क्या यह सिर्फ़ विडंबना है कि इसी राम के नाम पर बननेवाले मंदिर के लिए 5 अगस्त 2020 ई. को भूमि पूजन हुआ जिसकी बुनियाद ही ‘शठता’ पर टिकी है?
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा।तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा।।भगति पच्छ हठ नहिं सठताई।दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।
इस विश्वास, भारतीय हिंदू जनता में राम के प्रति व्याप्त आकर्षण एवं इसके राजनीतिक इस्तेमाल का फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों ने उठाया और धार्मिक हिंदू जनता को आक्रामक राजनीतिक हिंदू में बदल कर 6 दिसंबर 1992 ई. को उक्त बाबरी मसजिद ढहा दी गई।
यह भी भारतीय न्याय व्यवस्था की विडंबना ही कही जाएगी कि सर्वोच्च अदालत ने यह माना कि 1949 ई. में मसजिद में मूर्तियाँ रखना ग़ैर क़ानूनी था और 6 दिसंबर 1992 ई. को मसजिद का ढहाया जाना भी आपराधिक कृत्य था, फिर भी न्याय के स्थल से ही इस विवादित ‘स्थल’ से मुसलिम पक्ष को ‘देश निकाला’ दे दिया गया।
ऐसे में यह दावा तो नहीं ही सिद्ध हुआ कि उसी ज़मीन पर राम का जन्म हुआ था। इससे स्पष्ट है कि राम मंदिर का मुद्दा धार्मिक नहीं बल्कि शुद्ध राजनीतिक है। साथ ही ‘शठता’ और कुतर्कों से ओत–प्रोत भी। इसीलिए 6 दिसंबर 1992 ई. को बाबरी मसजिद ढहाये जाने की घटना राम के नाम पर राम से दूर जाने का खंडहर है।
राम बन-बास से जब लौट के घर में आएयाद जंगल बहुत आया जो नगर में आएरक़्स-ए-दीवानगी आँगन में जो देखा होगाछे दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगाइतने दीवाने कहाँ से मिरे घर में आएजगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशाँप्यार की काहकशाँ लेती थी अंगड़ाई जहाँमोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र में आएधर्म क्या उन का था, क्या ज़ात थी, ये जानता कौनघर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौनघर जलाने को मिरा लोग जो घर में आएशाकाहारी थे मेरे दोस्त तुम्हारे ख़ंजरतुम ने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थरहै मिरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आएपाँव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थेकि नज़र आए वहाँ ख़ून के गहरे धब्बेपाँव धोए बिना सरजू के किनारे से उठेराम ये कहते हुए अपने द्वारे से उठेराजधानी की फ़ज़ा आई नहीं रास मुझेछे दिसम्बर को मिला दूसरा बन-बास मुझे
हे राम,जीवन एक कटु यथार्थ हैऔर तुम एक महाकाव्य!तुम्हारे बस की नहींउस अविवेक पर विजयजिसके दस बीस नहींअब लाखों सिर – लाखों हाथ हैंऔर विभीषण भी अबन जाने किसके साथ है।इससे बड़ा क्या हो सकता हैहमारा दुर्भाग्यएक विवादित स्थल में सिमट कररह गया तुम्हारा साम्राज्यअयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहींयोद्धाओं की लंका है,‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहींचुनाव का डंका है!हे राम, कहाँ यह समयकहाँ तुम्हारा त्रेता युग,कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तमऔर कहाँ यह नेता – युग!सविनय निवेदन है कि प्रभु कि लौट जाओकिसी पुराण –– किसी धर्मग्रन्थ मेंसकुशल सपत्नीक ...अबके जंगल वो जंगल नहींजिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!