'जब लोकतंत्र का एक अंग कर्तव्य निभाने में विफल हो तो क्या हम संविधान के रखवाले चुप बैठें?' मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई का यह धमाकेदार सवाल पूरे संवैधानिक ताने-बाने को हिला गया। प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस पर 10 दिनों की तीखी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फ़ैसला तो सुरक्षित रख लिया, लेकिन सीजेआई की तीखी टिप्पणी केंद्र सरकार को बड़ा संदेश दे गई!

कल्पना कीजिए, राज्य विधानसभाओं के विधेयक वर्षों तक गवर्नरों के डेस्क पर धूल खाते रहें और लोकतंत्र का 'संरक्षक' सुप्रीम कोर्ट हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे! ऐसा तो हो नहीं सकता न? तो सुप्रीम कोर्ट भी चुप नहीं रहा। सीजेआई ने साफ़-साफ़ कह दिया, 'मैं सार्वजनिक रूप से कहता हूं कि मैं शक्तियों के अलगाव के सिद्धांत में पूरा विश्वास रखता हूँ। हालाँकि न्यायिक सक्रियता होनी चाहिए, लेकिन इसे न्यायिक दुस्साहस में नहीं बदलना चाहिए। लेकिन साथ ही यदि लोकतंत्र का एक पक्ष अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहता है तो क्या संविधान का संरक्षक न्यायालय शक्तिहीन होकर चुप बैठा रहेगा?'
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मामला था तमिलनाडु के गवर्नर द्वारा विधेयकों को रोके जाने से जुड़े प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का। इस पर गुरुवार को सुनवाई का आख़िरी दिन था। प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस में सुप्रीम कोर्ट के 13 अप्रैल 2025 के उस फैसले पर स्पष्टीकरण मांगा गया है, जिसमें राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर गवर्नरों के लिए समय-सीमा निर्धारित करने की बात कही गई थी। 

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला क्या था?

प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस का आधार सुप्रीम कोर्ट का 13 अप्रैल 2025 का फैसला है। इसमें तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने गवर्नर आर.एन. रवि के विधेयकों पर देरी करने को अवैध और मनमाना करार दिया था। इस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि गवर्नरों को विधानसभाओं द्वारा दोबारा भेजे गए विधेयकों पर सही समय के भीतर हस्ताक्षर करना होगा। इस फैसले ने पहली बार गवर्नरों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने की समय-सीमा को न्यायिक रूप से लागू करने की बात कही थी। ऐसा नहीं होने पर बिल को अपने आप मंजूरी मिल जाने की भी बात कही गई थी।

प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर स्पष्टीकरण मांगा गया। इसमें मुख्य रूप से यह पूछा गया कि क्या कोर्ट संवैधानिक प्राधिकारियों राष्ट्रपति और गवर्नर को विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए समय-सीमा तय करने का निर्देश दे सकता है।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां

सुनवाई के अंतिम दिन मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने कहा, '...अगर लोकतंत्र का एक अंग अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल हो, तो क्या संविधान का संरक्षक होने के नाते सुप्रीम कोर्ट शक्तिहीन होकर चुप बैठेगा?'

जस्टिस सूर्यकांत ने साफ़ किया कि कोर्ट इस मामले में केवल सलाहकारी भूमिका निभा रहा है। उन्होंने कहा, 'हम अनुच्छेद 143 के तहत सलाहकारी क्षेत्राधिकार में हैं, न कि अपीलीय। हम केवल कानून की व्याख्या करेंगे।' जस्टिस विक्रम नाथ और पी.एस. नरसिम्हा ने भी टिप्पणी की कि गवर्नर विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक नहीं बैठ सकते। जस्टिस नरसिम्हा ने कहा, 'कोई भी अंग संविधान के कामकाज को बाधित नहीं कर सकता।'
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केंद्र सरकार का रुख

केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि गवर्नरों को विधेयकों पर सहमति देने की शक्ति देने वाला अनुच्छेद 200 न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर है। उन्होंने कहा कि गवर्नरों और राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक प्राधिकारियों की विवेकाधीन शक्तियां संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और इन पर समय-सीमा लागू करना संविधान को फिर से लिखने के समान होगा। मेहता ने सत्ता के पृथक्करण के सिद्धांत का हवाला देते हुए कहा कि कार्यकारी और विधायी अंग भी संविधान के संरक्षक हैं।

मेहता ने यह भी तर्क दिया कि समय-सीमा केवल वैधानिक प्राधिकारियों पर लागू हो सकती है, न कि राष्ट्रपति या गवर्नर जैसे संवैधानिक प्राधिकारियों पर। 
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राज्य के तर्क

तमिलनाडु की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता ए.एम. सिंहवी और पी. विल्सन ने तर्क दिया कि गवर्नर 'गणतंत्र में राजा की तरह व्यवहार नहीं कर सकते।' उन्होंने कहा कि गवर्नरों का विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक रुकना विधानसभाओं की संप्रभुता को कमजोर करता है।

कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि संविधान गवर्नरों से तत्काल कार्रवाई की अपेक्षा करता है। उन्होंने कहा, 'जब संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि गवर्नर को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए तो वे विधेयकों को क्यों रोक रहे हैं? यह एक संप्रभु कार्य है, जिसे रोका नहीं जा सकता।' सिब्बल ने यह भी कहा कि केंद्र का यह तर्क कि गवर्नरों को विधेयकों पर रोकने की असीमित शक्ति है, 'हास्यास्पद' परिणाम देगा।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस पर सुनवाई के दौरान कोर्ट का यह सवाल कि क्या वह गवर्नरों की निष्क्रियता पर चुप बैठ सकता है, लोकतंत्र में न्यायिक हस्तक्षेप और सत्ता के पृथक्करण के बीच संतुलन की ज़रूरत को दिखाता है। कोर्ट का आख़िरी फ़ैसला न केवल गवर्नरों और राष्ट्रपति की भूमिका को साफ़ करेगा, बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों के भविष्य को भी तय कर सकता है।