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सीएए विरोधी आंदोलन में बड़े पैमाने पर दलित-ओबीसी क्यों नहीं जुड़ पाये?

सीएए-एनपीआर-एनआरसी विरोधी आंदोलन में अभी भी दलित-ओबीसी और उच्च जाति के ग़रीब लोगों की बड़े स्तर की हिस्सेदारी नहीं हो पाई है! इस पर आंदोलन में शामिल लोगों को विचार करना चाहिए। आंदोलन को व्यापक बनाने के साथ ही इसका शांतिपूर्ण, अहिंसक और लोकतांत्रिक होना भी बेहद ज़रूरी है।  
उर्मिेलेश

कैसी विडम्बना है, जनता के चुने प्रतिनिधियों से बनी सरकार गणतंत्र के सत्तरवें साल में जनता को फिर से उसकी नागरिकता का सबूत लाने के लिए लाइन में लगाने का इंतजाम कर रही है। प्रथमदृष्टया ही यह क़ानून न सिर्फ जन-विरोधी और असंवैधानिक है, अपितु एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मनाक भी है। यह बात पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक मंचों से कही जा रही है। चाहे, ‘द इकोनामिस्ट’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका हो, नोबेल विजेता प्रो. अमर्त्य सेन हों या फिर प्रो. वेंकटरमन रामाकृष्णन जैसे महान वैज्ञानिक! 

असम में एनआरसी के नतीजे क्या हुए, लोगों को किन-किन मुसीबतों से गुजरना पड़ा, इससे कमोबेश देश की जनता का जागरूक हिस्सा पहले से वाकिफ था। ऐसे में जब नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के अमल में लाने के एलान के साथ एनपीआर-एनआरसी की प्रक्रिया पूरे देश में शुरू करने की ‘क्रोनोलॉजी’ समझाई गई तो उसके विरूद्ध प्रतिरोध शुरू हो गया।

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शांतिपूर्ण-अहिंसक बना रहे आंदोलन

निस्संदेह, हमारे गणतंत्र का यह बहुत नाजुक और चुनौतीपूर्ण मुकाम है। सीएए-एनपीआर-एनआरसी विरोधी आंदोलन के सामने भी कई तरह की चुनौतियां हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो इसे और व्यापक बनाने की है। इस आंदोलन की कामयाबी इसके शांतिपूर्ण-अहिंसक और सेक्युलर-लोकतांत्रिक स्वरूप पर निर्भर करेगी! मैं समझता हूं, किसी आंदोलन की कामयाबी सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं करती कि उसकी मांगें किस हद तक मानी जाती हैं! दुनिया के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब आततायी और निरंकुश सत्ता ने लोगों के आंदोलन की जायज मांगों को नहीं माना पर वे आंदोलन अंततः समाज में बड़े बदलाव की प्रेरणा और उल्लेखनीय मुकाम बन गये। 

हम आज के सीएए-एनपीआर-एनआरसी विरोधी आंदोलन को देखें तो अपनी मांगों और दलीलों के स्तर पर यह जनता का एक उचित और ज़रूरी आंदोलन नजर आता है! ज़रूरी इसलिए कि लोगों के पास प्रतिरोध की आवाज़ उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

सत्ताधारी दल ने संसद में अपने बहुमत के बल पर 2019 के क़ानूनी संशोधन के जरिये नागरिकता पर एक ऐसा क़ानूनी प्रावधान पेश कर दिया, जो संविधान के बुनियादी विचार और मूल्यों के उलट था। 2003 के क़ानूनी संशोधन के जरिये एनपीआर-एनआरसी के लिए रास्ता पहले ही बनाया जा चुका था। 

इसमें शायद ही किसी को संदेह होगा कि सीएए-एनपीआर-एनआरसी की ‘विधायी-तिकड़ी’ से समाज का बड़ा हिस्सा ही नहीं, पूरा देश बहुत बुरी तरह प्रभावित होगा। जो लोग सत्ता में हैं, वे भी इस बात को समझते हैं। पर उनके लिए जनता पर ढाया जा रहा यह जुल्म एक खास सियासी एजेंडे का हिस्सा है। 

‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने का एजेंडा 

‘द इकोनामिस्ट’ पत्रिका ने तो बड़ी साफगोई से कहा कि नागरिकता का यह क़ानूनी संशोधन सेक्युलर-लोकतांत्रिक भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ में तब्दील करने के मौजूदा सत्ताधारियों के पुराने एजेंडे का हिस्सा है। लेकिन इन क़ानूनी प्रक्रियाओं को अमलीजामा पहनाये जाने की प्रक्रिया में समाज के हर हिस्से पर इसके भयावह परिणाम होंगे! पूरी दुनिया में ऐसी क़ानूनी प्रक्रिया किसी बड़े लोकतांत्रिक मुल्क में आज तक कभी नहीं अपनाई गई है! ऐसे में सीएए-एनपीआर-एनआरसी विरोधी जन-प्रतिरोध की प्रासंगिकता और वैधता को समझा जा सकता है।

हिस्सेदारी और लोकप्रियता के स्तर पर इस आंदोलन का अभी उतना बड़ा स्वरुप नहीं उभर सका है! असम में यह पहले से व्यापक हिस्सेदारी वाला जन-आंदोलन बना हुआ है! इसका असर केरल से पंजाब और दिल्ली से बिहार, हर जगह है, पर समाज के विभिन्न हिस्सों की भागीदारी के स्तर पर इसकी व्यापकता और गहराई अभी तक जैसी असम में है, वैसी अन्य राज्यों में नज़र नहीं आती! इसके ठोस कारण भी हैं! 

शासकीय निरंकुशता झेलने को मजबूर 

असम में लोगों ने एनआरसी को होते हुए देख लिया है! तकरीबन छह साल से वे शासकीय निरंकुशता और न्यायिक संवेदनहीनता के मारे हुए हैं! असम में एनआरसी ने 19 लाख से ज्यादा लोगों की नागरिकता को अवैध घोषित किया है या उनमें बड़े हिस्से को संदिग्ध नागरिक की श्रेणी में चिन्हित किया है! इनमें तकरीबन 15 लाख लोग ग़ैर-मुसलिम हैं! ऐसे कुछ लोगों को जेल या डिटेंशन सेंटर में भी रखा गया! डिटेंशन सेंटर की यातना और कष्ट से अब तक 29 लोगों की मौत की खबर है! 

भारत के अन्य हिस्सों में असम की तरह ही प्राय: हर समुदाय के ग़रीब, अशिक्षित या ग़ैर-कुलीन लोगों को एनआरसी की प्रक्रिया के बाद अवैध/संदिग्ध घोषित किया जाना है!

ग़ैर-कुलीन इसलिए कि एनपीआर-एनआरसी की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा मुश्किलें ग़रीबों और दलित-आदिवासी-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों को ही आयेंगी। ये ग़रीब लोग अपने पिता-माता की जन्म-तिथि, जन्म स्थान को साबित करने वाले साक्ष्य कहां से लायेंगे? इनमें करोड़ों तो भूमिहीन मजदूर होंगे। इनके पास खेत या जमीन के कागजात ही कहां होंगे! 99 फीसदी से भी ज्यादा ग़रीब लोगों के मां-पिता का जन्म किसी अस्पताल के बजाय घर के किसी कोने में हुआ होगा। फिर वे उनके बर्थ-सर्टिफिकेट के लिए क्या करेंगे? अफसरों-दफ्तरों के चक्कर लगायेंगे या फिर सत्ताधारी नेताओं के शरगणागत होंगे। मैं समझता हूं, इन ग़रीब लोगों के समूह में नागरिकता के साक्ष्य के नाम पर सरकार द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा करने वाले पेपर ज्यादातर के पास नहीं होंगे। 

किसी व्यक्ति के पिता या माता के नाम की स्पेलिंग अगर ग़लत पाई गई तो वह व्यक्ति भी 'संदिग्ध' की श्रेणी में रखा जा सकता है! हम सब जानते हैं कि हिन्दी भाषी क्षेत्र में अशिक्षित या निरक्षर लोगों के परिवार में पहली पीढ़ी से जब कोई बच्चा स्कूल में दाखिला लेता था तो उसके या उसके मां-पिता के नाम और उसकी जन्मतिथि अनिवार्य रूप से गलत-सलत लिख दी जाती थी। इसलिए, इस प्रक्रिया की चपेट में किसी एक या दो धार्मिक समुदाय के लोग ही नहीं आयेंगे, सभी पिछड़े समाजों के ग़रीब भी इसकी जद में होंगे! ये बातें अभी तक आम ग़रीबों तक नहीं पहुंची हैं। 

इन मुश्किलों के बारे में सबसे जागरूक दिख रहा है- अल्पसंख्यक समुदाय। इससे भला कोई कैसे इनकार करेगा कि यह समुदाय हमारे मौजूदा सत्ताधारियों के सर्वाधिक निशाने पर भी रहता है। ऐसे में यह महज संयोग नहीं कि अब तक हिन्दी-भाषी क्षेत्र में नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में हो रहे आंदोलनों में सबसे बड़ी हिस्सेदारी मुसलिम अल्पसंख्यकों की ही है। यह जितना महत्वपूर्ण और प्रेरक है, उतना ही समस्यामूलक भी। 

मनुवादी सोच के हमारे हिन्दुत्ववादी-सत्ताधारी भी यही चाहते हैं कि इस आंदोलन में अल्पसंख्यक ही ज्यादा दिखें ताकि वे इसे समुदाय विशेष का आंदोलन बताकर राजनीतिक स्तर पर इसके विरुद्ध ध्रुवीकरण की राजनीति करें और शासकीय स्तर पर इसे नजरंदाज कर सकें या इसका निर्दयतापूर्वक दमन कर सकें! 

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ऐसे में यह आंदोलन व्यापक हिस्सेदारी के बग़ैर लंबे समय तक नहीं टिक सकता! हिन्दी भाषी क्षेत्र के दलित-आदिवासी-पिछड़ों और सवर्ण समुदाय के ग़रीबों को इस बारे में असम, केरल या बंगाल के लोगों की तरह इस चुनौती को समझने की जरूरत है। 

बहुत संभव है कि इन क़ानूनी प्रावधानों का कुछ समुदायों पर सीधा और सर्वाधिक ख़तरा हो, पर यह ख़तरा एक ही जगह या एक ही समुदाय तक सीमित नहीं रहने वाला है! अगर समस्या व्यापक है तो उस पर सवाल उठाने की प्रक्रिया भी व्यापक होनी चाहिए। वैसे भी यह किसी एक राजनीतिक दल के विरुद्ध या उसके समर्थन की गोलबंदी नहीं है। यह भारत के संविधान, हर भारतीय की नागरिकता और समाज की सुख-शांति बचाने का प्रश्न है! 

पश्चिम बंगाल में बीजेपी के उपाध्यक्ष और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भतीजे चंद्रा बोस जैसे लोग भी इस क़ानून को देश और समाज के लिए ग़ैर-ज़रूरी, अलोकतांत्रिक और तकलीफदेह बताकर इस पर सवाल उठा रहे हैं।

दिल्ली और आसपास के इलाक़ों पर गौर करें तो पायेंगे कि सिविल सोसायटी, कुछ सक्रिय बुद्धिजीवियों, वाम और सेक्युलर सोच के लोगों के अलावा इसमें अभी तक दलित-ओबीसी और उच्च जाति के ग़रीब लोगों की बड़े स्तर की हिस्सेदारी नहीं हो पाई है! शाहीन बाग़ सहित अन्य सभी स्थानों के बारे में यह बात भरोसे के साथ कही जा सकती है!  मुझे लगता है, इस आंदोलन की यह सबसे बड़ी कमजोरी है! इसकी शक्ति, सृजनात्मकता और अन्य सकारात्मकताओं पर हम पहले ही लिख और बोल चुके हैं! 

आंदोलन को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश

इस बीच, आंदोलन में कुछ अप्रिय और नकारात्मक पहलू भी नजर आये हैं! हाल ही में सोशल मीडिया पर अचानक एक वीडियो वायरल हुआ। स्वाभाविक रूप से बीजेपी और उसकी अगुवाई वाली राज्य सरकारों ने इस पर काफ़ी जबर्दस्त हौं-हौं मचाया! यह वीडियो किसी शरजील इमाम नाम के युवक के एक भाषण का है! बताया जाता है कि उक्त युवक ने कुछ समय पहले यह विवादास्पद भाषण अलीगढ़ में दिया था। वीडियो में शरजील को तमाम किस्म की वाहियात, समाज-विरोधी और जनविरोधी बातें करते हुए सुना जा सकता है! कहना न होगा कि उस जैसे युवक ने अपनी वाहियात और संकीर्ण-सोच आधारित बयानों से सिर्फ अपने समुदाय को ही नहीं, इस जन‌-प्रतिरोध को भी गंभीर नुक़सान पहुंचाने की कोशिश की है! कुछ निहित-स्वार्थी तत्वों ने उक्त विवादास्पद भाषण को शाहीन बाग से भी जोड़ने की कोशिश की। पर अब आधिकारिक तौर पर यह चिन्हित हो चुका है कि वीडियो शाहीन बाग़ का नहीं, अलीगढ़ का है। 

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अलीगढ़ के मुसलिम संगठनों ने भी शरजील की बातों को सिरे से खारिज किया है। यह और भी अच्छी बात है कि शाहीन बाग़ के धरनास्थल से जारी एक बयान में शरजील के तंग-नज़र और फालतू बयान को सिरे से खारिज़ किया गया है! शाहीन बाग़ के लोगों का यह प्रशंसनीय कदम है! उनके प्रतिरोध का एक और पक्ष भी उल्लेखनीय है, जिसकी चर्चा मुख्यधारा की मीडिया में बिल्कुल नहीं हुई। शाहीन बाग़ के धरने पर बैठने वाली महिलाओं में अल्पसंख्यक समुदाय के पसमांदा या पिछड़े समाजों की महिलाओं की शिरकत जबर्दस्त है। ऐसी तमाम महिलाएं सीएए-एनपीआर-एनआरसी के बारे में अच्छी तरह जानती-समझती भी हैं। 

मुसलिम समुदाय के पिछड़े हिस्सों की ज्यादातर महिलाओं ने अपने घर की चौखट से बाहर आकर संभवतः पहली बार अपने स्वतंत्र वजूद का एहसास किया है और लोगों की नागरिकता को मुश्किल में डालती आततायी सत्ता के समक्ष अपनी मांगों के पक्ष में नारे लगाये हैं। यह सब शाहीन बाग़ का शानदार और चमकदार पक्ष है। 

पर मुझे एक बात अब भी समझ में नहीं आ रही है कि शाहीन बाग़ में ग़ैर-मुसलिम दलित या बहुजन का बड़ा हिस्सा अभी तक अगर शामिल नहीं हो पाया है तो इसे लेकर आंदोलन के संगठकों-समर्थकों या लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधर सिविल सोसायटी के माथे पर चिंता की लकीरें क्यों नहीं हैं? भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर रावण के प्रतीकात्मक आगमन और भाषण के बावजूद शाहीन बाग़ या आसपास के क्षेत्रों में हो रहे शांतिपूर्ण प्रतिरोध में अन्य उत्पीड़ित हिस्सों की हिस्सेदारी अभी बहुत कम है। सत्ताधारियों के ‘हिन्दुत्व-ध्रुवीकरण’ की काट के लिए ऐसे समाजों की हिस्सेदारी का बढ़ना बहुत ज़रूरी है। क्या इस सत्याग्रह-आंदोलन के संगठक-समर्थक वाकई अपने अभियान को व्यापक बनाने के लिए सचेष्ट हैं? उनके उचित प्रतिरोध के लिए यह उतना ही ज़रूरी है, जितना कि इसका शांतिपूर्ण, अहिंसक और लोकतांत्रिक होना! 

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