चालीस से ज़्यादा दिनों से देश के एक कोने में चल रहे आंदोलन, हाड़ कंपाती ठंड के बीच भी किसानों, महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी, अश्रु गैस के गोले और पानी की बौछारें, हरेक दिन हो रही एक-दो मौतें और इतने सब के बावजूद सरकार की अपने ही नागरिकों की बात नहीं मानने की हठधर्मिता और अहंकारी आत्मविश्वास के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
किसान आंदोलन: ख़त्म हो रहा सरकार का डर!
- विचार
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- 14 Jan, 2021

किसानों ने जिस लड़ाई की शुरुआत कर दी है वह इसलिए लंबी चल सकती है क्योंकि उसने व्यवस्था के प्रति आम आदमी के उस डर को ख़त्म कर दिया है जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान दिलों में घर कर गया था। जनता का डर अब सरकार का डर बनता जा रहा है। लड़ाई किसानों की माँगों के दायरे से बाहर निकल कर व्यापक नागरिक अधिकारों के प्रति सरकार के अहंकारी रवैये के साथ जुड़ती जा रही है।
पहला कारण तो सरकार का यह मानना हो सकता है कि गलती हमेशा नागरिक करता है, हुकूमतें नहीं। दूसरा यह कि जनता सब कुछ स्वीकार करने के लिए बाध्य है। वह कोई विरोध नहीं करती, ऐसी ही उसे उसके पूर्व-अनुभवों की सीख भी है।
नोटबंदी का दर्द
आपातकाल की तरह ही नोटबंदी राष्ट्र के नाम एक संदेश के साथ आठ नवम्बर 2016 को लागू कर दी गई थी। तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बाद में दावा किया कि सिर्फ़ तीन बैंक कर्मियों और एक ग्राहक समेत कुल चार लोगों की इस दौरान मौत हुई। विपक्ष ने नब्बे से ज़्यादा लोगों की गिनती बताई। करोड़ों लोगों ने तरह-तरह के कष्ट और अपमान चुपचाप सह लिए। सरकार की आत्मा पर कोई असर नहीं हुआ। उसका सीना और चौड़ा हो गया।