तमिलनाडु में सरकार और राज्यपाल के बीच लंबे समय से जारी टकराव पर सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फ़ैसले से एक बड़े विवाद का अंत हो जाना चाहिए था। लेकिन इसने राज्यपालों की भूमिका, राष्ट्रपति के अधिकार, और केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर एक नयी बहस छेड़ दी है। तमिलनाडु सरकार के पास किये गए विधेयकों को तीन-तीन साल तक दबा कर बैठने वाले राज्यपाल आर.एन. रवि पर अदालत की कड़ी टिप्पणी की गूँज पूरे देश है। यह केंद्र राज्य संबंधों को नये सिरे से पारिभाषित करेगी।

दरअसल, यह विवाद कुछ बिलों को लेकर नहीं, संविधान की आत्मा और संघीय ढांचे की सुरक्षा को लेकर है। जब राज्यपाल, जो कि केंद्र सरकार के प्रतिनिधि माने जाते हैं, एक निर्वाचित राज्य सरकार की इच्छा को ठुकराने की हद तक पहुंच जाएं, तब सवाल उठता है – क्या राज्यपाल संविधान के अनुच्छेदों को अपने फायदे के लिए लचीला बना सकते हैं? या फिर सुप्रीम कोर्ट को अपनी ‘पूर्ण न्याय’ की शक्ति का प्रयोग करना ही होगा?

तमिलनाडु की डीएमके सरकार ने 2020 से 2023 के बीच जिन 12 विधेयकों को पास किया, वे राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति से जुड़े थे—यानी एक निहायत ही राज्य का मामला। लेकिन राज्यपाल ने न सिर्फ़ उन्हें दबा कर रखा, बल्कि वर्षों तक किसी फ़ैसले की ज़रूरत ही नहीं समझी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे "अवैध और मनमाना" बताते हुए संविधान के अनुच्छेद 142 का प्रयोग किया और 10 बिलों को सीधे मंज़ूरी दे दी। साथ ही बिलों पर फ़ैसले के लिए समय-सीमा तय कर दी—राज्यपाल को एक महीने और राष्ट्रपति को तीन महीने में निर्णय देना होगा।

इस फ़ैसले के बाद राज्यपाल से लेकर केंद्र सरकार से विनम्रता की उम्मीद की जाती थी। लेकिन जिस तरह से प्रतिक्रियाएँ आईं वे हैरान करने वाली थीं। यहाँ तक कि संवैधानिक पद पर बैठे उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी जैसा हमला किया, उसकी उम्मीद नहीं की जा सकती थी। सुप्रीम कोर्ट पर तीखा हमला करते हुए कहा कि अनुच्छेद 142 अब "लोकतांत्रिक शक्तियों के ख़िलाफ़ परमाणु मिसाइल" बन चुका है। सवाल यह है—क्या सुप्रीम कोर्ट को दोषी ठहराया जाए या उस राज्यपाल को जिसने वर्षों तक संविधान का मज़ाक बनाया?

संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 राज्यपाल और राष्ट्रपति को बिलों पर निर्णय लेने का अधिकार तो देते हैं, लेकिन समय-सीमा तय नहीं करते। क्या इसका मतलब यह है कि वे अनंतकाल तक किसी फ़ैसले को टाल सकते हैं? क्या चुनी हुई सरकारों को ऐसी नौकरशाही मानसिकता की बंधक बना दिया जाना चाहिए?

बात साफ है—सुप्रीम कोर्ट ने जब अनुच्छेद 142 का प्रयोग किया तो यह उस संवैधानिक शून्यता को भरने की कोशिश थी जिसे राज्यपालों की निष्क्रियता ने जन्म दिया था। अगर सरकारें अपना काम समय पर करतीं, तो कोर्ट को यह हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता।

मोदी सरकार की परेशानी समझी जा सकती है। यह वही सुप्रीम कोर्ट है जिसने NJAC को असंवैधानिक ठहराया, चुनावी बॉन्ड्स को खारिज किया, और बार-बार सरकार की नीतियों की न्यायिक समीक्षा की। ज़ाहिर है, जब-जब कोर्ट लोकतंत्र की रक्षा में आगे आता है, तब-तब सत्ताधारी दल को असहजता होती है। पर क्या लोकतंत्र में असहजता का मतलब अदालत को "हद में रहने" की धमकी देना है?

यह लड़ाई तमिलनाडु की नहीं है। यह लड़ाई है भारत के संघीय ढाँचे की, राज्य सरकारों की स्वायत्तता की, और उस भरोसे की जो संविधान ने जनता को दिया है। अगर राज्यपाल, केंद्र सरकार के एजेंट की तरह व्यवहार करेंगे, तो यह भरोसा टूटेगा। और जब राज्यपाल लोकतंत्र के पहरेदार की भूमिका छोड़ दें, तो सुप्रीम कोर्ट को तलवार उठानी ही पड़ेगी।

प्रधानमंत्री मोदी को समझना होगा कि तमिलनाडु भारत का हिस्सा है। वहां की सरकार, वहाँ की जनता, वहाँ की इच्छाएँ भी उसी संविधान के दायरे में आती हैं, जिसे दिल्ली की सरकार बार-बार अपने अनुकूल व्याख्यायित करना चाहती है। अगर आज तमिलनाडु चुप नहीं है, तो कल केरल, पंजाब और बंगाल भी चुप नहीं रहेंगे।

हमें संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर के उस वाक्य को फिर से याद करना चाहिए—“संविधान चाहे जितना अच्छा क्यों न हो, अगर उसे लागू करने वाले लोग बुरे हों, तो वह बुरा साबित होगा।”

आज सुप्रीम कोर्ट ने अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभायी है। अब सवाल केंद्र सरकार से है—क्या वह संविधान की आत्मा का सम्मान करेगी या केवल सत्ता के विस्तार की भूख में इसे रौंदती रहेगी? समस्या संविधान में नहीं, उसे बरतने वालों में है। सुप्रीम कोर्ट की हद पर सवाल उठाने से पहले सरकार हद तोड़ने की अपनी हरकतों से बाज़ आये।