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यूपी, बिहार में प्रवासियों के लौटने से नई समस्या, क्या सरकार के पास योजना है?

भारत में मज़दूरों का माइग्रेशन (प्रवास) कोई नयी प्रक्रिया नहीं है। देश में लाखों की संख्या में कामगार गाँवों और छोटे कस्बों से छोटे-बड़े शहरों की ओर माइग्रेशन/प्रवास करते रहे हैं। ये कामगार रोज़गार और उसकी तलाश में बड़ी संख्या में एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते और आते रहते हैं। आँकड़ों पर ग़ौर करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में कुल 43.4 करोड़ लोगों ने विभिन्न गतिविधियों (जैसे रोज़गार/काम, व्यवसाय, शिक्षा, शादी, इत्यादि) के लिए माइग्रेशन किया था। इन सभी तरह के माइग्रेशन में भारत में 10.7 करोड़ लोग ऐसे थे जो रोज़गार/काम करने के सिलसिले में एक स्थान से दूसरे स्थान पर गये थे।

इसी कड़ी में देखें तो रोज़गार के लिए प्रवास करने वाले लोगों की कुल संख्या का सर्वाधिक उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य से आते हैं। इसके बाद मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर और पश्चिम बंगाल आदि राज्य से आते हैं। देश में कुल रोज़गार/काम करने के लिए हुए प्रवास में अकेले उत्तर प्रदेश से लगभग 23 प्रतिशत (1.23 करोड़) तथा बिहार से 14 प्रतिशत (74 लाख) व्यक्तियों ने प्रवास किया था। इस प्रकार देश की कुल प्रवासियों की संख्या का 37 प्रतिशत हिस्सा उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य से सम्बन्ध रखते हैं। ये आँकड़े लगभग 10 साल पुराने हैं और इन बीते वर्षों में इन राज्यों से प्रवासियों की संख्या में और भी वृद्धि हुई होगी।

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प्रवास के कारण

दोनों प्रदेशों से कामगारों का दूसरे राज्यों में जा कर काम करने वालों की अधिक संख्या होने के अनेक कारण हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में लगभग आधी कामगार आबादी आजीविका के लिए खेती और उससे जुड़े कामों पर निर्भर है, इसी तरह निर्माण, खनन, व्यापार से जुड़े कामों में दोनों प्रदेशों की एक चौथाई कामगार आबादी आजीविका के लिए निर्भर है। इन क्षेत्रों में काम करने वाले कामगारों (ख़ासकर ग्रामीण क्षेत्रों में) को विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में कम मज़दूरी मिलती है जिससे इन कामगारों को अपना गाँव-घर छोड़ दूसरे राज्यों या अपने ही राज्य के शहरी क्षेत्रों में जा कर काम करने के लिए बाध्य होना पड़ता है जिसे आम तौर पर माइग्रेशन के पुल फ़ैक्टर के तौर पर जाना जाता है। विनिर्माण क्षेत्र, जहाँ लोगों की आय की सम्भावना अधिक होती है, में दोनों प्रदेशों के सिर्फ़ 12 से 15 प्रतिशत कामगार आबादी को ही अपने राज्य में काम मिलता है। दोनों प्रदेशों से अत्यधिक माइग्रेशन इसलिए भी है कि पिछले कुछ वर्षों में महँगाई के अधिक बढ़ने से जीवनयापन महँगा हो गया है। और बेहतर आय की तलाश में ये दूसरे राज्य जाते हैं जहाँ ज़्यादा आय की उम्मीद होती है।

ग्रामीण आर्थिक असमानता, ख़ासकर भूमि असमानता, भी इन दो प्रदेशों में प्रवास का एक बड़ा कारण है। हाल ही में ‘मैन एंड डवलपमेंट’ (सितम्बर 2019) में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार ग्रामीण भारत में कुल 41 प्रतिशत हाउसहोल्ड भूमिहीन हैं।
भूमिहीन गृहस्थों का यह आँकड़ा उत्तर प्रदेश में लगभग 30 प्रतिशत और बिहार में उससे भी कहीं अधिक लगभग 57 प्रतिशत है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में लगभग 66 प्रतिशत और बिहार में 35 प्रतिशत हाउसहोल्ड सीमांत और लघु किसानों की श्रेणी में आते हैं। अतः उत्तर प्रदेश में लगभग 96 प्रतिशत हाउसहोल्ड और बिहार में कुल 92 प्रतिशत हाउसहोल्ड भूमिहीन, सीमांत और लघु किसानों की श्रेणी में आते हैं। ये ग्रामीण खेतिहर किसान और मज़दूर खेती की अनिश्चितता और खेती के लाभकारी नहीं रहने के कारण अक्सर शहरी असंगठित क्षेत्र में काम करने के लिए प्रवास करते हैं।
सरकार ने राजकोषीय घाटे को कम रखना शुरू किया है जिससे कृषि और ग्रामीण विकास पर होने वाले ख़र्चों में लगातार कटौती हुई है। सरकार ने कृषि पर मिलने वाली सब्सिडी में भी कटौती की है जिससे कृषि लागतों जैसे बीज, खाद, कृषि उपकरणों और सिंचाई की लागतों में तेज़ी से वृद्धि हुई है।

कृषि लागतों में वृद्धि से छोटे और सीमांत किसानों का खेती से मोहभंग हुआ है जिससे न सिर्फ़ भूमिहीन मज़दूर बल्कि सीमांत और छोटे किसान भी शहरों में जाकर अक्सर असंगठित क्षेत्र में मज़दूर के रूप में काम करने को बाध्य हुए हैं। ये सभी माइग्रेशन के पुश फ़ैक्टर के नाम से जाने जाते हैं। 

पिछले तीन दशकों में निजी पूँजी (जिसे सस्ते श्रम की ज़रूरत होती है) के दबाव में सरकारों ने कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उपेक्षा की है जिससे ग्रामीण स्तर पर रोज़गार सृजन या तो कम हो गये या न के बराबर हुए हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि इन क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की तरफ़ प्रवास तेज़ी से बढ़ा है। उत्तर प्रदेश और बिहार में अत्यधिक भूमि आधारित असमानता, आधारभूत संरचना के अभाव और सरकारी नीतियों के शहरी निजी पूँजी की तरफ़ झुकाव के कारण एक बड़ी ग्रामीण कामगार जनसंख्या उपेक्षित रही है और उन्हें अक्सर शहरों में असंगठित क्षेत्र में आजीविका कमाने के लिए जाना पड़ता है।

कोविड-19 और रिवर्स माइग्रेशन

कोविड-19 के ख़तरों, लॉकडाउन और उससे उपजी कामबंदी ने माइग्रेशन की इस प्रक्रिया को रिवर्स माइग्रेशन में बदल दिया है। यानी वे कामगार जो रोज़गार के लिए शहरों में गये थे अब तेज़ी से वापस अपने गाँव लौट रहे हैं। इनमें सिर्फ़ असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कामगार ही नहीं, बल्कि संगठित क्षेत्र (स्किल्ड और सेमी-स्किल्ड कामगार) में काम करने वाले मध्य वर्ग के लोग भी शामिल हैं।

यह रिवर्स माइग्रेशन ख़ासकर दो तरह के प्रभाव लेकर हमारे समक्ष उपस्थित हुआ है। पहला, कोविड-19 की भयावहता और लॉकडाउन के कारण छोटे-बड़े उद्योगों के बंद होने से लाखों-करोड़ों लोगों के रोज़गार या तो छूट गये हैं या उनकी तनख़्वाह और मज़दूरी में कटौती हुई है। इसी तरह ख़ासकर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों की आमदनी एक झटके में या तो कम हो गयी या ख़त्म हो गयी है। असंगठित क्षेत्र में निर्माण, छोटे-बड़े दुकानों/मॉलों में काम करने वाले कर्मचारी, घरेलू कामगार, ठेला चलाने वाले, वेंडर्स, फेरी वाले, दिहाड़ी मज़दूर, सब्जी और अन्य ज़रूरी सामान बेचने वाले और सेवा क्षेत्र में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर शामिल हैं। 

आय में कमी से अर्थव्यवस्था में माँग की कमी हो गयी है और इस कारण उद्योग चलाने वाले और उनमें निवेश करने वाले उद्यमियों की आय भी कम हो गयी है जिससे अर्थव्यवस्था में नये निवेश भी कम हो गये हैं। नये निवेश कम होने से सप्लाई चेन भी बाधित हुई है।

दूसरा, पिछले कुछ दिनों में कामगार शहरों से अपने मूल स्थान, छोटे शहरों और गाँवों की ओर पलायन कर गये हैं। ये लोग जब अपने मूल स्थान पर पहुँचेंगे तब एकाएक ग्रामीण क्षेत्र, जो कम रोज़गार और कम मज़दूरी के लिए पहले से ही बदहाल है, पर और अधिक लोगों को काम देने का बोझ आ पड़ेगा। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के गाँवों में न तो कल-कारखाने हैं और न ही शहरों जैसे रोज़गार के साधन उपलब्ध हैं, ऐसे में कृषि और उससे जुड़े रोज़गार ही एकमात्र आय के श्रोत बचे हैं। अब जबकि अधिक लोग गाँवों में इन सीमित रोज़गार के साधनों पर आश्रित होंगे तब कृषि और ग्रामीण मज़दूरी दर के और भी कम हो जाने का ख़तरा है। केंद्र और राज्य सरकारें यह कहते नहीं थक रही हैं कि इन मज़दूरों को स्थानीय स्तर पर ही काम उपलब्ध कराया जायेगा पर अभी तक के प्रयास ज़मीन पर कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं। केंद्र सरकार ने मनरेगा स्कीम के तहत राज्यों को इस वित्त वर्ष में 40 हज़ार करोड़ और देने का एलान किया है पर सवाल यह है कि क्या सिर्फ़ मनरेगा से ही बेरोज़गारी की इस भीषण समस्या का समाधान हो सकेगा? 

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क्या उपाय होने चाहिए?

कोरोना और लॉकडाउन के कारण पूरे भारत में आर्थिक विकास की दर पिछले दो दशकों में सबसे कम है, लोगों की आय कम हो गयी है और माँग कमज़ोर पड़ गयी है तब ख़ासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे पहले कृषि और उससे जुड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये जिससे स्थानीय स्तर पर लोगों को रोज़गार के अवसर उपलब्ध हो सकें। ग्रामीण आधारभूत संरचना के विकास पर सरकार ख़ुद आगे आकर निवेश करे और लोगों को रोज़गार उपलब्ध कराए जिससे आय और माँग का सृजन हो सके। यदि ऐसा नहीं हुआ तो जैसा कि आईएलओ ने भारत आधारित रिपोर्ट (आईएलओ मॉनिटर: कोविड-19 एंड द वर्ल्ड ऑफ़ वर्क) में कहा है कि यदि सरकार समय रहते कोरोना और लॉकडाउन के कारण नौकरी गँवा चुके लोगों को तत्काल राहत उपलब्ध नहीं कराती है तो देश में लगभग 40 करोड़ लोग ग़रीबी की रेखा के नीचे चले जायेंगे। इसका एक बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश और बिहार से ही होगा।

इसलिए अब यह आवश्यक है कि सरकार सर्वप्रथम लौट रहे मज़दूरों को फौरन पीडीएस के तहत सस्ते दरों पर राशन उपलब्ध कराए, अगले कुछ महीनों के लिए कैश ट्रांसफ़र करे और साथ ही एक तय समय सीमा के अंदर कृषि और उससे जुड़े उद्योगों और ग्रामीण विकास पर ख़र्च बढ़ाकर लोगों को रोज़गार मुहैया कराए जिससे आय और माँग में वृद्धि की जा सके और अर्थव्यवस्था को सुचारू किया जा सके।

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डॉ. तृप्ति कुमारी
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