साल 2020 की फ़रवरी में हुए दिल्ली के हालिया दंगे को देख कर कलेजा मुँह को आता है। दंगों का ज्वार थमने के बाद मीडिया और पुलिस का रवैया वही है जो राहत इंदौरी ने अपने इस शेर में कहा है- ‘अब कहाँ ढूंढने जाओगे हमारे कातिल/आप तो क़त्ल का इल्ज़ाम हमीं पर रख दो।’
दिल्ली दंगे: ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद...
- विचार
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- 2 Mar, 2020

साल 2020 की फ़रवरी में हुए दिल्ली के हालिया दंगे को देख कर कलेजा मुँह को आता है। दंगों का ज्वार थमने के बाद मीडिया और पुलिस का रवैया भी कुछ ठीक नहीं है।
अब इस बात का कोई मतलब नहीं रह गया है कि दंगों का इतिहास बताते हुए मारे गए लोगों के आँकड़े पेश किए जाएँ या पुलिस के पक्षपाती और सांप्रदायिक रुख का ज़िक्र किया जाए। हर दंगे का यह स्थायी भाव बन गया है और इंसानी मौतें महज एक संख्या से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। यह हमारी सांप्रदायिक राजनीति की ही देन है, जिसमें एक व्यक्ति, एक नागरिक केवल एक संख्या में बदल जाता है; कभी वोट के लिए और कभी विरोधियों पर चोट के लिए। वे आरोप भी बेमानी हैं, जिनमें दंगों के लिए इस या उस राजनीतिक दल के कार्यकाल को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है, क्योंकि दंगा कराने वाले कारखाने अब समाज के बीच खुल गए हैं। सरकार किसी की भी हो, उनकी मशीनरी भारत विभाजन के उद्गम से निकली रक्तरंजित नदी को 70 साल बाद भी किसी प्रदेश में सूखने नहीं देती।
विजयशंकर चतुर्वेदी कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने कई मीडिया संस्थानों में काम किया है। वह फ़िलहाल स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करते हैं।