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मोटे वेतन की नौकरी ठुकरा सेना में शामिल हुए थे करगिल शहीद बत्रा

अपने साथी अफ़सर की जान बचाने की कोशिश में शहीद हुए कैप्टन विक्रम बत्रा ने करगिल युद्ध के दौरान दो अहम चोटियों पर कब्जा किया था। सेना में भर्ती होने के पहले उन्हें हांगकांग में मर्चेंट नेवी की नौकरी मिली थी, लेकिन बत्रा ने उसके बदले उससे कम पैसे में सेना में ज़ोखिम भरी नौकरी चुनी। करगिल युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा ने अहम रोल अदा कर अपने साहस व पराक्रम के बल पर युद्ध को नया मोड़ दे दिया था।  उनके शौर्य एवं बलिदान को आज पूरा देश याद कर रहा है। अपनी वीरता, जोश-जूनून, दिलेरी और नेतृत्व क्षमता से 24 साल की उम्र में ही सबको अपना दीवाना बना देने वाले इस वीर योद्धा को 15 अगस्त 1999 को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित गया।
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विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया।
kargil martyr vikram batra turned down merchant navy job to join army - Satya Hindi

चोटी 5140 पर कब्जा

हम्प व रॉकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त कराने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।
इससे पहले 16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी लिखी।

यहाँ कुछ भी हो सकता है। गोलियाँ चल रही हैं। मेरी बटालियन के एक अफसर आज शहीद हो गये। नॉदर्न कमांड में सभी की छुट्टियाँ कैंसिल हो गई हैं। पता नही कब वापस आऊँगा। तुम माँ और पिताजी का ख्याल रखना, यहाँ कुछ भी हो सकता है।


कैप्टन विक्रम बत्रा की चिट्ठी का अंश

'ये दिल माँगे मोर'

शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध अदम्य साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष 'ये दिल मांगे मोर' कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। 
अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो भारतीय मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। 
इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा दिया।
वीरगति को प्राप्त होने से पहले कैप्टन बत्रा ने बताया था कि कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल जोशी  के नेतृत्व में उनकी ब्रेवो कंपनी ने टारगेट को फ़तेह करने के लिये प्रयास किया, साथी चाहते थे कि दुशमनों के और बंकर नेस्तनाबूद किये जायें। लिहाजा वहीं से उन्होंने कहा, 'ये दिल माँगे मोर।'  फिर उसी जनून के साथ हमनें चोटी फ़तेह कर ली।
मिशन लगभग पूरा हो चुका था, लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में टीम में शामिल लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह ज़ख्मी हो गये थे। कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। उनकी छाती में गोली लगी और वह वीरगति को प्राप्त हुए।
पालमपुर में उनके परिवार को सरकार की ओर से पेट्रोल पंप दिया गया। वहीं  प्रदेश सरकार ने उनकी याद में प्रतिमा स्थापित की है। पालमपुर के डिग्री कालेज को भी शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा कालेज नाम दिया गया है। वहीं पालमपुर में शहीद बत्रा मार्ग भी है।
उनके पिता जीएल बत्रा कहते हैं कि सरकार परमवीर चक्र विजेताओं के लिये कोई सम्मानजनक योजना नहीं बना पाई है। उनका मानना है कि जिस तरह खिलाडिय़ों को सम्मान दिया जता है, वैसा  सम्मान परमवीर चक्र विजेताओं को मिलना चाहिये। वहीं देश भर के स्कूल कालेज के सिलेबस में परम वीर चक्र विजेताओं  का जीवन वृतांत को भी लाया जाना चाहिये।
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विजयेन्दर शर्मा
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