Vande Mataram Controversy: वंदे मातरम की 150वीं वर्षगांठ मनाने की मंशा के पीछे सरकार का कुटिल इरादा साफ नज़र आ रहा है। इसे समाज को ध्रुवीकृत करने के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश हो रही है। चिंतक और स्तंभकार अपूर्वानंद की टिप्पणीः
लोकप्रिय गीत वंदे मातरम को चुनाव में हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
कोई भी भली सरकार यही चाहती है कि देश या राज्य में कोई विवाद न हो; समाज में टकराव न हो, अमन-चैन बना रहे। लेकिन कुछ सरकारें ऐसी होती हैं जो ख़ुद विवाद पैदा करती रहती हैं और रोज़ाना कुछ कुछ ऐसा करती हैं जिससे समाज में कड़वाहट पैदा हो, बेचैनी बढ़े। भारत का दुर्भाग्य है कि यहाँ पिछले 12 सालों से ऐसी ही विवादप्रिय और विभाजनकारी सरकार राज कर रही है। अभी पिछले हफ़्ते भारत सरकार ने और भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य सरकारों ने ‘वंदे मातरम’ नामक गीत की 150वीं वर्षगाँठ मनाने का जो फ़ैसला किया है, वह उसकी इसी विभाजनकारी नीति का हिस्सा है।
आश्चर्य नहीं कि ‘वंदे मातरम’ की 150 वीं वर्षगाँठ के मौक़े पर दिए गए प्रधानमंत्री के भाषण के जो शब्द सबसे अधिक रिपोर्ट किए गए और जो याद रह जाएँगे, वे ‘वंदे मातरम’ नहीं, बल्कि ‘टुकड़े’ और 'विभाजन' हैं। कॉंग्रेस पार्टी ने इस गीत के टुकड़े कर दिए और इसी में देश के विभाजन के बीज हैं, यह प्रधानमंत्री ने कहा। अब यह सरकार इस गीत के छूटे हुए टुकड़े को वापस इसके उन दो छंदों में जोड़कर पूरा प्रचारित करेगी जो लगभग एक सदी से गाए जाते रहे हैं। इस तरह वह इस गीत के साथ हुए अन्याय का उपचार करेगी। इस तरह वह भारत की अखंडता को भी बहाल करेगी।
प्रधानमंत्री अर्धसत्य का सहारा ले रहे थे जिसे झूठ से भी ख़तरनाक माना जाता है। उन्होंने कहा कि 1937 में कॉंग्रेस पार्टी ने इस गीत के टुकड़े कर दिए और मात्र आरंभिक दो छंदों को सार्वजनिक रूप से गाए जाने का प्रस्ताव किया। उनके साथ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने कहना शुरू कर दिया कि इसके लिए जवाहरलाल नेहरू ज़िम्मेवार थे। जो बात उन्होंने छिपा ली कि यह प्रस्ताव एक समिति की तरफ़ से आया था जिसमें नेहरू के अलावा सुभाषचंद्र बोस, अबुल कलाम आज़ाद और नरेंद्र देव शामिल थे। इस समिति के निर्णय को महात्मा गाँधी ने प्रस्ताव की शक्ल में रखा और फिर इसे कॉंग्रेस पार्टी ने स्वीकार किया।
गीत के जिन अंशों को छोड़ने पर सब सहमत हुए, उनमें शस्त्रधारिणी देवी की आराधना है। इस रूप में भारत की कल्पना को स्वीकार करना मुसलमानों के लिए असंभव था। उसका एक कारण तो मूर्त्ति पूजा में उनका विश्वास न होना है, दूसरा इस गीत की पृष्ठभूमि भी है। उसे जाने बिना यह समझना कठिन है कि क्यों मुसलमान इस गीत को नहीं गा सकते। बल्कि इस गीत की पहली पंक्ति भी उनके लिए अस्वीकार्य है। हम बहुत संक्षेप में इसे समझने की कोशिश करेंगे।
‘वंदे मातरम्’ के इतिहास और भारत की आज़ादी के आंदोलन में इसकी भूमिका और इसके इस्तेमाल पर विशद शोध हुआ है। सब्यसाची भट्टाचार्य, तनिका सरकार, सुगतो बोस के अलावा दर्जनों अध्येताओं ने इस गीत की असाधारण लोकप्रियता को समझने की कोशिश की है। बांग्ला भाषा में तो इस पर दर्जनों लोगों ने काम किया है। उन्होंने इसकी वजह भी जानना चाही है कि क्यों यह गीत मुसलमानों को असुविधाजनक लगता रहा है।
बांग्ला के बड़े लेखकों में एक बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा आज से 150 साल पहले रचित यह गीत उनके उपन्यास ‘आनंद मठ’ का एक अंग है।
यह 19वीं सदी के उत्तरार्ध में लिखा गया लेकिन इसकी पृष्ठभूमि 18वीं सदी के आख़िर में बंगाल का अकाल है। कहने को शासन मुसलमानों का है लेकिन टैक्स अंग्रेज वसूल करते हैं। इस वक्त अकाल पड़ता है और लोग भूखों मरने लगते हैं। इस समय संन्यासी-फ़क़ीर विद्रोह होता है। ये लूटमार करते हैं और लोगों की मदद करते हैं। लेकिन उपन्यास में फ़क़ीरों को ग़ायब कर दिया गया है और मात्र संन्यासी ही लोगों के साथ खड़े नज़र आते हैं।अकाल के बहाने मुसलमानों के विनाश के लिए संन्यासी युद्ध करते हैं। यह युद्ध सिर्फ़ मुसलमान शासक के ख़िलाफ़ नहीं, सारे मुसलमानों के संपूर्ण विध्वंस के लिए है।
इसमें जिस देश माता की वंदना की गई हैं, वह दुर्गा के रूप में हैं। उनसे आशीर्वाद लेकर संतानगण जिनका संहार करते हैं, वे मुसलमान हैं।लेकिन अंग्रेज मुसलमान शासकों की तरफ़ से लड़ रहे हैं। संन्यासी या संतान अंग्रेजों को कहते हैं कि वे बीच में न पड़ें क्योंकि वे मुसलमानों को ख़त्म करना चाहते हैं और अंग्रेजों से उनका कोई बैर नहीं है। मुसलमानों को ख़त्म कर देने के बाद संतान हिंदू राष्ट्र स्थापित करना चाहते हैं।
लेकिन उन्हें एक अज्ञात दैवी शक्ति प्रबोधित करती है कि मुसलमानों के पतन के साथ ही उनका काम पूरा हो गया है। अब यह दैवी इच्छा है कि अंग्रेज बंगाल पर शासन करेंगे। इस युद्ध का असली उद्देश्य यही था कि मुसलमानों को हटाकर अंग्रेज खुद सीधा शासन संभालें।
इस दैवी आदेश से संतान सहमत नहीं हो पता। लेकिन वह उसे समझाती है कि यह सब ईश्वरीय विधान है। उसे समझना चाहिए कि युद्ध का मक़सद मुसलमानों का विनाश था। अंग्रेजों से विरोध नहीं होना चाहिए क्योंकि वे हिंदू धर्म का सम्मान करेंगे। उनके राज में सनातन धर्म और मजबूत होगा। अंग्रेजों की मदद से हिंदू वे भौतिक जगत का ज्ञान प्राप्त कर पाएँगे और इससे उनकी आध्यात्मिक शक्ति में और वृद्धि ही होगी। इसलिए अंग्रेज़ी राज में उनके दिशानिर्देश में हिंदू अपने धर्म को और अच्छी तरह समझ पाएँगे। इसलिए अंग्रेज़ी राज आवश्यक है। अंग्रेज़ी राज में रहकर उनकी मदद से वे ताकतवर हो जाएँगे और तब आगे समय आएगा जब वे हिंदू राज स्थापित कर सकेंगे।
इस पर बहुत बहस हुई है कि क्या उपन्यास की देशभक्ति में मुसलमान विरोध अनिवार्य रूप से शामिल है। इसे पढ़ने के बाद इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता। इसे पढ़ने के बाद किसी मुसलमान के लिए इस गीत को गाना तो दूर ‘वंदे मातरम’ बोलना भी असंभव है क्योंकि रचना में यह मुसलमानों के विनाश के लिए जोश भरने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। जिस भारत माता को स्वतंत्र किया जाना है, वह मुसलमान मुक्त भारत है।
लेकिन इस नारे को हिंदू क्रांतिकारियों और स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हिंदुओं ने अपना लिया। उन्होंने मुसलमानों को भावना की उपेक्षा की, यह तो साफ़ ही है। तनिका सरकार लिखती हैं कि इसके पर्याप्त साक्ष्य हैं कि कई क्रांतिकारी समूहों में शामिल होने के लिए ‘वंदे मातरम’ बोलना अनिवार्य था। इस वजह से मुसलमान चाहकर भी उन समूहों में शामिल नहीं हो पाते थे क्योंकि वे ‘वंदे मातरम’ नहीं बोल सकते थे। इस प्रकार यह गीत एक सामूहिक भारतीय राष्ट्रीयता के रास्ते में एक बाधा ही था।
यह आश्चर्य की बात है कि मुसलमानों के प्रति सहानुभूति के बावजूद गाँधी और नेहरू को भी इस नारे और गीत में राष्ट्रभक्ति ही नज़र आती रही जबतक कि मुसलमानों ने इसपर ध्यान देने का आग्रह उनसे नहीं किया।
राष्ट्रवादी संकीर्णता से मुक्त टैगोर जैसे सावधान व्यक्ति को इसे संगीतबद्ध करने और गाने में उलझन नहीं हुई। लेकिन जब मुसलमानों ने बतलाया कि क्यों उन्हें इस गीत से परेशानी है, तब उन्होंने समझा कि उनकी आपत्ति का आधार है। बीच का रास्ता निकालते हुए उन्होंने गीत के पहले दो अशों को अपनाने के लिए कहा। इनमें देश की कल्पना प्रकृति के रूप में की गई है। नेहरू ने इसी समय उपन्यास पढ़ा और क़बूल किया कि इससे मुसलमानों को दिक्कत हो सकती है। सुभाष और नरेंद्र देव और आज़ाद भी इससे सहमत थे।
आज हमें इस पर ताज्जुब करना चाहिए कि क्यों इस गीत को आंशिक रूप में भी स्वीकार किया गया।आख़िर मुसलमान विरोधी उपन्यास के एक अंश को राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में क्यों स्वीकार किया जाना चाहिए और क्यों मुसलमानों से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इसे क़बूल करें? बल्कि यह भी पूछा जा सकता है कि आख़िर हिंदू भी किसी ऐसे गीत को कैसे गा सकते हैं जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा की अभिव्यक्ति का अंश है।
फिर भी ‘वंदे मातरम्’ को भारत के राष्ट्र गीत के बराबर जगह दी गई। यह एक प्रकार हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी भावना का तुष्टीकरण था।क़ायदे से इस गीत को, किसी भी रूप में, धर्मनिरपेक्ष भारत में राजकीय वैधता नहीं दी जानी चाहिए थी। लेकिन वह किया गया।
1937 में जब निर्णय लिया गया तब के संदर्भ में शायद इसकी बाध्यता समझी जा सकती है। हिंदू राष्ट्रवाद और मुसलमान राष्ट्रवाद से मुक़ाबला करते हुए कॉंग्रेस पार्टी बीच का रास्ता निकालना चाहती थी। सवाल मुसलमानों की आपत्ति के बाद एक हिस्सा हटाने को लेकर नहीं होना चाहिए। सवाल तो यह होना चाहिए कि इस गीत के प्रति इतना लगाव धर्मनिरपेक्ष लोगों को कैसे हो सकता था। लेकिन हम यह सवाल नहीं कर रहे।
यह सवाल मुश्किल है। पार्थ चटर्जी ने लिखा है कि इस गीत को लेकर वामपंथी भी उलझन में पड़े रहे । बंगाल में जब कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया तो वामपंथियों ने इस पर कोई साफ़ रुख़ नहीं लिया। तो मामला मुसलमान भावनाओं का नहीं हिंदुत्ववादी भावनाओं को सहलाने का है।
आज यह हम सबको मालूम है कि भाजपा सरकार ‘वंदे मातरम’ का अभियान इस गीत से प्रेम या इसके प्रति आदर के कारण नहीं कर रही।’वंदे मातरम’ की यात्रा कुछ ऐसी रही है कि यह जितना भारत की अभ्यर्थना का नहीं, उतना हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद का नारा या युद्ध घोष बन गया है। जो लोग इस गीत का एक वाक्य भी क़ायदे से गा नहीं सकते, वे ‘भारत में रहना है तो 'वंदे मातरम' कहना होगा' का नारा लगाकर मुसलमानों पर हमला ज़रूर करते रहे हैं।
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‘वंदे मातरम’ प्रार्थना से अधिक हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद का कोड़ा बन गया है। हमारे पूर्वज इसे लेकर जिस वजह से भी हिचकिचाहट में पड़े हों, हमें क्यों किसी तरह की उलझन होनी चाहिए? क्यों हम यह नहीं कह सकते कि भारत में रहने के लिए कोई भी राष्ट्रवादी शर्त नहीं लगाई जा सकती। भारत से मेरे लगाव की परीक्षा लेने का किसी को कोई अधिकार नहीं और इस तरह की कोई परीक्षा हो भी नहीं सकती।