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फ़ाइल फ़ोटो

बिहार: पहली बार वाले वोटर 50% कम हुए, किसे नफ़ा-नुक़सान?

जिन पहली बार वोट देने वालों को किसी राजनीतिक दल की हार-जीत तय करने वाला माना जाता है उनकी संख्या इस बार बिहार में बेतहाशा कम हुई है। बिहार चुनाव में पहली बार मत डालने वाले लोगों की संख्या में पिछले चुनाव की तुलना में 50 फ़ीसदी से भी ज़्यादा की कमी आई है। पहली बार वोट डालने वाले सामान्य तौर पर 18 से 19 साल के बीच के होते हैं। वैसे, वोट डालने वाले 30 साल से कम उम्र वर्ग में भी मतदाताओं की संख्या में भी 12.4 फ़ीसदी की कमी आई है। यह कमी क्या दिखाता है? क्या राजनीतिक दलों पर इसका असर पड़ेगा?

इस सवाल का जवाब शायद राजनीतिक दलों के इस चुनाव अभियान को देखने पर भी मिल सकता है। आरजेडी ने बेरोज़गारी का मुद्दा छेड़ रखा है। आरजेडी नेता तेजस्वी यादवी की रैलियों में इतनी भीड़ उमड़ रही है कि उसके विरोधी दल भी सकते में आ गए। आरजेडी ने 10 लाख नौकरियों का वादा किया तो पहले तो बीजेपी ने आरजेडी का मज़ाक़ उड़ाया लेकिन बाद में युवाओं के गु़स्से का अहसास उसे भी हुआ। 

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इसीलिए, बीजेपी ने तो अपने चुनावी घोषणापत्र में तो आरजेडी से भी एक क़दम आगे निकलकर 19 लाख नौकरियों का वादा कर दिया। वह बीजेपी जो 10 लाख नौकरियों का वादा करने पर आरजेडी से यह सवाल पूछ रही थी कि वह इसके लिए पैसे की व्यवस्था कहाँ से करेगा, उसी बीजेपी ने अब उससे दोगुने नौकरियों का वादा क्यों किया, यह समझना मुश्किल नहीं है। युवाओं को लुभाने के लिए ही। 

वैसे, युवाओं को रिझाने में एलजेपी भी पीछे नहीं है। चिराग पासवान की यह पार्टी भी बेरोज़गारी को मुद्दा बनाए हुए है। पार्टी ने एक ऐसी वेब पोर्टल का वादा किया है जो नौकरी ढूंढने वाले युवाओं, नौकरी देने वालों और यूथ कमिशन के बीच एक पुल का काम करेगा। इसके अलावा, एलजेपी चिराग पासवान को तो युवा नेता के तौर पर पेश कर ही रही है वह अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के भी युवा होने के दावे कर रही है। एलजेपी का दावा है कि उसके 95 में से 30 उम्मीदवार 40 साल से कम उम्र के हैं। 

तीन कार्यकाल से सत्ता में रहे जेडीयू हालाँकि बेरोज़गारी के मुद्दे पर फँसी हुई है, लेकिन वह भी युवाओं को लुभाने में पीछे नहीं है। पार्टी ने महिला सशक्तिकरण और युवाओं की कार्यकुशलता को अपग्रेड करने पर जोर दिया है।

वैसे, यह पहली बार नहीं हो रहा है। हर चुनाव में हर राजनीतिक दल पहली बार वोट देने वालों को अपने पाले में करने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं।

यह साफ़ तौर पर दिखाता है कि युवा और इसमें भी ख़ासकर पहली बार के वोटर सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाता है। इसे राजनीतिक दल भी अच्छी तरह समझ रहे हैं।

लेकिन इस बीच युवा मतदाताओं का कम होना क्या दर्शाता है? 'इंडियन एक्सप्रेस' ने चुनाव आयोग के आँकड़ों का विश्लेषण कर बताया है कि इस बार चुनाव में 18-19 वर्ष आयु वर्ग में 11.17 लाख मतदाता दर्ज हैं जबकि इसी आयु वर्ग में 2015 में 24.13 लाख मतदाता थे। इसी तरह से 30 साल से कम उम्र के कुल मतदाता इस बार जहाँ 1.79 करोड़ हैं वहीं 2015 में 2.04 करोड़ थे। 

तो क्या ये आँकड़े किसी ख़ास ट्रेंड को दिखाते हैं? मसलन, क्या ये नीतीश सरकार के ख़िलाफ़ गु़स्से को दिखाते हैं? या फिर मुद्दों को उठाने में विपक्ष की नाकामी को? आख़िर किन वजहों से युवाओं के वोट इस बार कम हुए हैं?

हालाँकि चुनाव आयोग इन वर्गों में मतदाताओं की संख्या कम होने की वजह कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन को बताता है। 'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार सीईओ कार्यालय के एक सूत्र ने कहा, 'हर चुनाव से पहले चुनाव आयोग नए मतदाताओं को नामांकन करने के लिए एक अभियान शुरू करता है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में कैंपस एंबेसडर नियुक्त किए जाते हैं ताकि युवाओं को ख़ुद को पंजीकृत करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। लॉकडाउन के कारण उन तक पहुँचने का यह कार्यक्रम आक्रामक रूप से नहीं हो सका जैसा कि यह आमतौर पर होता है। और यह एक कारण हो सकता है जिसने युवा मतदाताओं के नामांकन को प्रभावित किया हो।'

ये जो 18-19 साल के नये मतदाता हैं उन्होंने अभी तक सिर्फ़ नीतीश सरकार का शासन देखा और समझा होगा, लालू और राबड़ी देवी के शासन को नहीं समझा होगा।
ऐसा इसलिए कि क़रीब 15 साल से नीतीश कुमार सत्ता में हैं यानी पहली बार वोटर बनने वाले युवा 15 साल पहले 3-4 साल के रहे होंगे। लेकिन अब राजनीति में एक तरफ़ लालू-राबड़ी देवी की जगह तेजस्वी हैं तो दूसरी तरफ़ नीतीश कुमार ही हैं। ऐसे में जब पिछले विधानसभा चुनाव में औसत रूप से हार-जीत का अंतर 18000 वोट रहे हों, इस बार भी हर मतदान क्षेत्र में औसत रूप से 74 हज़ार मतदाता असर तो डाल ही सकते हैं।
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क़मर वहीद नक़वी
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