loader

इस अमृत उद्यान में कौन दाखिल हो सकता है?

नाम बदलने की राजनीति और रिवायत नई नहीं है। दुनिया भर में मुल्कों, शहरों, सड़कों, चौराहों और इमारतों के नाम बदले जाते रहे हैं। भारत में ही पिछले कुछ वर्षों में बंबई, मद्रास, कलकत्ता- मुंबई, चेन्नई और कोलकाता हो गए। हमने ब्रिटिशकालीन दौर में दिए गए कई नाम बदले हैं। मुग़ल गार्डन भी वस्तुतः ब्रिटिशकालीन नाम ही है जिसे बाग़ की मुग़लिया शैली की वजह से यह नाम दिया गया।

लेकिन नामों को बदलने का एक तर्क होता है, उसके पीछे राजनीतिक और सांस्कृतिक नीयत होती है। बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जब नाम बदलने की राजनीति करती है तो उसकी भी एक नीयत दिखाई पड़ती है जो चिंताजनक है। वह मूलतः दो तर्कों का हवाला देती है- एक तर्क यह होता है कि गुलामी की स्मृति से मुक्ति पाने की ज़रूरत है और दूसरा तर्क यह होता है कि भारत का जो स्वर्णिम अतीत है, उसकी विरासत को जीवित रखा जाना ज़रूरी है।

ताज़ा ख़बरें

लेकिन ये दोनों तर्क इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि अतीत या स्मृति कोई कटी-छँटी चीज़ नहीं होती जिसे आप किसी पौधे की तरह अपने सांस्कृतिक गमले में सजा लें। उसका एक अविच्छिन्न सिलसिला होता है जिसमें बरसों नहीं, सदियों की हवा-मिट्टी और पानी का संस्पर्श शामिल होता है। बहुत संभव है कि इस अविच्छिन्नता में बहुत सारे तत्व आपको नापसंद हों या नागवार गुज़रें, लेकिन इतने भर से उनकी हक़ीक़त मिट नहीं जाती। ख़ास कर भारत जैसे देश में, जहाँ पांच हज़ार साल की एक अविच्छिन्न सभ्यता दिखाई पड़ती है, वहां स्मृति और विरासत के नाम पर यह खेल दरअसल इस सभ्यता की स्वाभाविकता को काटने का, उसे कमज़ोर करने का खेल बन जाता है।

जब मुग़ल गार्डन का नाम अमृत उद्यान किया जाता है, या जब इलाहाबाद को प्रयागराज बनाया जाता है या फिर जब मुग़लसराय को दीनदयाल उपाध्याय नगर में बदला जाता है तो ऐसे प्रयत्नों की अस्वाभाविकता बहुत साफ़ दिखाई पड़ती है। इलाहाबाद का प्रयागराज से कोई बैर नहीं है। दोनों साथ-साथ हम सबकी स्मृति में जीवित हैं। ऐसी साझा स्मृति का दूसरा उदाहरण बनारस और काशी हैं। लेकिन जब आप इलाहाबाद को मिटा कर प्रयागराज को स्थापित करना चाहते हैं तो दरअसल, आप स्मृति के एक हिस्से को- जो कम से कम एक हज़ार बरस का है- काट कर- उस संस्कृति का वर्चस्व बनाना चाहते हैं जो दरअसल फ़िलहाल कहीं अस्तित्व में नहीं है। इसके बाद इलाहाबाद पूछता है कि वह अपने अमरूदों का क्या करे, अपने उस विश्वविद्यालय को किस नाम से पुकारे जिसे कभी पूरब का ऑक्सफोर्ड कहते थे और अपने शायर अकबर इलाहाबादी को किस नए नाम से जाने, जिन्होंने अपनी शायरी में अंग्रेज़ियत और आधुनिकता दोनों की जम कर ख़बर ली थी।

ठीक है कि मुग़ल गार्डन के पास ऐसे सवाल नहीं होंगे। उसकी उम्र भी बहुत ज़्यादा नहीं है। लेकिन मुग़ल गार्डन बोलते ही जो स्मृति सिर उठाती है, क्या अमृत उद्यान नाम से वैसी कोई स्मृति है? 
अमृत उद्यान नाम दरअसल यह संदेह पैदा करता है कि सांस्कृतिक शुद्धतावाद की जिस अधकचरी अवधारणा को बीजेपी अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल की तरह स्थापित करने में लगी है, उसके तहत उसने एक तत्सम शब्द-युग्म के सहारे यह नाम चुन लिया है।

मगर यह संदेह फिर भी छोटा है। ज़्यादा बड़ा संदेह यह है कि दरअसल बीजेपी और संघ परिवार को पूरे मध्यकाल से समस्या है। इस मध्यकाल में संस्कृत नहीं बोली जाती, कबीर पंडितों और मुल्लों का मज़ाक बनाते हैं, मीरा प्रेम के नाम पर बग़ावत करती नज़र आती हैं, रसख़ान और जायसी कृष्णकथा कहते मिलते हैं और कुंभनदास और रैदास जैसे कवि अपने स्वाभिमान को अपना मूल्य बनाते हैं। इसी मध्यकाल में नानक मिलते हैं जो एक नया पंथ शुरू कर डालते हैं। इस मध्यकाल में ताजमहल, लाल क़िला और जामा मस्जिद जैसी शानदार इमारतें बनती हैं, अमीर खुसरो से लेकर तानसेन तक आते हैं। गांधी इसी मध्यकाल से प्रेरणा ग्रहण करते हैं, अपने भजनों की किताब में मध्यकाल का साहित्य भर डालते हैं और ख़ुद को जुलाहा बताते हैं।

विचार से ख़ास

बेशक, इस मध्यकाल में एक बड़ी सांस्कृतिक उपस्थिति तुलसीदास की भी है। कुल मिलाकर यह मध्यकाल एक बड़े सांस्कृतिक प्रतिरोध और उद्वेलन का काल भी है जो किसी काल्पनिक स्वर्णकाल से ज़्यादा ठोस, ज़्यादा निरंतर और हमारी आधुनिकता के ज़्यादा क़रीब है। मगर बीजेपी की शब्दावली में यह पूरा दौर ग़ुलामी का दौर है जिससे निजात पाने की ज़रूरत है।

बीजेपी की सारी समस्या यही है। उसे अपने सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए वह काल्पनिक रामराज्य चाहिए, जहां लोग संस्कृत बोलने वाले हों, मुग़ल गार्डन में नहीं, अमृत उद्यान में घूमते हों और पूजा-पाठ और यज्ञ से राक्षसों और दुष्टों को मार भगाने की विधियाँ विकसित करते हों।

लेकिन इतिहास के ठोस तथ्य बीजेपी की इस कल्पनाशीलता का साथ नहीं देते। उसे समझ में आता है कि इसके लिए उसे अपना इतिहास और अपना मध्यकाल गढ़ना होगा। इसलिए वह अतीत में जाकर नए नायकों की खोज करती है, राणा प्रताप या शिवाजी को हिंदुत्व के उद्धारकों की तरह प्रस्तुत करती है और बाबर-अकबर से लेकर औरंगजेब और बहादुरशाह ज़फ़र तक को ख़ारिज करने की कोशिश करती है। यह मुग़लिया इतिहास उसे ख़ास तौर पर परेशान करता है। इसलिए वह मुग़लसराय का नाम दीनदयाल उपाध्याय नगर रखते हुए एक अजब सी दलील देती है- कि इसी शहर के रेलवे प्लैटफॉर्म पर दीनदयाल उपाध्याय का शव मिला था। निश्चय ही यह दुखद था, उनका ऐसा अंत नहीं होना चाहिए था, लेकिन बस इस आधार पर एक शहर का नाम बदल देना कितना उचित है? उनकी स्मृति अक्षुण्ण रखने के लिए उनकी मूर्ति लगाई जा सकती थी, उनके नाम पर कुछ संस्थान बनाए जा सकते थे, लेकिन एक पूरे शहर से उसका नाम छीन लेना कितना जायज़ है?

ख़ास ख़बरें

मुग़ल गार्डन का नाम परिवर्तन भी इसीलिए परेशान करता है। वह सांस्कृतिक आरोपण की एक बड़ी प्रक्रिया का छोटा सा हिस्सा है। लेकिन इस सांस्कृतिक आरोपण से हम क्यों परेशान हैं? क्योंकि बीजेपी यह जो नया सांस्कृतिक उद्यान बना रही है, उसमें बहुत सारे हिंदुस्तानियों के लिए जगह नहीं दिखती या दोयम दर्जे की जगह दिखती है। इस देश के दलित, आदिवासी, पिछड़े या अल्पसंख्यक इस सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के आगे या तो ख़ुद को असहाय पा रहे हैं या फिर छोटी-छोटी लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं- उनके सामने उनके वजूद और गुज़ारे का संकट बड़ा होता जा रहा है।

मुग़ल गार्डन कोई जनता की चीज़ नहीं है। वह राष्ट्रपति भवन का हिस्सा है जिसे साल में एक बार आम लोगों की सैर के लिए खोला जाता है। लेकिन उसकी जगह जो अमृत उद्यान आ गया है, उसका नाम ही बहुत सारे लोगों को इसमें प्रवेश के लिए सांस्कृतिक तौर पर अनधिकृत या अवांछित बना डालता है। वैसे, एक सच यह भी है कि सरकारी नाम बदल जाने से जगहों के प्रचलित नाम आसानी से ख़त्म नहीं हो जाते। समय भी उन्हें एक मान्यता देता है। कनॉट प्लेस को राजीव चौक मिटा नहीं पाया, चांदनी चौक का कोई और नाम उसे बदल नहीं पाएगा, इलाहाबाद प्रयागराज के साथ बचा रहेगा और अमृत उद्यान के अलावा लोगों को मुग़ल गार्डन भी याद आता रहेगा। मगर सांस्कृतिक आरोपण के इस प्रयत्न के प्रतिरोध में इतनी भर तसल्ली पर्याप्त नहीं है, उसके व्यापक निहितार्थ समझने और उसकी काट खोजने की ज़रूरत है।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
प्रियदर्शन
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें