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हिटलर का नया रूप है चीन, भारत रहे सावधान

मैं भारत सरकार और अन्य लोगों से अपील करता हूँ कि मैंने जो भी कहा है उस पर गंभीरता से विचार करें और चीनी साम्राज्यवाद का विरोध करना शुरू करें। इस ख़तरे को नज़रअंदाज़ करना एक शुतुरमुर्ग के बर्ताव के जैसा होगा, जैसे कि नेविल चेम्बरलेन जो सोचते रहे कि हिटलर से कोई ख़तरा नहीं है पर जब उन्हें यह एहसास हुआ तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू

चीन की सेना ने हाल ही में भारतीय क्षेत्र लद्दाख के गालवान में 3-4 किलोमीटर तक प्रवेश किया है। भारत में कई लोग ऐसा सोचते हैं कि यह घटना दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर किसी छोटी ग़लतफहमी के कारण हुई, लेकिन ऐसा नहीं है। यह घटना चीनी लोगों के एक बहुत बड़े साम्राज्यवादी डिज़ाइन (imperialist design) का हिस्सा है, जिसे मैं इस लेख द्वारा समझाना चाहता हूँ।

1930 और 1940 के दशक में नाज़ी जर्मन-साम्राज्यवाद दुनिया के लिए वास्तविक ख़तरा था, न कि ब्रिटिश या फ्रांसीसी साम्राज्यवाद। ऐसा इसलिए था क्योंकि जर्मन साम्राज्यवाद बढ़ रहा था और विस्तार कर रहा था, और इसलिए यह आक्रामक साम्राज्यवाद था, जबकि ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवाद केवल रक्षात्मक थे। जहाँ ब्रिटिश और फ्रांसीसी केवल अपने उपनिवेशों (colonies) पर क़ब्ज़ा बनाये रखना चाहते थे, वहाँ नाज़ियों ने भूखा भेड़िया की तरह अन्य देशों को जीतना और ग़ुलाम बनाना चाहा। इसलिए नाज़ी दुनिया के लिए वास्तविक ख़तरा थे। इसी तरह, आज दुनिया के लिए ख़तरा अमेरिका नहीं बल्कि चीन है, क्योंकि चीन दुनिया में आक्रामक (aggressive) विस्तार की राह पर चल रहा है। चीन अपने विशाल उद्योग के साथ अपने सामानों के लिए बाज़ार में माँग बढ़ा रहा है, और अपने विशाल 3.2 ट्रिलियन डॉलर विदेशी मुद्रा रिज़र्व (foreign exchange reserve) के साथ लाभदायक निवेश (profitable investment) के नए रास्तों की तलाश कर रहा है। चीनी आज आक्रामक साम्राज्यवादी हैं और दुनिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं। यह सच है कि नाज़ी जर्मनी की तरह चीन वर्तमान में सैन्य रूप से विस्तार नहीं कर रहा है, लेकिन भूखा भेड़िया की तरह वह दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था को भेद कर, उसे घटाकर आक्रामक रूप से आर्थिक विस्तार कर रहा है।

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पिछले दशक में चीनी विदेशी निवेश आसमान छू गया है। आज चीनी लगभग हर जगह हैं, एशिया, अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका और निश्चित रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप भी इसमें शामिल हैं। उनका बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (Belt and Road Initiative) सड़कों, रेलवे, तेल पाइपलाइनों, बिजली ग्रिड, बंदरगाहों और अन्य मूलढाँचा परियोजनाओं (infrastructure projects) का एक नेटवर्क है जो चीन को दुनिया से जोड़ता है। इसका उद्देश्य चीन और बाक़ी यूरेशिया के बीच इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स और कनेक्टिविटी में सुधार करना है ताकि वह इन देशों पर हावी हो सके। चीन का ध्यान अक्सर बंदरगाहों जैसे महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर पर रहा है जैसे पाकिस्तान में ग्वादर, ग्रीस में पीरायस और श्रीलंका में हंबनटोटा, जिसका उद्देश्य इन देशों में एक रणनीतिक आधार तैयार करना है।

जिस क़ीमत पर अमेरिकी या यूरोपीय निर्माता सामान बेच सकते हैं (अपनी उच्च श्रम लागत को देखते हुए), उससे आधी क़ीमत पर सामान बेचकर, चीनियों ने कई अमेरिकी और यूरोपीय उद्योगों को नष्ट कर दिया है। अब चीनी अविकसित देशों में बाज़ारों और कच्चे माल (raw materials) बहुत कम दामों पर माल डंप करके क़ब्ज़ा कर रहे हैं ताकि स्थानीय उत्पाद को अप्रतिस्पर्धी (uncompetitive) बनाया जा सके। उदाहरण के लिए पाकिस्तान सस्ते चीनी सामानों से भरा पड़ा है।

विदेशी बाज़ारों पर क़ब्ज़ा करते समय, चीनी उच्च टैरिफ़ लगाकर सावधानीपूर्वक अपनी रक्षा करते हैं। इस बात का श्रेय राष्ट्रपति ट्रम्प को देना चाहिए कि उन्होंने चीनियों के इस झाँसे को सबके सामने रखा, और चीन को स्पष्ट रूप से कहा कि यह नहीं चलेगा।

चीन में ऑटोमोबाइल के आयात पर 25% टैरिफ़ नहीं हो सकता है जब यूएसए में कारों के आयात के लिए केवल 2.5% टैरिफ़ लागू होता है। ट्रम्प ने कई चीनी सामानों पर टैरिफ़ लगाया है और भविष्य में और अधिक की घोषणा की है। इसके लिए, चीन ने प्रतिशोधी टैरिफ़ की घोषणा की, लेकिन इससे अमेरिकियों को थोड़ा नुक़सान होगा।

यह सर्वविदित है कि चीनियों में कोई व्यावसायिक नैतिकता नहीं है, और यही कारण है कि कई अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियाँ चीन मुख्य-भूमि से चीनियों को काम पर लेने के लिए हिचकते हैं क्योंकि वे अक्सर औद्योगिक रहस्यों की जासूसी करते हैं।

अब मैं भारत के साथ चीन के आर्थिक संबंधों का उल्लेख करना चाहूँगा।

जैसा कि सब जानते हैं, भारत 1947 तक एक ब्रिटिश उपनिवेश था, और ब्रिटिश नीति भारत को औद्योगीकरण से दूर रखने की थी। हालाँकि, आज़ादी के बाद भारत में कुछ हद तक औद्योगिकीकरण हुआ और हमने उन चीज़ों का उत्पादन शुरू किया, जिन्हें हमें पहले इम्पोर्ट करना पड़ता था।

विचार से ख़ास

अब कुछ हद तक चीनियों ने हमारे घरेलू बाज़ार में प्रवेश कर, अपनी जगह बना ली है। द इकोनॉमिक टाइम्स में 12.12.2017 को प्रकाशित  'How Chinese companies are beating India in its own backyard' शीर्षक से एक लेख कुछ दिलचस्प विवरण देता है।

भारत-चीन व्यापार चीन के पक्ष में ज़्यादा भारी है। चीन को भारतीय निर्यात (exports) 16 अरब डॉलर का है, मुख्य रूप से कच्चे माल का। लेकिन चीन से भारत का आयात 68 बिलियन डॉलर का है, जिसमें मुख्य रूप से मूल्य वर्धित सामान (value-added goods) जैसे मोबाइल फ़ोन, प्लास्टिक, इलेक्ट्रिकल सामान, मशीनरी और इन चीज़ों को बनाने में लगने वाले पुर्ज़े हैं। यह एक उपनिवेश और साम्राज्यवादी देश के बीच का विशिष्ट संबंध है।

चीनी कंपनियाँ आक्रामक मूल्य निर्धारण (aggressive pricing), स्टेट सब्सिडी, संरक्षणवादी नीतियों (protectionist policies) और सस्ते वित्तपोषण (cheap financing) का उपयोग करती हैं। 

कुछ क्षेत्रों में चीनी कंपनियों का भारतीय बाज़ार पर वर्चस्व है। दूरसंचार क्षेत्र में, 51% चीनी कंपनियों ने क़ब्ज़ा कर लिया है। भारतीय घरों में चीनी सामानों की भरमार है। फिटिंग, लैंपशेड, ट्यूबलाइट आदि।

अंत में, मैं भारत सरकार और अन्य लोगों से अपील करता हूँ कि मैंने जो भी कहा है उस पर गंभीरता से विचार करें और चीनी साम्राज्यवाद का विरोध करना शुरू करें। इस ख़तरे को नज़रअंदाज़ करना एक शुतुरमुर्ग के बर्ताव के जैसा होगा, जैसे कि नेविल चेम्बरलेन (Neville Chamberlain) जो सोचते रहे कि हिटलर से कोई ख़तरा नहीं है पर जब उन्हें यह एहसास हुआ तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। सीमा पर आक्रामक चीनी चालों का विरोध करने के अलावा, भारतीय सरकार को सभी चीनी कंपनियों को भारत से निष्कासित कर देना चाहिए और भारतीय बाज़ार में चीनी वस्तुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।

भारतीय सरकार को चीनियों का कोई तुष्टिकरण नहीं करना चाहिए जिस प्रकार नेविल चैंबरलेन ने हिटलर के लिए किया था बल्कि चर्चिल की तरह साहसपूर्वक उनका सामना करना चाहिए। तुष्टिकरण केवल हमलावर की भूख को बढ़ाता है।

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