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कोरोना ने इंसानों की अक्ल ठिकाने ला दी कि बेतरतीब विकास किसी काम का नहीं!

आज सुबह जब मैं अपनी गाड़ी से निकला तो मैंने पाया कि काफ़ी कुछ नज़ारा बदला हुआ है। सभी सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ था। इनसान और जानवर दोनों ही सड़कों से नदारद थे। एक महामारी ने सब कुछ पलट कर रख दिया। कभी न रुकने वाले इंसानी क़दमों में तो जैसे बेड़ियाँ ही पड़ चुकी हैं। चीन के एक शहर वुहान से पूरे विश्व के कोने-कोने में पहुँची कोविड-19 नाम की इस बीमारी ने तो ज़िंदगी के मायने ही बदल दिये।

बहुत सारे देशों के सामने तो इस तरह की मुसीबत शायद पहले कभी आई ही नहीं होगी। विश्व की शक्ति का केंद्र माना जाने वाला यूरोप आज प्रकृति के सामने किस तरह से घुटने टेक चुका है जगज़ाहिर है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जिस देश का कोई मुक़ाबला नहीं है उसके सामने प्रकृति ने जो अपना रूप दिखाया है उसे देख कर समस्त दुनिया काँप उठी है।

विशाल मानवीय त्रासदी के शुरू होने का तो सही वक़्त तय किया जा चुका है पर इसके थमने की उम्मीद अभी काफ़ी दूर है। कह सकते हैं कि यह इतनी आसानी से जाने वाली नहीं है जितनी आसानी ये यह कोरोना महामारी आई।

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पूरा शहर सन्नाटे के साथ मायूसी की ज़िंदगी जी रहा है। दुकानों के बाहर सामान तो रखा है पर बेचने वाले और खरीदने वाले दोनों ही जंजीरों से बंधे हुये हैं। मनुष्य मानसिक रूप से तो आपस में काफ़ी दूर पहले ही हो चुका था और अब तो शारीरिक तौर पर आपसी दूरी बना कर रखना बीमारी से बचने का एकमात्र उपाय रह गया। क्या नतीजा हुआ इतने अधिक विकास का? 

ख़ास कर भारत जैसे देशों में तो आपसी दूरी बनाना अत्यंत कठिन है। तो फिर प्रकृति से जारी हमारी जो लड़ाई है उसका निर्णय क्या होगा?

बड़े-बड़े होटल, रेस्तराँ आज लोगों की वाट जोह रहे हैं पर कुदरत के कहर के आगे मानव का दिखावटी जीवन कहीं नहीं टिक पाया। वो एसी वाली कार और वो ऑटोमैटिक वाली एसयूवी घर के बाहर धूप और धूल के बीच राहत की साँस ले रही होगी। हालाँकि घर में टीवी और हाथ में मोबाइल इस समय मानव का सहारा बन के आए हैं और उसे ख़ुद से दूर रखने में काफ़ी सहायक बने हुए हैं।

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इस महामारी के काल में भी मनुष्य अपने आप को जी पाने और अपने आप को समय दे पाने में पीछे ही रहा है। साथ ही कुदरत की चेतावनी को एक बुरे समय के रूप में देखने की अच्छी कोशिश कर रहा है। सच तो यह है कि भौतिकता में मानव ने अपने सारे सरोकार समेट लिये हैं और उसे भौतिकता के परे कुछ दिखता ही नहीं।

शहर के लोग मैदान छोड़ चुके हैं, और गाँवों में लोग खेतों में लगे हुए हैं। गाँवों से शहर जाने वाले लोगों ने इस विपत्ति के समय में वापस गाँवों की आस देख ली है और गाँव भी इतने सक्षम हैं कि उन लोगों को वापस अपना रहे हैं। वापस आते लोगों में वही हैं जिन्होंने शहर की इमारतों में अपनी मेहनत और पसीना लगाया था, लेकिन हमारे शहर इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि उन्हें ये लोग बोझ लगने लगे हैं।

इनकी मेहनत से बने कपड़ों में अपने आप को ख़ूबसूरत दिखाने वाला शहर इनके लिये रोटी नहीं दे पा रहा। कितना दुखद एहसास! विकास के मुँह पर यह ज़ोरदार तमाचा ही हो सकता है।

21वीं शताब्दी का विकसित मानव एक नई समस्या का सामना कर रहा है। तमाम जंग जीतने को आतुर मानव और अपने आप को सर्व विजेता कहते हुए दंभ भरने वाला मानव आज प्रकृति के प्रकोप के सामने अपने अस्तित्व के लिये लड़ रहा है। आज विश्व की ताक़तें (अमेरिका, जापान, चीन, भारत और पूरा यूरोप) और अन्य देश कोरोना से लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस महामारी ने मानव को चिंतित कर दिया है, क्योंकि सदैव खुली आँखों से सपने देखने वालों और महत्वाकांक्षी मानव को अनेक तरीक़े की कठिनाई झेलनी पड़ रही है, मिसाल के तौर पर- 

  • तमाम मानवीय गतिविधियों को अचानक और अस्थाई रुकावट का सामना करना पड़ रहा है।
  • वैश्वीकरण की अवधारणा के प्रति समस्त देश उदासीन हो चले हैं।
  • ग़रीबी और भुखमरी का सामना कर रहे देशों के सामने अनेक चुनौतियाँ उभर कर सामने आई हैं।
  • भारत में लगभग 20% जनता ग़रीब कही जाती है। 117 देशों के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 102 पायदान पर है, जोकि चिंता जनक है और हमारे सिस्टम की पोल खोलने वाला है।
  • वैश्विक कूटनीतिक लक्षणों की सूक्ष्मता से जाँच की जाए तो समस्त देश संरक्षणवाद की ओर जाते दिखाई दे रहे हैं। जोकि भारत को आर्थिक, समाजिक, राजनीतिक आयामों पर सोचने को मजबूर करेगा।
  • इस महामारी का एक सकारात्मक परिणाम यह होगा कि तमाम सरकारों को अब स्वास्थ्य, शिक्षा को ज़्यादा महत्व देना होगा, न कि लड़ाकू हथियारों के आविष्कार व निर्माण में।

जिस तरह से अमेरिका अब डब्ल्यूएचओ के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर रहा है ज़ाहिर सी बात है कि भविष्य का वैश्विक ढाँचा यह नहीं रहेगा। हालाँकि डब्ल्यूएचओ इस समय कुछ अच्छे क़दम उठा रहा है, जैसे- 

  • वैश्विक अनुसंधान को प्रोत्साहित करना।
  • ग़रीब और पिछड़े देशों को राहत मुहैया करवाना।
  • सोशल डिस्टेंसिंग जैसे रक्षात्मक उपायों को जनता तक पहुँचाना।
  • रक्षात्मक उपायों के मानदंड तय करना, आपसी सहयोग को बढ़ावा देना।
  • विश्व समुदाय में आत्मविश्वास का संचार करना। 
आज से लगभग 112 साल पहले महात्मा गाँधी ने अपनी लिखी किताब हिंद स्वराज में शैतानी सभ्यता का ज़िक्र किया था और हम मानवों को चेताया था। लेकिन विकास की लालसा और जीत की भूख इतनी अधिक आज दिखाई देती है कि जिसके सामने महान व्यक्तियों की समस्त बातें गौण हो जाती हैं।

समय-समय पर महामारियों का सामना करने के बाद भी हमने उस समय को एक बुरा दौर समझ कर अपने दिल और दिमाग के कोने में धकेल दिया। यह दौर बहुत कुछ सिखाने वाला होगा और इनसान को इससे सीख लेनी चाहिए। विज्ञान का शांतिपूर्ण तरीक़े से मानव के जीवन की तार्किक तरक्की होना चाहिए, न कि उसका उपयोग विनाशकारी उत्पादों के निर्माण के लिए।

प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग का तरीक़ा हमें बदलना होगा जिसमें प्राकृतिक संतुलन की भावना का समावेशन होना चाहिए।

मानवीय संवेदनाओं का ध्यान रखा जाए। अंतरराष्ट्रीय सद्भाव की स्थापना हो और समस्त देशों को बराबरी का अधिकार प्राप्त हो। विकसित देश पिछड़े देशों की मदद को आगे आएँ।

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साथ ही साथ अब मानव समाज को कुछ सवालों पर भी विचार करना चाहिये, जैसे- 

  • क्या मानव का दायित्व कुदरत को सहेज कर रखना नहीं होना चाहिये?
  • क्या शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार आदि अब मुख्य मुद्दे नहीं होने चाहिए? 
  • वैश्विक आर्थिक हितों के साथ-साथ क्या अब समाजिक और कल्याणकारी हितों को मुख्य नहीं होना चाहिए?
  • क्या वैज्ञानिक खोज और तकनीक का विकास मानव कल्याण के लिए होना चाहिए या फिर विनाश के लिए? 
  • जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों को क्या हमें अपने दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं बना लेना चाहिए?

आज नहीं तो कल यह महामारी तो चली जाएगी लेकिन इस महामारी से हमें काफी कुछ सीखने को मिल रहा है। आज विकास की अंधी दौड़ थम-सी गई है। इनसान को समझ आयेगा कि नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है। पर इतना तो तय है कि मानवीय  महत्वाकांक्षा इतनी आसानी से हार नहीं मानेगी और वह मानव को उस पथ पर ले जाएगी जहाँ से हमारा आना कठिन हो जाएगा।

यह वक़्त है समझने का ! 

यह वक़्त है सोचने का !

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आभाष मिश्रा
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