हम डर रहे हैं यह स्वीकार करने से कि हमें गांधी की अब ज़रूरत नहीं बची है। ऐसा इसलिए नहीं कि गांधी अब प्रासंगिक नहीं रहे हैं, वे अप्रासंगिक कभी होंगे भी नहीं। हम गांधी की ज़रूरत को आज के संदर्भों में अपने साहस के साथ जोड़ नहीं पा रहे हैं। राजनीतिक परिस्थितियों के साथ समझौते करते हुए हम उनके होने की नैतिक ज़रूरत को ख़त्म होता हुआ चुपचाप देख रहे हैं। उसे अपनी मौन और अनैतिक स्वीकृति भी प्रदान कर रहे हैं।
हम क्यों ढोंग करते हैं कि गाँधी आज भी प्रासंगिक हैं, क्यों नहीं मानते उनकी ज़रूरत नहीं है?
- विचार
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- 3 Oct, 2020

किसी आधुनिक क़िस्म के मेहमान के घर में प्रवेश की सूचना मात्र से ही जिस तरह हम ‘पिता’ को पीछे के कमरों में धकेल देते हैं, राज्य की या समाज की हिंसा की आहट मात्र से ही हम ‘राष्ट्रपिता’ को भी उनके आश्रमों और किताबों में क़ैद कर देते हैं। ऐसा आए दिन हो भी रहा है।