उत्तर प्रदेश विधान मंडल का हालिया मानसून सत्र आहूत करना भले ही योगी शासन के लिए संवैधानिक मजबूरी रही हो, लेकिन 'माइक्रो' रूप में इसे निपटाना, बिना बहस और मतदान के चंद घंटों में 28 विधेयकों को ताबड़तोड़ तरीके से पारित करा देना, सदन के भीतर विरोधी दलों के अधिकांश सदस्यों को कुछ भी कहने की अनुमति न देना और न ही अपनी पार्टी के विधायकों को बोलने का मौक़ा देना, प्रेस गैलरी में पत्रकारों की 'एंट्री' को प्रतिबंधित कर देना, इसे राज्य के विधान मंडल इतिहास की ऐसी पहली घटना बना डालता है।
योगी सरकार के ख़िलाफ़ हैं बीजेपी के ही सांसद, विधायक लेकिन बेबस हैं!
- उत्तर प्रदेश
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- 25 Aug, 2020

योगी शासन काल में बीजेपी के जन प्रतिनिधियों का प्रतिरोध-प्रदर्शन कोई नई घटना नहीं है। प्रदेश में बीजेपी सरकार के गठन के समय से ही प्रदेश के काबीना मंत्रियों, विधायकों, सांसदों, जिला पंचायत अध्यक्षों और नगर निगम के पार्षदों के भीतर यह भावना घर कर गई है कि योगी राज के अधिकारियों में जनप्रतिनिधियों द्वारा लाई गई शिकायतों की कोई सुनवाई नहीं होती। इसके लिए वह किसी और को नहीं, स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं।
अधिकृत रूप से यद्यपि इस हड़बड़ी को कोरोना भय से जनित बता कर प्रचारित किया गया लेकिन प्रदेश की राजनीति के जानकार भय के मूल में मुख्यमंत्री और उनके निज़ाम के विरुद्ध पार्टी के भीतर तेज़ी से उभरते विद्रोही स्वरों को मानते हैं।