महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे कहते थे, “जब मैं सिनेमा के लिए मूल कहानी लिखता हूँ, तब मैं उन लोगों के बारे में लिखता हूँ जिन्हें मैं पहले से जानता हूँ और उनकी परिस्थितियों से परिचित हूँ”। सत्यजीत रे हों, मृणाल सेन हों या फिर ईरानी फ़िल्मकार माजिद मजीदी। सिनेमा में कंटेंट और कहानी की ज़रूरतों पर सबने बात की। लेकिन भारतीय फ़िल्म जगत ने सेंसिटिव और कालजयी फ़िल्मकारों की इन ज़रूरी नसीहतों को ज़्यादातर लोगों ने या तो एक कान से सुनकर से दूसरे कान से निकाल दिया या फिर पूरी तरह से नज़रअंदाज किया। नतीजा निकला…अंट-शंट, अनाप-शनाप कहानियों और कंटेंट की बाढ़, जिसका न तो भारतीय परिप्रेक्ष्य से मतलब था न दर्शकों से किसी तरह का परिचय।
कहानी, कंटेंट और करिश्मे के नाम रहा 2018
- सिनेमा
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- 3 Jan, 2019
नया सिनेमा, कंटेंट और कहानी के ट्रैक पर दौड़ने के लिए तैयार है, क्योंकि वह जानता है कि कहानी और कंटेंट से नज़र हटने पर फ़िल्म का बॉक्स ऑफ़िस पर पिटना तय है।

कहानी और कंटेंट की हुई वापसी
भारी-भरकम प्रचार तंत्र के ज़रिए इन फ़िल्मों को दर्शकों के दिमाग में ठूँसने की कोशिशें की गईं, जिनका कुल हासिल दो-तीन घंटे के मनोरंजन (ज़्यादातर बार वह भी नहीं) के अलावा कुछ भी नहीं था। लेकिन इक्कीसवीं सदी के बालिग हो रहे साल 2018 ने घुटनों के बल घिसट रहे सिनेमा के मूल तत्व कहानी और कंटेंट को वापस मैदान में लाकर खड़ा कर दिया है। एंटरटेनमेंट की मसालेदार भारतीय परिभाषा गढ़ने वाले निर्माताओं, निर्देशकों और वितरकों ने भले ही अब तक दर्शकों को बिना कंटेंट और कहानी की बे सिर-पैर पिक्चर्स परोसकर चाँदी कूटी। लेकिन अब सिने उद्योग के ‘सौदागरों’ के लिए ख़तरे की घंटी बज चुकी है।