Delhi Riots 2020 Investigation: दिल्ली दंगों से जुड़े 93 बरी मामलों में से 17 में अदालतों ने पुलिस की जांच पर सवाल उठाए। फर्जी गवाह, गढ़े हुए सबूत और मानवाधिकारों के उल्लंघन पर अदालतों ने सख्त टिप्पणियां की हैं।
दिल्ली दंगा 2020ः फाइल फोटो
2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों से जुड़े मामलो में अदालतों ने पुलिस द्वारा की गई जांच की व्यावहारिकता और विश्वसनीयता पर गंभीर आरोप लगाए हैं। द इंडियन एक्सप्रेस की एक जांच से पता चलता है कि जिन मामलों में अब तक 116 मुकदमे चले हैं, उनमें से 97 मामले में आरोपी बरी हो चुके हैं और 19 में दोषी ठहराए गए हैं। लेकिन पुलिस ने कई केसों में फर्जी सबूतों का सहारा लिया है।
जिन 93 बरी किए गए मामलों के रिकॉर्ड उपलब्ध हैं, उनमें कम-से-कम 17 मामलों में अदालतों ने पुलिस की जांच प्रक्रिया में “फेब्रिकेटेड” (फर्जी या बनावटी) सबूतों या “आर्टिफिशियल” गवाहों के इस्तेमाल की पुष्टि की है।
दिल्ली दंगा 2020 नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुआ था। फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों, विशेष रूप से जाफराबाद, मौजपुर, और शिव विहार में, सीएए समर्थकों और बीजेपी-आरएसएस कार्यकर्ताओं के बीच तनाव बढ़ गया। विरोध प्रदर्शन शुरू में शांतिपूर्ण थे। शाहीनबाग में चल रहे महिलाओं के आंदोलन पर दो बार हमला हुआ। दिल्ली के दूसरे इलाकों में स्थिति हिंसक हो गई, सांप्रदायिक झड़पें हुईं। इन दंगों में 53 लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों घायल हुए। जिसमें अधिकतर मुस्लिम समुदाय के लोग थे। पुलिस की कार्रवाई और बीजेपी नेताओं की बयानबाजी ने स्थिति को और भड़काने में भूमिका निभाई।
रिपोर्ट के अनुसार, 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों में कुल 2,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें सैकड़ों अभियुक्तों को बरी किया गया। इनमें से 93 मामलों का विस्तृत अध्ययन करने पर पाया गया कि पुलिस की जांच में कई खामियां थीं, जो अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का हनन करती हैं। जजों ने कई फैसलों में स्पष्ट रूप से कहा है कि सबूतों की यह स्थिति 'न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े करती है' और 'पुलिस की विश्वसनीयता को प्रभावित करती है'।
दिल्ली दंगे की जांच में क्या क्या खुलासा हुआ
नीचे कुछ मुख्य प्वाइंट्स हैं जो अदालतों ने अपने फैसलों में सामने रखे हैंः
फर्जी गवाह:
कम से कम 12 मामलों में अदालत ने कहा कि गवाह वास्तविक नहीं थे। गवाहों को ऐसे बयान देने को कहा गया कि वे आरोपी की पहचान कर सकें। यह सब फर्जी है। उदाहरण के लिए, एक मामले में अदालत ने कहा कि “मोहम्मद असलम” नामक गवाह की असली पहचान ही संदिग्ध है, हो सकता है वह व्यक्ति अस्तित्व में ही न हो। लेकिन पुलिस ने इसकी गवाही को जगह-जगह पेश किया।
गवाहों के बयान पुलिस के आदेश” पर लिखे गए:
कुछ मामलों में गवाहों ने कहा कि उनके बयान खुद नहीं लिखे गए, बल्कि पुलिस ने उन पर दबाव डालकर या निर्देश देकर लिखवाए।
तथ्यों में “अतिरिक्त तथ्य” जोड़नाः जांच अधिकारी (IO) ने गवाहों के बयानों में कथित तौर पर अतिरिक्त घटनाएँ या विवरण जोड़े, जो क़ानूनी तौर पर समस्या पैदा करते हैं क्योंकि उनसे मामला मजबूत दिखाने की कोशिश की गई, न कि सच्चाई जानने की।
गवाहों की पहचान पर सवालः कई मामलों में पुलिस ने TIP (गवाहों की परेड) नहीं करवाया। ऐसा न होने पर अदालत ने यह नतीजा निकाला कि पुलिस को पता था कि मामला गढ़ा हुआ है या पहचान सही नहीं होगी।
पुलिस कॉन्स्टेबल का बयना: कई मामलों में एक कांस्टेबल ने यह दावा किया कि उसने आरोपी को घटना स्थल पर देखा, लेकिन अदालत ने यह दावा विश्वसनीय नहीं पाया। अदालत ने ऐसे दावों को “फर्जी दावे” की श्रेणी में रखा।
पहचान की प्रक्रिया पर संदेह: पहचान की विश्वसनीयता, गवाहों के बयान और उनकी उपलब्धता, समय और स्थान से संबंधित पहलुओं में अदालतों ने पर्याप्त संदेह व्यक्त किया है।
केस डायरी में गड़बड़ी: कुछ मामलों में यह कहा गया कि केवल यह दिखने के लिए मुकदमे दायर किए गए कि पुलिस ने कार्रवाई की है, न कि दोष सिद्धि की प्रबल आशा में। जांच अधिकारी ने केस डायरी आदि में गड़बड़ी की है।
न्यू उस्मानपुर थाने का मामला
एक मामले में छह आरोपियों को बरी करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश परवीण सिंह ने कहा कि "जांच अधिकारी द्वारा सबूतों में ज़बरदस्त पैडिंग हुई है। जिसके कारण आरोपी के अधिकारों का गंभीर उल्लंघन हुआ है।" अदालत ने कहा कि मामले को शायद सिर्फ इस लिए चार्जशीट किया गया था कि यह दिख सके कि पुलिस ने “केस वर्कआउट किया है”।
ख़जूरी खास थाने का मामला
अदालत में सुनवाई के क्रम में पाया गया कि सरकारी पक्ष की ओर से शिकायतकर्ता के हवाले से दावा किया गया है कि उसने आरोपी को अपराध करते हुए पहचान लिया था। लेकिन गवाह या शिकायतकर्ता के सामने आरोपियों की TIP यानी पहचान परेड नहीं कराई गई। यह बहुत संभव है कि पहचान गलत हो, क्योंकि पुलिस को पहले से ही पता था कि उसने “मामला फर्जी बनाया है।”
दिल्ली दंगेः कोर्ट के फैक्ट्स
दिल्ली दंगाः किस थाने में कितने मामले
• दयाल थाना: 5 मामले
• खजूरी खास थाना: 4 मामले
• गोकलपुरी थाना: 4 मामले
• Jyoti Nagar, Bhajanpura, Jafrabad, New Usmanpur थानेः एक-एक मामला
न्यायालयों ने रिपोर्टों में ये भी कहा है कि ऐसे मामले जहाँ सबूतों के नाम पर “पैडिंग” की गई हो, मुकदमे सिर्फ इस मकसद से दर्ज किए गए कि पुलिस या प्रशासन यह दिखा सके कि उन्होंने कार्रवाई की है। सच्चाई सामने लाने के लिए ऐसा नहीं किया गया है। अदालत यह मान रही है कि इस तरह की कामकाज से आम जनता का पुलिस और न्याय प्रक्रिया में विश्वास घटेगा, और मूलभूत अधिकारों का हनन होगा।
यह जांच यह संकेत देती है कि 2020 के दिल्ली दंगों से जुड़े मुकदमों में सिर्फ घटना का हिसाब ही नहीं हो रहा है, बल्कि सरकारी पक्ष और पुलिस की जांच प्रक्रिया की विश्वसनीयता, पारदर्शिता कई मामलों में कमज़ोर है। अदालतों ने कई उदाहरणों में यह पाया है कि गवाहों, चार्जशीटिंग और पहचान की प्रक्रिया में ऐसी खामियाँ थीं कि सजा देना संभव ही नहीं था।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में विशेषज्ञों के हवाले से कहा गया है कि ये फैसले दिल्ली पुलिस की जांच तंत्र की कमजोरियों को बताते हैं। वकीलों और पूर्व पुलिस अधिकारियों ने सुझाव दिया कि ऐसे मामलों में स्वतंत्र जांच एजेंसी की जरूरत है। रिपोर्ट में उल्लेख है कि कई बरी होने के फैसलों में जजों ने पुलिस को 'फर्जी सबूत प्रस्तुत करने' के लिए फटकार लगाई और सिफारिश की कि दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई हो। हालांकि, दिल्ली पुलिस ने अभी तक इस पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है।