भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अपनी 75 साल की स्थापना के बाद पहली बार अपने स्टाफ की भर्ती में अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के लिए आरक्षण नीति लागू की है। यह निर्णय अनुसूचित जाति यानी एससी और अनुसूचित जनजाति यानी एसटी के लिए हाल ही में शुरू की गई आरक्षण नीति के बाद लिया गया है। इस कदम को सामाजिक समावेश और समानता की दिशा में एक ऐतिहासिक सुधार के रूप में देखा जा रहा है।
यह नीति 3 जुलाई 2025 को जारी एक राजपत्र अधिसूचना के माध्यम से लागू की गई, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट के अधिकारियों और कर्मचारियों (सेवा और आचरण की शर्तें) नियम, 1961 में संशोधन किया गया। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई के नेतृत्व में यह नीति लागू की गई है। सीजेआई गवई खुद अनुसूचित जाति समुदाय से हैं और देश के दूसरे दलित सीजेआई हैं।
संशोधित नियम 4ए के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न पदों पर सीधी भर्ती में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों, भूतपूर्व सैनिकों और स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों के लिए आरक्षण भारत सरकार द्वारा समय-समय पर जारी नियमों, आदेशों और अधिसूचनाओं के अनुसार होगा। यह आरक्षण उन पदों पर लागू होगा जिनका वेतनमान केंद्र सरकार के समकक्ष होगा, बशर्ते मुख्य न्यायाधीश द्वारा कोई संशोधन, बदलाव या अपवाद तय न किया जाए।
इस नीति के तहत ओबीसी को 27% आरक्षण दिया जाएगा, जो केंद्र सरकार की भर्ती नीतियों के अनुरूप है। इसके अलावा अनुसूचित जाति के लिए 15% और अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5% आरक्षण पहले से ही लागू किया जा चुका है। यह नीति रजिस्ट्रार, वरिष्ठ निजी सहायक, सहायक लाइब्रेरियन, जूनियर कोर्ट असिस्टेंट और चैंबर अटेंडेंट जैसे विभिन्न पदों पर लागू होगी।
नयी नीति क्यों लागू की जा रही?
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपनी भर्ती और पदोन्नति में एससी और एसटी के लिए आरक्षण नीति लागू की थी, जो 23 जून 2025 से प्रभावी हुई। इस नीति को लागू करने के लिए एक मॉडल आरक्षण रोस्टर और रजिस्टर तैयार किया गया था, जिसे कोर्ट के आंतरिक नेटवर्क पर अपलोड किया गया। इस रोस्टर के आधार पर, कर्मचारियों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया: एससी, एसटी और अनारक्षित।
यह कदम 1995 के आर.के. सभरवाल बनाम पंजाब सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ के फ़ैसले के अनुरूप है, जिसमें कहा गया था कि सरकारी नियुक्तियों में आरक्षण पोस्ट-आधारित होना चाहिए, न कि रिक्तियों पर आधारित। इसके अलावा, सीधी भर्ती और पदोन्नति के लिए अलग-अलग रोस्टर होने चाहिए और किसी विशेष श्रेणी के लिए चिह्नित पद उस श्रेणी के पास तब तक रहना चाहिए जब तक कि वह खाली न हो जाए।
ओबीसी आरक्षण का यह क़दम इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) के नौ जजों की पीठ के फ़ैसले के 33 साल बाद आया है, जिसमें केंद्र सरकार की सेवाओं में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण को मान्यता दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने अब तक अपने स्टाफ़ भर्ती में ओबीसी के लिए कोई प्रावधान नहीं किया था और यह पहली बार है कि इस तरह की नीति लागू की गई है।
मुख्य न्यायाधीश गवई का नज़रिया
सीजेआई बी.आर. गवई ने इस सुधार के पीछे की मंशा को साफ़ करते हुए कहा, 'यदि सभी सरकारी संस्थान और कई उच्च न्यायालय पहले से ही एससी और एसटी के लिए आरक्षण लागू कर रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट को अपवाद क्यों होना चाहिए? हमारी कार्रवाइयों को हमारे सिद्धांतों को दिखाना चाहिए।' उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स से बातचीत में कहा कि समानता और प्रतिनिधित्व एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि भारत के संवैधानिक नज़रिए को आगे बढ़ाने वाली पूरक ताक़तें हैं। उन्होंने कहा है कि एफर्मेटिव एक्सशन समानता का अपवाद नहीं है, बल्कि उसका अभिन्न अंग है।
सामाजिक न्याय के लिए अहम क़दम
इस निर्णय को सामाजिक न्याय के क्षेत्र में एक अहम क़दम माना जा रहा है। राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन ने एक्स पर एक पोस्ट में इस संशोधन को अफर्मेटिव एक्शन मानकों के साथ तालमेल सुनिश्चित करने वाला ऐतिहासिक सुधार बताया।
हालाँकि, कुछ लोगों ने इस क़दम पर मिलीजुली प्रतिक्रियाएँ दी हैं। एक्स पर एक यूज़र ने टिप्पणी की, 'जब दुनिया 'उन्नत' हो रही है, भारत 'पिछड़ा' हो रहा है।"
यह नीति सुप्रीम कोर्ट के गैर-न्यायिक स्टाफ के लिए लागू की गई है और इसमें जजों के लिए कोई आरक्षण शामिल नहीं है। जानकारों का मानना है कि इस नीति को लागू करने में कुछ चुनौतियां हो सकती हैं, जैसे रोस्टर में ग़लतियों को ठीक करना और कर्मचारियों के बीच जागरूकता बढ़ाना। सुप्रीम कोर्ट ने कर्मचारियों को रोस्टर या रजिस्टर में किसी भी गलती या अशुद्धि के लिए रजिस्ट्रार (भर्ती) को सूचित करने की सुविधा दी है।
इसके अलावा, यह नीति उन राज्यों और केंद्र सरकार की नीतियों के अनुरूप है जो पहले से ही ओबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण देते हैं। हालांकि, 2006 के एम. नागराज बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण के लिए कड़ी शर्तें तय की थीं।