दुनिया में कई ऐसी छोटी-छोटी भाषाएं हैं जो विलुप्त होने के कगार पर हैं। हो सकता है कि अगले कुछ वर्षों में उनको बोलनेवाला कोई न बचे। क्या ऐसी भाषा या भाषाओं को मृत होने से बचाया जा सकता है? जटिल सवाल है और उत्तर मुश्किल क्योंकि ये काम आसान नहीं है। फिर भी अगर किसी भाषा को बचाना है तो कोई लेखक ये राह चुन सकता है कि उस भाषा में वो खुद लिखे। शायद इससे उस भाषा की उम्र लंबी हो जाए।
विलुप्त होती भाषा में एक नाटक
- विविध
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- 24 Nov, 2024

रूस की लेखिका जरीना कनुकोवा के चार नाटकों का संग्रह `दास्तान ए दिल’ नाम से हिंदी में अनुदित होकर आया है। इसी संग्रह के एक नाटक `बात पुराने जमाने की है और हमेशा’ का मंचन पिछले हफ्ते दिल्ली के रूसी सांस्कृतिक केंद्र में हुआ।
रूस की लेखिका जरीना कनुकोवा ऐसा कर रही है। वे रूस की रहनेवाली हैं पर उनकी मातृभाषा कार्बादीन- चेरकास है जिसे आदिगाब्जा भी कहा जाता है। ये रूस के काकेशस इलाके में बोली जाती है। कनुकोवा रूसी भी जानती हैं। वे लिखती हैं– एक दिन मुझे पता चला कि मेरी मातृभाषा लुप्तप्राय भाषाओं में एक है। मुझे आश्चर्य हुआ कि ये कैसे संभव है? इतनी सुंदर भाषा कैसे लुप्त हो सकती है। ...एक व्यक्ति इसका विरोध नहीं कर सकता लेकिन एक लेखक किसी भाषा के जीवन को बढ़ा सकता है यदि उसका लेखन पुरानी और युवा – दोनों पीढ़ियों के लिए रुचिकर हो। इसलिए मैं अपनी मातृभाषा में लिखती हूं और विभिन्न विधाओ में लिखती हूं। …मैं इन कृतियों का रूसी में अनुवाद भी करती हूं।‘
इन्हीं कनुकोवा के चार नाटकों का संग्रह `दास्तान ए दिल’ नाम से हिंदी में अनुदित होकर आया है (कल्पतरू प्रकाशन से जो संभावना प्रकाशन का हिस्सा है)। अनुवादक हैं वेद कुमार शर्मा जो रूसी से बेहतर हिंदी अनुवाद करने वालों में कई साल पहले अपनी जगह बना चुके हैं। इसी संग्रह के एक नाटक `बात पुराने जमाने की है और हमेशा’ का मंचन पिछले हफ्ते दिल्ली के रूसी सांस्कृतिक केंद्र में हुआ। निर्देशक थे `जय रंगमंच’ नाट्य दल के रमेश खन्ना।