं, कितना ग़लत मेरा यह अंदाज़ था? रात को उस निर्जन सड़क पर प्रेमचंद का वह तरंग-विनिंदित मुक्तहास आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है, ऐसा गुंजार रहा है कि ट्रेन की वह कर्ण-कटु आवाज़ भी उससे मात हो रही है।’

आनंद के आँसुओं भरी हँसी!

जनार्दन राय प्रेमचंद के साथ एक कवि सम्मेलन से लौट रहे हैं: ‘एक एक तुक्काड़ के नाज़ नख़रे ले-लेकर यह दुःखी, दुःखी प्रेमचन्द हँस रहा था। हँस रहा था, जैसे सारा जीवन एक मस्त हास्य हो, आनंद की एक तरंग। यह तो देखो, प्रेमचंद मारे हँसी के टेढ़े हो रहे हैं, लक्कड़! हँस तो हम भी रहे थे, पर हमारे मन मानो सींकचों में बन्द मुँह झलका रहे हों-और इस साहित्य के ‘होरी’ को तो देखो, जैसे प्रतिपल एक नई हँसी हो! चाँदनी रात का वह हास्य आज मुझसे पूछ रहा है, तब क्या प्रेमचन्द प्रेम और आनन्द की आँसुओं भरी हँसी थे?’

प्रेमचंद से जैनेंद्र की पहली मुलाक़ात!

बातों ही बातों में वक़्त गुजरता गया कि खयाल न रहा प्रेमचंद को दवा लाने का। भीतर से याद दिलाई गई : ‘प्रेमचंद अप्रत्याशित भाव से उठ खड़े हुए। बोले, ज़रा दवा ले आऊँ, जैनेंद्र।’ देखो, बातों में कुछ ख़्याल ही न रहा। कहकर इतने ज़ोर से क़हक़हा लगाकर हँसे कि छत के कोनों में लगे मकड़ी के जाले हिल उठे। मैं तो भौंचक रहा ही। मैंने इतनी खुली हँसी जीवन में शायद ही कभी सुनी थी। और फिर तुरत ही, ‘हँसी का वह  क़हक़हा और भी द्विगणित वेग से घर भर में गूँज गया।’
क्या रचनाकार के अपना स्वभाव और उसकी रचनाओं की प्रकृति में सहज मेल होता ही है? स्वभाव का हास्यमय होना क्या होता है?

गुरुदेव की लाहौर यात्रा

अज्ञेय ने सरोजिनी नायडू के अपने संस्मरण में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से उनकी लाहौर यात्रा के दौरान हुई दोनों की मुलाक़ात का वर्णन किया है, ‘गुरुदेव की बैठक में प्रवेश करते हुए और पर्दा हटाते हुए उन्होंने द्वार से ही आवाज़ दी, वेल, गुरुदेव, एंड हाउ आर यू? ( कहिए, गुरुदेव, क्या हाल है?)’
गुरुदेव भरे बैठे थे। आरामकुर्सी से उठकर नाटकीय ढंग से उठ कर नाटकीय ढंग से बाँहें फैला कर सरोजिनी की बढ़ते हुए उन्होंने व्यथा-भरे स्वर में कहा, ‘ओह, सरोजिनी, आइ’म डाइंग!’….

सरोजिनी जहाँ थीं, वहीं ठिठक गयीं। फिर मधुर ललकार-भरे स्वर में बोलीं, ‘वेल, देन गुरुदेव, वी’ल मीट इन हेवन!’….
यह हँसी भी थी और एक प्रकार की फटकार भी; गुरुदेव कुछ सकते-से में आकर जहाँ के तहाँ रुक गये….'

प्रेमचंद से फ़िराक़ की पहली मुलाक़ात

तो हँसी फटकार भी हो सकती है और तिरस्कार भी या वह उस क़िस्म की भी हो सकती है जिसका ज़िक्र फ़िराक़ गोरखपुरी ने प्रेमचंद से औचक ही हुई पहली मुलाक़ात के वर्णन में किया है।
वे महावीरप्रसाद पोद्दार से मिलने आए थे। उनके ओंकार प्रेस से मशहूर लोगों के संक्षिप्त जीवन चरित की एक पुस्तकमाला निकल रही थी। फ़िराक़ ने कहा कि भारत के महत्त्वपूर्ण लोगों से जनता को परिचित कराने की यह योजना तो अच्छी है, लेकिन अब्राहम लिंकन जैसे भारतीय जनता में बिलकुल अपरिचित लोगों की जीवनी छापना बेकार है। 
जब फ़िराक़ पोद्दारजी से बात कर रहे थे तो एक अपरिचित शख़्स भी वहाँ था : ‘मेरी यह बात सुनकर पोद्दार जी के पास जो साहब बैठे थे उन्होंने बड़े ज़ोर का कहकहा मारा और बिना परिचय हुए मुझसे कहने लगे, ‘आख़िर लिंकन ने क्या क़सूर किया है कि उनको इस पुस्तकमाला में जगह न दी जाय?’ ये अपरिचित सज्जन प्रेमचंद थे। इस हँसी में युवक फ़िराक़ के संकीर्ण राष्ट्रवाद की भर्त्सना निश्चय ही थी।
इस परिचय के बाद फ़िराक़ और प्रेमचंद की दोस्ती, उम्र के फ़ासले के बावजूद गाढ़ी ही होती गई। कौन जाने फ़िराक़ की दृष्टि में जो विशालता हमें दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे इस हास्य की कुछ भूमिका हो!

 प्रेमचंद से अज्ञेय की निकटता

अज्ञेय का प्रेमचंद से ख़ासा नैकट्य था। वे ‘उपन्यास सम्राट’ नामक अपने निबंध में प्रेमचंद के दिल्ली प्रवास के एक प्रसंग की याद करते हैं। दिन भर के काम से थके प्रेमचंद का ‘इंटरव्यू’ लेने कुछ नौजवान आए। अज्ञेय को लगा कि उनके प्रश्न सतही थे। आख़िर में उन्होंने रस्मी तौर पर नए लेखकों के लिए उनका संदेश माँगा। 

प्रेमचंद ने कुछ सकुचाते हुए कहा,  ‘संदेश मेरा क्या होगा! ….मैं तो साधारण लेखक हूँ। लेकिन अनुभव की बात आप पूछते हैं तो यह कह सकता हूँ कि साहित्यकार के लिए साधना का बहुत महत्त्व होता है…।’…प्रश्नकर्ता ने कुछ तीखे स्वर में कहा, ‘आप के लिए तो साधना की बात कह देना बहुत आसान है। आप का क्या है, आप तो एक पैर कब्र में लटकाए बैठे हैं। हम नौजवानों का सोचिए-हमारे लिए साधना की बात किस काम की?’प्रश्न पूछने के ढंग से मैं एक तरफ़ बैठा भी तिलमिला गया। प्रेमचंद भी एक छोटे क्षण के लिए सकते में आ गए थे, लेकिन तुरत संभलते हुए उन्होंने संयत स्वर में कहा, ‘एक क्यों, मैं तो दोनों पैर कब्र में लटकाए बैठा हूँ, फिर भी कहता हूँ कि साधना का बड़ा महत्त्व होता है’और अपनी बात पूरी करके उन्होंने अपना प्रसिद्ध कहकहा लगाया…. स्पष्ट था कि इस बीच इस प्रश्न की बदतमीज़ी पर उन्होंने पूरी तरह से विजय पा ली है।

प्रेमचंद की हँसी का मतलब था छतफोड़ ठहाका, लेकिन ‘हँसी’ नामक अपने लेख में उन्होंने हँसी की जो 6 क़िस्में गिनाई हैं और उनकी जो दरजाबंदी की है, उसके हिसाब से खुद उनकी हँसी 5वें नम्बर पर आती है जिसे सबसे निकृष्ट समझा जाता है और जिसकी गिनती ‘अशिष्टता में होती है।’

लेकिन आगे वे लिखते हैं,

डॉक्टरी दृष्टि से कहकहा तंदरुस्ती के लिए बहुत अच्छा माना गया है।…हँसी खुली हुई तबीयत की पहचान है और जिस आदमी के इरादे नेक न हों और जिसके हृदय को शांति और इत्मीनान हासिल न हो वह कभी खुलकर नहीं हँस सकता।

लेख ऐसे पाठकों के लिए लिखा गया है जिन्हें लेखक उर्दू हास्य से परिचित मानता है। उनके लिए संस्कृत साहित्य से हास्य के जो नमूने वह पेश करता है. उनके लिए शायद उनपर आज मुक़दमा दायर कर दिया जाता। आप भी आनंद लीजिए:

…एक कोमल भावनाओं से अपरिचित ब्राह्मण अपनी प्रेमिका से कहता है—ऐ देवी, मेरे यह होंठ सामवेद गाते-गाते बहुत पवित्र हो गए हैं। इन्हें तुम जूठा मत करो। अगर तुमसे किसी तरह रहा नहीं जाता तो मेरे बाएँ कान को ही मुँह में लेकर चुबलाओ।

….जैनियों का मज़ाक उड़ाते हुए एक लेखक कहता है कि ये लोग एकांत में भी सुंदरी के लाल-लाल होंठों से बचते रहते हैं क्योंकि होंठ में  दाँत  लगने से उन्हें मांसाहार का आरोप लगने का भय है।

हँसी-दिल्लगी की जगह

प्रेमचंद हँसी-दिल्लगी को साहित्य में वाजिब जगह दिए जाने के हक़ में हैं। उनके मुताबिक़ किसी भी देश या जाति का साहित्य उस देश या जाति की सर्वोत्तम भावनाओं और विचारों का संकलन माना जाता है। लेकिन हँसी-दिल्लगी को शायद इसी वजह से हाशिए पर डाल दिया जाता है जबकि सर्वसाधारण में प्रचलन की दृष्टि से उसका अधिकार केंद्रीय भूमिका का है।
फिर भी प्रेम की भावनाओं को उससे ऊपर रखा जाता है जो एक सीमाबद्ध भावना है। प्रेमचंद इसपर रंज ज़ाहिर करते हैं। उनका विचार है, 'गद्य हो या पद्य, हँसी-दिल्लगी उनकी आत्मा है और उसके बग़ैर वह रूखी-सूखी और बेमज़ा होती है।

हँसी-मजाक की ज़रूरत

‘शरर और शरशार’ की तुलना करते हुए ऑस्कर ब्राउनिंग के हवाले से वे उपन्यासकार के लिए जिन गुणों को नितांत आवश्यक मानते हैं उनमें सशक्त वर्णन शैली, दर्शन और ड्रामा के साथ हँसी-मज़ाक़ कर सकना शामिल है। 'चाँद' पत्रिका के लिए लिखे गए ‘गल्पांक का प्रस्ताव’ वे कहते हैं,

प्रेमचंद युवक लेखकों को धमकी देते हैं कि रोने के इलाक़े में, जिसपर बुजुर्गों का अधिकार है, वे दख़लअंदाजी न करें : आपमें नया जोश है, नया रक्त है, नया जीवन है, नई स्फूर्ति है, आप अगर रोने पर उतारू होंगे तो प्रलय ही कर डालेंगे। फिर हम ग़रीबों के लिए कहाँ जगह रह जाएगी, सिवाय परलोक के।

प्रेमचंद इस लेख के लिखे जाते वक़्त 50 के भी नहीं हुए हैं। लेकिन हिंदी के बुजुर्ग घोषित किए जा चुके हैं। वे कहते हैं कि ठीक है कि वर्तमान जलवायु हास्य के विकास के लिए अनुकूल नहीं, लेकिन अपनी प्रबल आशावादिता से इस नैराश्य-तिमिर को हटाना ही होगा।

क्या कहा था माखनलाल चतुर्वेदी ने?

कोई आश्चर्य नहीं कि माखनलाल चतुर्वेदी प्रेमचंद के अवसान पर हाहाकर करते हैं,  प्रेमचंद, मुक्त हास्य प्रेमचंद, सहायक प्रेमचंद, मित्र प्रेमचंद, विनोदी प्रेमचंद, मानव मिठास की गुदगुदी प्रेमचंद, अपने साथी और स्नेही की बलवान भुजा प्रेमचंद उपन्यास पढ़नेवाली जमाअत को भोजन देनेवाले प्रेमचंद चले गए।

यह मज़ा, यह आनंद, यह गुदगुदी लेकिन कोई हल्की चीज़ नहीं और हर किसी के बस की भी नहीं। कहानी कैसी और कैसे लिखी जाए? प्रेमचंद की यह उक्ति हर लेखक के लिए प्रेरणा है और चुनौती भी, ‘ग़म की कहानी मज़े लेकर कहना।’

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अपूर्वानंद
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