भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार संविधान के तहत मिला है, लेकिन इसकी सीमाएँ और व्याख्या हमेशा चर्चा का विषय रही हैं। हाल के कुछ मामलों में विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े मामलों में अलग-अलग रुख अपनाए हैं। एक दिन पहले कमल हासन के मामले में अदालत ने कहा था कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार इतना नहीं दिया जा सकता कि यह जनता की भावनाओं को ठेस पहुँचाए। अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि 'प्रत्येक आदमी को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन इस समय इस तरह की सांप्रदायिक बात लिखने की क्या जरूरत थी? लेकिन बाद में इसी सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले में कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र का आधार है और इसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही सीमित किया जा सकता है।
कमल हासन के मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट, खादीजा शेख के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट, शर्मिष्ठा पनोली के मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट और अली खान महमूदाबाद के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों ने इस मुद्दे पर अलग-अलग नज़रिये पेश किए हैं। 

कमल हासन और कर्नाटक हाईकोर्ट

कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में अभिनेता और राजनेता कमल हासन को कन्नड़-तमिल भाषा विवाद से जुड़े एक बयान के लिए कड़ी फटकार लगाई। कमल हासन ने कथित तौर पर कन्नड़ भाषा की उत्पत्ति को लेकर एक विवादास्पद टिप्पणी की थी, जिससे कन्नड़ भाषी समुदाय की भावनाएँ आहत हुईं। इस मामले में सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने साफ़ किया कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुँचाए। कोर्ट ने कहा, 'आप कमल हासन होंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप लोगों की भावनाओं को आहत कर सकते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए।'

कोर्ट ने कमल हासन के वकील की इस दलील को खारिज कर दिया कि अभिनेता ने जानबूझकर भाषा का अपमान नहीं किया। अदालत ने सुझाव दिया कि एक माफी से विवाद सुलझ सकता था, लेकिन हासन के माफी न माँगने के रवैये पर नाराज़गी जताई।

कमल हासन मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट का रुख यह दिखाता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमाएँ तब लागू होती हैं, जब कोई बयान सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुँचाता है या किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुँचाता है।

खादीजा शेख और बॉम्बे हाईकोर्ट

पुणे की 19 वर्षीय छात्रा खादीजा शेख के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने अहम टिप्पणी की। बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि खादीजा को ऑपरेशन सिंदूर की आलोचना करने वाली केवल सोशल मीडिया पोस्ट के लिए गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए था, क्योंकि उन्होंने पोस्ट को दो घंटे के भीतर हटा दिया था और सार्वजनिक रूप से माफी माँगी थी। 

कोर्ट ने महाराष्ट्र पुलिस और सिंहगढ़ अकादमी की कार्रवाई को अनुचित और "एक छात्रा के जीवन को बर्बाद करने वाला" करार दिया। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संरक्षित है, और खादीजा जैसी छात्रा को "कट्टर अपराधी" की तरह व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस उम्र में गलतियाँ हो सकती हैं, और यदि कोई अपनी गलती के लिए माफी माँगता है और उसे सुधारता है, तो उसे अनावश्यक रूप से दंडित नहीं करना चाहिए।

शर्मिष्ठा पनोली और कलकत्ता हाईकोर्ट

कलकत्ता हाईकोर्ट ने शर्मिष्ठा पनोली के मामले में एक और नज़रिया पेश किया। शर्मिष्ठा पर आरोप था कि उन्होंने सोशल मीडिया पर समुदाय के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की थीं, जिसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई। कोर्ट ने इस मामले में कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है। कोर्ट ने राज्य सरकार को केस डायरी पेश करने का निर्देश दिया।
अदालत ने कहा, 
हमारे पास बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई दूसरों को चोट पहुंचाता रहे। यह विविधताओं वाला देश है, इसलिए इस तरह की दलीलें देने से पहले सावधानी बरतने की जरूरत है।
कोलकाता हाई कोर्ट

महमूदाबाद और सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के मामले में अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को और अधिक उदार नज़रिये से देखा। महमूदाबाद पर उनके एक लेख में कथित तौर पर आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशित करने का आरोप था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र का आधार है और इसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही सीमित किया जा सकता है। कोर्ट ने यह भी साफ़ किया कि किसी भी विचार को आपत्तिजनक मानने से पहले उसका संदर्भ और प्रभाव समझना ज़रूरी है।
इस फैसले ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को व्यापक संरक्षण प्रदान किया और यह संदेश दिया कि असहमति और आलोचना लोकतंत्र का हिस्सा हैं। हालाँकि, इससे पहले महमूदाबाद की याचिका पर पहली सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्यकांत की अगुवाई वाली पीठ ने टिप्पणी की थी कि 'प्रत्येक आदमी को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन इस समय इस तरह की सांप्रदायिक बात लिखने की क्या जरूरत थी? देश जब चुनौतियों से जूझ रहा हो, सिविलियन पर हमला हो रहा हो।' कोर्ट ने उनकी सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर कड़ी फटकार लगाई थी और कहा था कि ऐसी टिप्पणियाँ सस्ती लोकप्रियता के लिए नहीं होनी चाहिए। साथ ही, कोर्ट ने उन्हें अंतरिम जमानत दी और जांच के दायरे को सीमित करने का आदेश दिया था। अदालत की इस शुरुआती टिप्पणी पर काफ़ी प्रतिक्रियाएँ आई थीं।

इन चार मामलों से साफ़ होता है कि भारत की विभिन्न अदालतों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के मुद्दे पर अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए हैं।