महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे कहते थे, “जब मैं सिनेमा के लिए मूल कहानी लिखता हूँ, तब मैं उन लोगों के बारे में लिखता हूँ जिन्हें मैं पहले से जानता हूँ और उनकी परिस्थितियों से परिचित हूँ”। सत्यजीत रे हों, मृणाल सेन हों या फिर ईरानी फ़िल्मकार माजिद मजीदी। सिनेमा में कंटेंट और कहानी की ज़रूरतों पर सबने बात की। लेकिन भारतीय फ़िल्म जगत ने सेंसिटिव और कालजयी फ़िल्मकारों की इन ज़रूरी नसीहतों को ज़्यादातर लोगों ने या तो एक कान से सुनकर से दूसरे कान से निकाल दिया या फिर पूरी तरह से नज़रअंदाज किया। नतीजा निकला…अंट-शंट, अनाप-शनाप कहानियों और कंटेंट की बाढ़, जिसका न तो भारतीय परिप्रेक्ष्य से मतलब था न दर्शकों से किसी तरह का परिचय।