प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी चुनाव के मौके पर अपने को सुभाष चंद्र बोस की विरासत से जोड़ने की फूहड़ कोशिश भी करते रहते हैं। लेकिन क्या वे इस बात से इनकार कर सकते हैं कि जिस समय सुभाष चंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंकने की रणनीति बुन रहे थे, ठीक उसी समय विनायक दामोदर सावरकर ब्रिटेन को युद्ध में हर तरह की मदद दिए जाने के पक्ष में थे।
1941 में बिहार के भागलपुर में हिन्दू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने ब्रिटिश शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का एलान किया था। उन्होंने कहा था, ''देश भर के हिंदू संगठनवादियों (हिन्दू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिन्दुओं को हथियारबंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओ तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौका भी।’’
इसके आगे सावरकर ने कहा था, ''सैन्यीकरण आंदोलन को तेज किया जाए और हर गांव-शहर में हिन्दू महासभा की शाखाएं हिन्दुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़ें।’’
इससे पहले 1940 के मदुरा अधिवेशन में सावरकर ने अधिवेशन में अपने भाषण में बताया था कि पिछले एक साल में हिन्दू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिन्दुओं को अंग्रेजो की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफल हुए हैं। जब आज़ाद हिन्द फ़ौज जापान की मदद से अंग्रेजी फ़ौज को हराते हुए पूर्वोत्तर में दाखिल हुई तो उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने अपनी उसी सैन्य टुकड़ी को आगे किया था, जिसके गठन में सावरकर ने अहम भूमिका निभाई थी।
लगभग उसी दौरान यानी 1941-42 में सुभाष बाबू के बंगाल में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर सरकार बनाई थी। हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस साझा सरकार में वित्त मंत्री थे। उस सरकार के प्रधानमंत्री मुस्लिम लीग के नेता ए के फजलुल हक थे। अहम बात यह है कि फजलुल हक ने ही भारत का बंटवार कर अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च 1940 को मुसलिम लीग के लाहौर सम्मेलन में पेश किया था।
हिन्दू महासभा ने सिर्फ भारत छोड़ो आन्दोलन से ही अपने आपको अलग नहीं रखा था, बल्कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक पत्र लिख कर अंग्रेजों से कहा था कि कांग्रेस की अगुआई में चलने वाले इस आन्दोलन को सख्ती से कुचला जाना चाहिए।
मुखर्जी ने 26जुलाई, 1942 को बंगाल के गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को लिखे पत्र में कहा था, ''कांग्रेस द्वारा बड़े पैमाने पर छेड़े गए आन्दोलन के फलस्वरूप प्रांत में जो स्थिति उत्पन्न हो सकती है, उसकी ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं।’’ मुखर्जी ने उस पत्र में भारत छोड़ो आन्दोलन को सख़्ती से कुचलने की बात कहते हुए इसके लिए कुछ जरुरी सुझाव भी दिए थे। उन्होंने लिखा था, ''सवाल यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन को कैसे रोका जाए। प्रशासन को इस तरह काम करना चाहिए कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आन्दोलन प्रांत मे अपनी जड़ें न जमा सके। इसलिए सभी मंत्री लोगों को यह बताएं कि कांग्रेस ने जिस आज़ादी के लिए आन्दोलन शुरू किया है, वह लोगों को पहले से ही हासिल है।’’
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दिसम्बर 1929 में कांग्रेस ने लाहौर में रावी के तट पर अपने अधिवेशन में पूर्ण स्वराज को राष्ट्रीय ध्येय घोषित करते हुए लोगों का आह्वान किया था कि 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराएँ और स्वतंत्रता दिवस मनाएँ। इसके जवाब में आरएसएस के संस्थापक मुखिया डा. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी करके तमाम शाखाओं को भगवा झंडा राष्ट्रीय झंडे के तौर पर पूजने के निर्देश दिए।
तिरंगे के चयन की निंदा
आजादी की पूर्वसंध्या पर जब दिल्ली के लाल किले से तिरंगा झण्डा लहराने की तैयारी चल रही थी, तब आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र आर्गनाइज़र के 14 अगस्त, 1947 के अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुल कर निंदा की। आर्गनाइज़र के संपादकीय में लिखा गया, ''जो लोग किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं, वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न तो इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमे तीन रंग हो, बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदायक होगा।’’
इस बार में खुद गोलवलकर ने अपने एक लेख 'पतन ही पतन’ में लिखा, ''उदाहरण स्वरुप हमारे नेताओं ने हमारे राष्ट्र के लिए एक नया ध्वज निर्धारित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह पतन की ओर बहने और नकलचीपन का स्पष्ट प्रमाण है।’’ अपने इसी लेख में गोलवलकर ने उस सोच की खिल्ली उड़ाई है, जिसके तहत तिरंगे को भारत की एकता का प्रतीक मान कर राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया। उन्होंने लिखा है, “कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल राजनीतिक, कामचलाऊ और तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा राष्ट्र एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमाग में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?” (मा.स. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)
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अभ्यास परेड के दिन कई विद्यासागर कॉलेज के छात्रों ने इसका विरोध किया और यूनियन जैक को सलामी नहीं दी। जिन छात्रों ने ऐसा किया था उन्हें पीटा गया, जिसके विरोध में विद्यासागर कॉलेज के सभी छात्रों ने हड़ताल कर दी थी। तब मुखर्जी ने विद्यासागर कॉलेज के एक दर्जन छात्रों के साथ प्रांतीय छात्र नेता धारित्री गंगाली और उमापाड़ा मजूमदार को कॉलेज और विश्वविद्यालय से निष्कासित करने का आदेश जारी किया था।
उपरोक्त तमाम तथ्य यह साबित करते हैं कि आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनका और उनके वैचारिक पुरखों का भारत के स्वाधीनता आंदोलन और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे से रत्तीभर भी जुड़ाव नहीं था। उस दौर में उनकी सारी गतिविधियां स्वाधीनता आंदोलन के खिलाफ चलती थीं यानी वे भारत को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद कराने के खिलाफ थे। इसलिए आज वे आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए घर-घर तिरंगा लहराने और तिरंगा यात्राएं निकालने जैसे प्रहसन रच रहे हैं तो यह साफ तौर पर उनके अपराधबोध का परिचायक है। उनका ऐसा करना अपने पुरखों के पापों पर परदा डालने का प्रयास ही कहा जा सकता है।
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