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राममंदिर पर ओवैसी के विरोध का सच!

भारतवर्ष में अमीर खुसरो और जायसी से लेकर नज़ीर अकबराबादी एवं अकबर इलाहाबादी तक, हुमायूँ और दाराशिकोह से लेकर आज की राजनीति में सक्रिय अनेक मुसलिम नेताओं तक ऐसे मुसलिम बंधुओं की कोई कमी नहीं है जो भारतीय समाज में रच बस कर जीना जानते हैं; जीना चाहते हैं किंतु देश के दुर्भाग्य से मध्यकाल से लेकर आज तक इस देश की राजनीति में हिंदुओं ने उदारवादी मुसलिमों के स्थान पर कट्टर कठमुल्लाओं को ही सिर पर बैठाया।
डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र

एआईएमआईएम (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने एक बार फिर राममंदिर के विरुद्ध स्वर मुखर करने का असफल प्रयत्न किया है। ओवैसी परतंत्र भारत में बनी उस राजनीतिक पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष हैं जो धर्म की एकांकी छद्म राजनीति पर टिकी है, जिसमें भारतीयता अथवा संपूर्ण भारतीय समाज के लिए कोई स्थान नहीं है, जो भारतीय संविधान की मूल भावना ‘हम भारत के लोग’ के स्थान पर अलिखित समूह बोध ‘हम भारत के मुसलमान’ की संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है और स्वयं को सभी भारतीय मुसलिम नागरिकों की स्वयंभू प्रतिनिधि समझती है। वस्तुतः यह मुसलिम लीग की पाकिस्तान बनवा लेने वाली अलगाववादी-विभाजनकारी मानसिकता की विषवल्लरी है जो स्वतंत्र भारत में तुष्टीकरण का खाद-पानी प्राप्त कर भारतीय समाज को विघटित और विषाक्त करने के लिए पुनः सक्रिय है। इस दल के नेताओं के उत्तेजक बयान इसी ओर संकेत करते हैं। 

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सन् 2014 से पूर्व तक भारतीय राजनीति से जीवनशक्ति अर्जित करने वाले इस दल की कूट योजनाएँ केंद्र में बीजेपी की प्रतिष्ठा के साथ ही बाधित हुई हैं। इसलिए इस दल के नेतृत्व में बौखलाहट स्वाभाविक है। केंद्र में कांग्रेसी सरकारों का प्रायः समर्थन करने वाला यह दल बीजेपी सरकार के प्रत्येक कार्य पर उंगली उठाता रहा है। कश्मीर में आतंकवादी संगठनों पर लगाम कसने, अनुच्छेद 370 हटाने, पाकिस्तान के विरुद्ध सर्जिकल एवं एयर स्ट्राइक होने, राम मंदिर के पक्ष में उच्चतम न्यायालय का निर्णय आने से लेकर अब राममंदिर की नींव रखे जाने तक ओवैसी निरंतर केंद्र सरकार पर प्रहार कर रहे हैं। यहाँ तक कि जब लगभग सभी मुसलिम संगठनों ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पूरे अथवा आधे-अधूरे मन से स्वीकार कर विवाद समाप्त कर दिया है और देश के बहुसंख्यक समाज के साथ चलने का मन बना लिया है तब भी ओवैसी उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर असंतोष और अविश्वास प्रकट करते हुए आग लगाने के कुटिल प्रयत्नों में व्यस्त हैं।

न्यायालय, संविधान और सरकार ओवैसी और उनके समर्थकों को तब ही तक मान्य हैं जब तक इन संस्थाओं के कार्य उनके मनोनुकूल हों। अपनी दुरभिलाषाओं और स्वार्थों के विरुद्ध कोई भी कार्य अथवा निर्णय उन्हें कभी स्वीकार्य नहीं। यह पृथक्तावादी मानसिकता देश की एकता, अखंडता और सांप्रदायिक-समरसता के विरुद्ध है। यह अलग बात है कि उनकी यही मानसिकता कट्टर मुसलिमों के बीच उनकी लोकप्रियता का आधार है; उनकी शक्ति है और उनके भारतीय राजनीति में बने रहने का सुगम राजपथ है।

भारतवर्ष में अमीर खुसरो और जायसी से लेकर नज़ीर अकबराबादी एवं अकबर इलाहाबादी तक, हुमायूँ और दाराशिकोह से लेकर आज की राजनीति में सक्रिय अनेक मुसलिम नेताओं तक ऐसे मुसलिम बंधुओं की कोई कमी नहीं है जो भारतीय समाज में रच बस कर जीना जानते हैं; जीना चाहते हैं किंतु देश के दुर्भाग्य से मध्यकाल से लेकर आज तक इस देश की राजनीति में हिंदुओं ने उदारवादी मुसलिमों के स्थान पर कट्टर कठमुल्लाओं को ही सिर पर बैठाया। उदारवादी दाराशिकोह के स्थान पर कट्टरपंथी औरंगज़ेब को सत्ता दिलाई। 

अकबर इलाहाबादी जैसे उदार शायर को हाशिए पर धकेल कर पाकिस्तान के विचार को आधार देने वाले अल्लामा इक़बाल को महत्व दिया। कट्टरता के पोषण की यही भयानक भूल भारतीय-समाज में जब-तब सांप्रदायिक दंगों की आग भड़काती है और कश्मीर घाटी से हिंदुओं को पलायन पर विवश करती है।

कितने दुख और आश्चर्य का विषय है कि राज्य और केंद्र की सरकारें देखती रह जाती हैं और हत्या, बलात्कार लूट-पाट करके कश्मीरी पंडितों को उनके मूल स्थान से विस्थापित करने वालों के विरुद्ध एक भी अभियोग कहीं दर्ज नहीं होता; एक भी अपराधी को सज़ा नहीं मिलती। देश की धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक सरकार और विश्व के बड़े-बड़े मानवाधिकारवादी संगठन मूक दृष्टा बने रहते हैं। आख़िर क्यों? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।

एक विवादित ढाँचा ढहाए जाने पर श्रीमान असदुद्दीन ओवैसी को अपार कष्ट होता है किंतु भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में किसी मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च आदि के तोड़े जाने पर वह कभी कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराते। आख़िर क्यों? 

सामान्यतः मंदिर अथवा मसजिद में कोई भेद नहीं। दोनों ईश्वर की आराधना के ही स्थल हैं किंतु जब किसी मंदिर को विजेता भाव से ढहाकर, उसमें स्थापित-पूजित मूर्तियों को तोड़कर अस्मिता और आस्था पर आघात किया जाता है तब वह स्वाभिमान को आहत कर कसक बनकर बार-बार उभरता है और बलपूर्वक अधिकृत की गई संपदा की पुनः प्राप्ति तक अनंत संघर्ष की प्रेरणा देता है। राममंदिर की संघर्ष-कथा इसी विजय की गौरवशाली बलिदान-गाथा है।

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इतिहास के लिखित और पुरातात्विक तथ्यों से तर्क-कुतर्क का अनंत विवाद खड़ा किया जा सकता है किंतु इस निर्दय सत्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि सशस्त्र सैन्य-बल के सहारे भारत में इसलाम का विस्तार करने वालों ने यहाँ के मंदिर ध्वस्त किए, मूर्तियाँ तोड़ीं। महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ का ध्वंस किए जाने के 1000 वर्ष बाद आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में मंदिर-गुरुद्वारे तोड़े जाते हैं। भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन की छाया में भी सांप्रदायिक दंगों के समय मूर्तियों और मंदिरों पर आक्रमण होते हैं। अतः अतीत और वर्तमान के इन कटु अनुभवों के आलोक और विवादित ढाँचे के नीचे खुदाई में मिले मंदिर के अवशेषों-मूर्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह विवादित ढाँचा मंदिर के स्थान पर स्थित था और मंदिर की सामग्री से निर्मित भी था। उच्चतम न्यायालय ने भी अनेक साक्ष्यों के आधार पर इसीलिए मंदिर-निर्माण के पक्ष में निर्णय दिया है किन्तु ओवैसी इन तथ्यों पर विचार कर वस्तुस्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और किसी नये संघर्ष की ज़मीन तैयार करने में व्यस्त हैं। उनका यह व्यवहार भारतीय समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

ओवैसी बार-बार कहते हैं कि वह सदा याद रखेंगे कि राममंदिर वाली भूमि पर 400 वर्ष से मसजिद थी जिसे गिराकर मंदिर बनाया जा रहा है। वह यह बात अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी बताएँगे ताकि इस संघर्ष को अनंत काल तक जीवित रखा जा सके।

अब जातीय-स्मृति कि यह विरासत यदि हिंदुओं ने भी अपनी स्मृति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रखकर अगर उच्चतम न्यायालय से अपनी भूमि वापस प्राप्त कर ली है तो इसमें बुराई ही क्या है?

रामजन्मभूमि-निर्णय के उपरांत विवाद शांत हुआ है। एक बार फिर सांप्रदायिक सद्भाव का अवसर बना है किंतु यदि इसलामिक कट्टरता पुनः रस में विष घोलने का पाप करेगी तो परिणाम निश्चय ही अच्छे नहीं होंगे। अब यह समझ लेना अत्यावश्यक है कि आज की परिस्थितियाँ मध्यकाल से भिन्न हैं।

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