एक आवाज़, जो माइक्रोफोन से निकलकर अपने भारी एहसास में खरज भरती सी लगती थी। कहीं पहुँचने की बेचैनी से अलग, बाकायदा अपनी अलग सी राह बनाती हुई, जिसे खला में गुम होते हुए भी ऑर्केस्ट्रेशन के ढेरों सुरों के बीच दरार छोड़ देनी थी। ये भूपी थे… सत्तर-अस्सी के दशक में ऐसे कई गीतों के सिरजनहार, जिन्होंने जब भी गाया, सुनने वाले को महसूस हुआ -जैसे कुछ गले में अटका रह गया है। एक कभी ना कही गई दुःख की इबारत, जिसके सहारे जज़्बात की शाख पर गीतकारों ने कुछ फूल खिला दिए थे।