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क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दागियों को टिकट नहीं देंगी पार्टियां?

भारत का चुनावी परिदृश्य बूथ कैप्चरिंग से ईवीएम कैप्चरिंग में अपडेट हो चुका है, लेकिन उम्मीदवारों के चयन का क्राइटेरिया जरा भी अपडेट नहीं हुआ है। अगर उम्मीदवार चुनाव जीत सकने में सक्षम है, तो उसके ख़तरनाक चाल-चरित्र और चेहरे को नजरअंदाज कर दिया जाएगा। लगभग यही छोटे-बड़े हर राजनीतिक दल का पैमाना है। 

कुछ दशक पहले तक राजनीतिक दलों को आंखों की शर्म थी इसलिए वे अपराधियों और गुंडे-मवालियों को पृष्ठभूमि में रख कर उनकी मदद लिया करते थे, लेकिन आज सूरते हाल यह है कि प्रमुख दलों का टिकट पाकर अपराधी सीधे चुनावी अखाड़े में उतरते हैं और धनबल व बाहुबल की धौंस दिखाकर संसद और विधानसभाओं में पहुंच जाते हैं तथा पूरे देश की जनता के भाग्यविधाता बन बैठते हैं। 

राजनीति के बेलगाम अपराधीकरण के चलते पिछले कुछ सालों से सिविल सोसाइटी के साथ-साथ न्यायपालिका की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने बीते माह इस दिशा में एक महत्वपूर्ण फ़ैसला दिया है।

ऑनलाइन करें दागियों की जानकारी 

कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों को निर्देश दिया है कि वे अपने दागी उम्मीदवारों की जानकारी ऑनलाइन प्रकाशित करें। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उम्मीदवार के चयन के 48 घंटे के भीतर या नामांकन के दो हफ्ते के अंदर, जो भी पहले हो, यह जानकारी प्रकाशित कर दी जानी चाहिए। जस्टिस आर.एफ़. नरीमन और जस्टिस रविंद्र भट की पीठ ने कहा कि इसमें यह भी बताया जाए कि उम्मीदवार के ख़िलाफ़ किस तरह के अपराध का आरोप है और मामले की जांच कहां तक पहुंची है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि ऐसा न करने पर इसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा। 

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चोर दरवाज़ा तलाश लेंगे दल?

सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख और अवमानना के डर से राजनीतिक दल कोई पहल करेंगे या अपराधियों को राजनीतिक पनाह देने के लिए कोई चोर दरवाज़ा तलाश लेंगे। यह आशंका इसलिए बलवती हो जाती है कि पहले भी 25 सितंबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने निर्देश दिया था कि चुनाव लड़ने से पहले प्रत्येक उम्मीदवार अपना आपराधिक रिकॉर्ड निर्वाचन आयोग के समक्ष घोषित करे। लेकिन चुनाव आयोग भी उस संविधान पीठ द्वारा राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए तय किए गए निर्देशों का पालन करने में विफल रहा। 

राजनीतिक इच्छाशक्ति तो इस दिशा में काम कर रही है कि दिल्ली दंगों में आरोपियों के ख़िलाफ़ पुलिस को एफ़आईआर दर्ज करने की फटकार लगाने वाले जस्टिस एस. मुरलीधर को कॉलेजियम के फ़ैसले की आड़ में रातों-रात तबादले का ‘हुक्म’ सुना दिया गया!
बड़ी दिक्कत यह है कि एक भी राजनीतिक दल चुनाव जीतने की संभावना वाले अपराधियों से कन्नी नहीं काटना चाहता। उल्टे ऐसे उम्मीदवारों की दीपक लेकर खोज की जाती है, उन्हें मंत्री पद का लालच दिया जाता है, भले ही वे विरोधी दल से ही क्यों न जुड़े हों। यह नैतिकता और राजनीतिक शुचिता की जगह मात्र संख्याबल महत्वपूर्ण हो जाने का दुष्परिणाम है।
अपराधियों को राजनीति से बाहर रखने और अवैध धन का दुरुपयोग रोकने के लिए चुनाव सुधारों की मांग लंबे अरसे से उठती रही है। लेकिन यह जुबानी जमाख़र्च से आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि किसी राजनीतिक दल की इसमें वास्तविक दिलचस्पी ही नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय कह रहा है कि उम्मीदवारों का चयन मेरिट और उपलब्धियों के आधार पर किया जाना चाहिए और हर पार्टी द्वारा यह ज़रूर बताया जाना चाहिए कि आख़िर अमुक उम्मीदवार को ही क्यों चुना गया है? कोर्ट का रुख स्पष्ट है कि दागी छवि वाले उम्मीदवार का चयन करने का एकमात्र कारण उसके जीतने की संभावना नहीं हो सकता है। जबकि राजनीतिक दल ठीक इसके उलट आचरण करते हैं। 

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हालिया दिल्ली विधानसभा चुनाव के अपने नामांकन पत्रों में 133 उम्मीदवारों ने ख़ुद स्वीकार किया था कि उनके ख़िलाफ़ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। साफ-सुथरी राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के 70 में से 36 उम्मीदवार दागी निकले! बीजेपी और कांग्रेस में भी दागियों की संख्या काफी अधिक थी। 

इससे पहले झारखंड, महाराष्ट्र, हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भी बड़ी तादाद में दागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे गए थे। ज्यादा पीछे न जाएं, तो 2019 के लोकसभा चुनाव में एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर ने पाया कि 542 सांसदों में से 159 यानी 29 फ़ीसदी सांसदों के ख़िलाफ़ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। 

सभी दलों के सांसदों पर चल रहे मुक़दमे 

बीजेपी के 303 सांसदों के हलफनामे का विश्लेषण करके पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह सहित 116 यानी 39 फ़ीसदी सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले चल रहे हैं। कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद यानी 57 फ़ीसदी के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले हैं। तथ्य यह भी है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक मुक़दमे वाले 162 यानी 30 फ़ीसदी सांसद चुनकर आए थे, जबकि 2014 के चुनाव में ऐसे निर्वाचित सांसदों की संख्या 185 थी। 

हालांकि आज भी बेहतर छवि वाले और अपने क्षेत्र की जनता के लिये समर्पित ढंग से काम करने वाले राजनीतिज्ञों की किसी दल में कोई कमी नहीं है। लेकिन पार्टियों द्वारा उम्मीदवारों के चयन का मौजूदा ट्रेंड डराता है कि आगे चलकर कहीं पूरी संसद अपराधियों का मरकज (केंद्र) बन कर न रह जाए!

चुनाव में खड़े होने वाले अधिकतर प्रत्याशियों पर रेप, हत्या, फिरौती जैसे गंभीर आरोप लगे होते हैं। मतदाता के सामने मुश्किल होती है कि वह किसे चुने। उसकी यह दुविधा तभी दूर हो सकती है, जब या तो दागी व्यक्ति को टिकट ही न दिया जाए या फिर उसके काले कारनामों का कच्चा चिट्ठा मतदाताओं के सामने हो। लेकिन ऐसा होने नहीं दिया जाता। 

दागी उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने वाला कोई क़ानून बनाना सुप्रीम कोर्ट के हाथ में नहीं है लेकिन उसने अपने ताज़ा आदेश से यथास्थिति को बदलने की कोशिश की है। इस फ़ैसले से नेताओं के कानों पर किस हद तक जूं रेंगी है, यह आगामी किसी भी चुनाव में नजर आ जाएगा। अभी तो राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के गंभीर से गंभीर अपराध को पार्टी गतिविधि की शक्ल दे देते हैं और हर मुक़दमे को राजनीतिक बदला बताते हैं। जब तक चयन-प्रक्रिया को पूर्ण पारदर्शी बनाने की इच्छाशक्ति प्रबल नहीं होगी, तब तक दागी उम्मीदवारों को राजनीति से बाहर करना नामुमकिन है। 

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विजयशंकर चतुर्वेदी
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