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कैबिनेट के फ़ैसले राज्यपाल राष्ट्रपति को भेजें तो संघवाद के लिए झटका: SC

तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा एजी पेरारिवलन की माफी याचिका को राष्ट्रपति के पास भेजे जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की है। इसने कहा है कि जब उस याचिका के मामले में तमिलनाडु के मंत्रिपरिषद ने अपनी सिफारिश पहले ही भेज दी थी तब राज्यपाल ने इसे राष्ट्रपति के पास पास क्यों भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह एक सही मिसाल नहीं होगी और यह प्रथम दृष्टया संविधान द्वारा परिकल्पित संघीय ढांचे पर हमला है।

अदालत ने बुधवार को सुनवाई के दौरान मौखिक रूप से टिप्पणी की, 'यह एक बुरी मिसाल कायम करता है। यह देश के संघीय ढांचे पर प्रहार करता है। आप यह नहीं कह सकते कि अगर वह (मंत्रिपरिषद) तय नहीं कर सकता है तो वह (राज्यपाल) इसे राष्ट्रपति को भेज देगा।' न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या से जुड़े मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे सात दोषियों में से एक एजी पेरारिवलन की माफी (सजा कम करने) की याचिका पर सुनवाई कर रहे थे।

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'लाइव लॉ' की रिपोर्ट के अनुसार पेरारिवलन ने 6 सितंबबर 2018 को राज्यपाल के समक्ष अपनी क्षमा याचिका दी थी। आवेदन के तीन साल से अधिक समय तक लंबित रहने के बाद अब गृह मंत्रालय द्वारा दायर हलफनामे से यह लगता है कि राज्यपाल ने राष्ट्रपति को इस आधार पर याचिका भेजी है कि वह छूट के आवेदन को तय करने के लिए सक्षम प्राधिकारी हैं।

हालाँकि अदालत की पीठ केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के.एम. नटराज की दलील से संतुष्ट नहीं थी। न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि "संविधान में कोई प्रावधान नहीं है जो स्पष्ट रूप से राज्यपाल को राष्ट्रपति को क्षमा याचिका भेजने के लिए शक्ति प्रदान करता है, इस तरह का संदर्भ नहीं दिया जा सकता है क्योंकि यह 'संघीय ढांचे को कुचलने वाला झटका' होगा।

न्यायमूर्ति राव ने कहा कि प्रथम दृष्टया यह निवेदन कि राज्यपाल स्वतंत्र रूप से राष्ट्रपति को याचिका भेज सकते थे, संवैधानिक प्रावधान के तहत व्यवहार्य नहीं लगता।

उन्होंने कहा,

हम प्रथम दृष्टया आपके बयान को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं- राज्यपाल की संविधान के तहत यह कहने की स्वतंत्र भूमिका नहीं है कि कैबिनेट ग़लत है और मैं एक अलग रास्ता अपनाऊंगा।


सुप्रीम कोर्ट

रिपोर्ट के अनुसार न्यायमूर्ति राव चिंतित थे कि यदि एएसजी के तर्क को स्वीकार कर लिया जाता है तो राज्यपाल को राज्य मंत्रिमंडल के साथ किसी भी असहमति पर राष्ट्रपति को याचिकाएँ भेजने की बेलगाम शक्ति मिल जाएगी।

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पीठ ने कहा, 'अगर मंत्रिपरिषद उसे कुछ भेजती है, और वह इसे पसंद नहीं करता है तो क्या वह इसे राष्ट्रपति को भेज सकता है? क्या सत्ता पर कोई नियंत्रण नहीं है? क्या वह ऐसा कर सकता है?'

तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने दलील दी कि यदि केंद्र सरकार को यह चिंता थी कि राज्य सरकार ने अपने अधिकार को पार किया है तो इसे संवैधानिक न्यायालय द्वारा चुनौती दी जा सकती है और निर्णय लिया जा सकता है। लेकिन स्वयं राज्यपाल, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए याचिका को नहीं भेज सकता है।

न्यायमूर्ति राव ने कहा कि संविधान के तहत उचित तरीका यह होगा कि वे मंत्रिपरिषद को माफी याचिका पर फैसला करने में उसकी अक्षमता के बारे में बताएँ। 

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बता दें कि यह मामला तब सामने आया है जब तमिलनाडु में राज्य सरकार और राज्यपाल में आपसी खींचतान चल रही है। राज्य में स्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए NEET से छूट देने वाले विधेयक पर राज्यपाल और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के बीच संघर्ष चल रहा है। फरवरी में राज्यपाल ने विधेयक को वापस भेज दिया था, जिसे फिर से अपनाया गया था। इसके बाद मुख्यमंत्री ने राज्यपाल से इसे राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजने का आग्रह किया था, जो अब लगभग दो महीने से राज्यपाल के पास लंबित है। इसी बीच अब 25 अप्रैल को तमिलनाडु विधानसभा ने एक संशोधन पारित किया है जिसमें राज्य सरकार को विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है। इससे पहले कुलपतियों को नियुक्त करने का अधिकार राज्यपाल के पास था जो सरकार के परामर्श से ऐसा करते थे।
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