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संवैधानिकता या गणतांत्रिकता पर ठहर कर सोचने की ज़रूरत

क्या संविधान किसी एक भू-भाग पर किसी जनसमुदाय के प्रभुत्व का दस्तावेज़ है? क्या यह विविध विचारों, मान्यताओं, मतों, जीवन शैलियों के लोगों के साथ रहने की इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं है? इन सत्तर सालों में क्या हर दूसरा अपने दूसरे को पहचान पाया है? क्या संविधान के सत्तरवें साल में एक बार इस पर ठहर कर सोचने की आवश्यकता नहीं है?
अपूर्वानंद

पिछले चार वर्षों से हर गणतंत्र दिवस पर मुझे कोई दस साल पहले के गुजरात की याद आती रही है। 2010 भारतीय संविधान के साठ साल पूरे होने का साल था। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इसका उत्सव मनाने के लिए सौराष्ट्र के इलाक़े में 'संविधान सम्मान यात्रा' का आयोजन किया। हाथी पर संविधान की विशालकाय अनुकृति रखकर उसका जुलूस निकाला गया। यही नहीं, 36 सौ स्त्रियाँ अपने माथे पर कलश के ऊपर संविधान की अनुकृतियाँ लेकर जुलूस की शोभा बढ़ा रही थीं।

जिस हाथी पर संविधान की नक़ल रखी गई थी, वह भी कोई मर्त्य प्राणी न था, उसे हाथी न कहकर ऐरावत कहा गया था। जुलूस के बाद पवित्र ग्रन्थ की पूजा-अर्चना का कार्यक्रम सुरेंद्रनगर के टाउनहॉल में था। 

'टेलीग्राफ़' अख़बार ने बताया कि हिंदू धार्मिक प्रतीकों और मंत्रोच्चार के बीच यह यात्रा संपन्न हुई। यात्रा के प्रवर्तक, तब के गुजरात के मुख्यमंत्री ने संतोष और हर्षपूर्वक कहा, 'आंबेडकर की आत्मा अवश्य ही इस विलक्षण यात्रा के लिए हमें आशीर्वाद दे रही होगी।'

'टेलीग्राफ़' ने इस कार्यक्रम की प्रतीक योजना और आंबेडकर के विचारों के बीच के अंतर को लक्ष्य करते हुए इसमें छिपी विडंबना की ओर ध्यान दिलाया। बाबा साहब ने हिंदू धर्म आख़िरकार छोड़ दिया था और आत्मा जैसी किसी वस्तु या विचार में निश्चय ही उनकी आस्था न थी। लेकिन ऐसे बारीक फ़र्क़ पर सामान्य जन ध्यान नहीं देते, यह उस मजमेबाज़ को पता था जिसने यह स्वांग रचाया था।

स्वयंसेवक के लिए संविधान पूज्य-पवित्र ग्रन्थ कैसे!

कई लोगों को आश्चर्य हुआ कि एक स्वयंसेवक ने संविधान को पूज्य और पवित्र ग्रन्थ क्योंकर घोषित किया। कुछ लोगों ने कहा कि वह नेता अपने ऊपर 2002 के मुसलमानों के क़त्लेआम के दाग़ धोने के लिए ऐसा कर रहे हैं। लेकिन उसे तो कभी दाग़ माना ही नहीं गया, न उसे लेकर किसी प्रकार का संकोच कभी उस नेता में दिखलाई पड़ा था। एक व्याख्या यह थी कि यात्रा के पहले सौराष्ट्र में दलितों के ऊपर अत्याचार की कई घटनाएँ हो चुकी थीं। 

  • बार-बार यह कहा जाता रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस संविधान को भारतीय आत्मा के अनुरूप नहीं मानता। आशंका ज़ाहिर की जाती रही है कि पूर्ण बहुमत आने पर भारतीय जनता पार्टी संविधान को बदल देगी या ख़ारिज कर देगी।

संविधान बदलने की कोशिश

लोग नहीं भूले हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने संविधान की समीक्षा करके बदलने की कोशिश की थी। सवाल यह है कि पिछले समय के मुक़ाबले अधिक ताक़त होने पर भी क्यों इस बार संविधान की समीक्षा का कोई प्रयास नहीं किया गया। इसका उत्तर 2010 की गुजरात की ऐरावत पर 'संविधान सम्मान यात्रा' में है। वह है संविधान को एक धार्मिक, पवित्र दर्जा देकर पूजनीय बना दिया जाए और इस तरह उसे रोज़मर्रापन के धूल-धक्कड़ से दूर कर देना।

  • एक और तसवीर तक़रीबन भूली जा चुकी है। वह है मई 2014 में  संसद में प्रवेश करते समय उसकी सीढ़ियों पर मत्था टेककर उसके प्रति श्रद्धा-निवेदन करते हुए प्रधानमंत्री की छवि। इसे देखकर अनेक लोग भावुक हो उठे थे।
इस वाह-वाह के बीच मेरे एक चिर-शंकालु मित्र ने कहा, 'न भूलिए एक और शख्स की तसवीर, जो पहले झुका नमस्कार के लिए और फिर जिसने अपना सिर सीधा करके उस पूज्य को गोली मार दी।'

संविधान को बिना बदले अप्रासंगिक बनाया जा सकता है। और यह जनता के नाम पर या जनतंत्र के नाम ही पर किया जा सकता है। जनतंत्र को बहुमत का शासन कहा जाता है, जोकि वह है। लेकिन इसे बहुमत की निरंकुशता में बदल जाने से सिर्फ़ संविधान ही रोक सकता है। गणतांत्रिक या संवैधानिक और जनतांत्रिक के बीच हमेशा ही एक तनाव बना रहता है। जनतंत्र को याद दिलाना पड़ता है कि वह बँधा हुआ है उन मूल्यों से जो संविधान में दर्ज़ किए गए हैं। संविधान अपने पहले सिद्धांतों या उद्देश्यों को निगाह में रखकर अपनी यात्रा जारी रखता है।

  • आश्चर्य नहीं है कि इन पहले मूल्यों या उद्देश्यों को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने प्रस्तावित किया और गाँधी ने उन्हें दिल्ली से दूर रहते भी कहा कि इनसे क़तई समझौता न करना।

इस प्रस्ताव को पेश करते वक़्त नेहरू के वक्तव्य में ज़िम्मेदारी का जो अहसास था, उसे याद रखना चाहिए। उन्होंने शुरू में ही कहा कि यह संविधान सभा जैसी हम चाहते थे, वैसी नहीं। आगे उन्होंने कहा कि बहुत से लोग अनुपस्थित हैं। 'बहुत से सदस्य जिन्हें यहाँ आने और अपना मत रखने का अधिकार है, आज यहाँ नहीं हैं। एक मायने में इससे हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। हमें सावधान रहना होगा कि हम कुछ ऐसा न करें जिससे दूसरों में बेचैनी पैदा हो या जो किसी उसूल के ख़िलाफ़ जाए।'

तानाशाही की आशंका

संविधान सभा के सदस्यों को अपने अधूरेपन का अहसास तो था ही, इसका बोध भी था कि एक ऐतिहासिक संयोग से वे इस भारी दायित्व का वहन करने के लिए वहाँ हैं। इसलिए संविधान सभा की बहस में सदस्यों में आश्चर्यजनक विनम्रता दिखलाई पड़ती है। उन्हें इसे लेकर कोई शक नहीं था कि यह गणतंत्र जनतांत्रिक होगा लेकिन यह आशंका भी थी कि जनतंत्र यदि गणतांत्रिक मूल्यों की प्राथमिकता को लेकर सजग नहीं रहा तो उसके तानाशाही में बदलने में देर नहीं लगेगी। 

आंबेडकर ने जॉन स्टुअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए सावधान किया कि अगर आप अपनी स्वतंत्रता किसी, महान ही क्यों न सही, व्यक्ति के चरणों में रख देते हैं तो और उसे इतनी ताक़त दे देते हैं कि वह संस्थाओं को ध्वस्त कर दे तो जनतंत्र का बचा रहना मुश्किल होगा।

हम अपने प्राथमिक उद्देश्यों को लेकर गंभीर हैं या नहीं? वह हमारा प्रस्थान बिंदु है। या उन्हें लेकर हमारी लापरवाही इतनी है कि उन्हें बहुमत के नाम पर बदला या विकृत किया जा सकता है? मसलन, जब कोई किसी नारे को लगाने या न लगाने से इस देश और समाज में हमारी जगह निश्चित करता है, तो वह गणतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ कर रहा है। या, जब यह कहा जाता है कि एक निश्चित शैक्षिक स्तर के लोग ही जन-प्रतिनधि बन सकते हैं तो सार्वभौम वयस्क मताधिकार के सिद्धाँत का साफ़ उल्लंघन किया जाता है। लेकिन यह पिछले दिनों कई विधानसभाओं ने किया और हमें बुरा नहीं लगा। 

संविधान क्या है?

संविधान के सत्तरवें साल में एक बार संवैधानिकता या गणतांत्रिकता पर ठहर कर सोचने की आवश्यकता है। यह समझने की कि यह, दरअसल, किसी एक भू-भाग पर किसी जनसमुदाय के प्रभुत्व का दस्तावेज़ नहीं है बल्कि यह विविध विचारों, मान्यताओं, मतों, जीवन शैलियों के लोगों के साथ रहने की इच्छा की अभिव्यक्ति है। इन सत्तर सालों में क्या हर दूसरा अपने दूसरे को पहचान पाया है? इस रिश्ते की चाह बनी हुई है या वह दूसरे पर क़ब्ज़े या नियंत्रण में क्षरित हो गई है?

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