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जीडीपी का चक्का उल्टा घूमा तो कैसे बनेगी पाँच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी?

अगर देश की जीडीपी में तेज़ गिरावट आई तो उसका आम इंसान की ज़िंदगी पर क्या फ़र्क पड़ेगा? भारत को फ़ाइव ट्रिलियन डॉलर यानी पाँच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के सपने का क्या होगा और इस हालत से उबरने का रास्ता क्या है? आम आदमी की ज़िंदगी पर जीडीपी गिरने का कोई असर सीधे नहीं पड़ता। बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि आम आदमी की ज़िंदगी में आ चुकी दुश्वारियों को ही जीडीपी का आँकड़ा गिरावट के तौर पर सामने रखता है।

आलोक जोशी

सवाल है कि नेगेटिव ग्रोथ क्या होती है और उसका असर क्या है, ख़ासकर भारत के संदर्भ में? लेकिन उसपर चलें उससे पहले यह जानना ज़रूरी है कि जीडीपी ग्रोथ क्या होती है। यही बहुत बड़ा सवाल है। बहुत से लोग जानना चाहते हैं कि इसके बढ़ने को लेकर इतना हल्ला क्यों मचा रहता है। और यह तब की बात थी जब कम से कम इतना तो तय था कि जीडीपी बढ़ती रहती है।

1990 के पहले तीन साढ़े तीन प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ती थी। इसे हिंदू रेट ऑफ़ ग्रोथ कहा जाता था। प्रोफ़ेसर राज कृष्णा ने यह नामकरण कर दिया था और तब किसी ने गंभीर सवाल भी नहीं उठाया। हालाँकि अभी हाल में इतिहास और अर्थशास्त्र पर समान अधिकार रखनेवाले कुछ पुनरुत्थानवादी विद्वानों ने इस अवधारणा पर सवाल उठा दिए हैं।

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लेकिन ये सवाल उठते और उनपर चर्चा होती इसके पहले ही हाल बिगड़ गया और जीडीपी बढ़ने की रफ्तार बढ़ने की बजाय कम होने लगी। रफ्तार थमने तक तो गनीमत होती लेकिन पिछले साल से ही अनेक लोग मंदी-मंदी का हल्ला मचाने लगे थे। और दूसरी तरफ़ से विद्वानों की फौज जुटी हुई थी मोटे-मोटे ग्रंथों से मंदी की परिभाषा निकालकर यह साबित करने में कि देश में मंदी नहीं स्लोडाउन है। तब दोनों में से किसे पता था कि इतनी जल्दी यह बहस बेमतलब हो जानेवाली है।

बहस को बर्बाद करने का काम उसी ने किया जिससे पूरी दुनिया परेशान है। कोरोना वायरस और उसके डर से हुए लॉकडाउन यानी देशबंदी।

लॉकडाउन के चक्कर में काम धंधा क़रीब-क़रीब बंद हो गया और उसी का नतीजा है कि अब ग्रोथ की जगह नया शब्द आ गया है नेगेटिव ग्रोथ।

ग्रोथ का मतलब होता है तरक्की या आगे बढ़ना, ज़ाहिर है इसमें नेगेटिव लगते ही असर उल्टा होना है, मतलब नीचे गिरना या पीछे जाना। क़ारोबार के संदर्भ में देखें तो साफ़ मतलब है कि धंधा बढ़ने के बजाय कम हो रहा है, कम होगा तो बिक्री भी कम और मुनाफ़ा भी कम।

क्या है जीडीपी?

जीडीपी का अर्थ होता है सकल घरेलू उत्पाद। मतलब यह कि देश भर में कुल मिलाकर जितना भी कुछ बन रहा है, बिक रहा है, ख़रीदा जा रहा है या लिया दिया जा रहा है, उसका जोड़ है जीडीपी। इसमें बढ़त का आसान भाषा में मतलब है कि देश में कुल मिलाकर तरक्की हो रही है। कहीं कम कहीं ज़्यादा। इसकी रफ्तार जितनी बढ़ेगी वो पूरे देश के लिए अच्छी ख़बर होगी क्योंकि ऐसे में जो कम से कम तरक्की करेंगे उनकी भी पहले से बेहतर तरक्की ही होगी। साथ ही सरकार को ज़्यादा टैक्स मिलेगा, ज़्यादा कमाई होगी और उसके पास तमाम कामों पर और उन लोगों पर ख़र्च करने के लिए ज़्यादा रक़म होगी जिन्हें मदद की ज़रूरत है।

लेकिन अगर कहीं ग्रोथ का चक्का रुक गया या उल्टा घूमने लगा, जैसा इस वक्त हो रहा है तो? सबसे पहले तो इसका मतलब समझना ज़रूरी है।

किसी दुकान में महीने में एक लाख की बिक्री होती थी, पंद्रह हज़ार रुपए की बचत। तो इसे कहा जाएगा कि वो बिज़नेस पंद्रह प्रतिशत की मुनाफेदारी पर चलता है। यानी सौ रुपए में पंद्रह का मुनाफ़ा। अब अगर उसकी बिक्री तो इतनी ही रहे और मुनाफ़ा कम हो जाए तो माना जाएगा कि काम में कुछ गड़बड़ है यानी मार्जिन कम हो रहा है। लेकिन बिक्री कम होकर नब्बे हज़ार रह जाए और मुनाफ़ा पंद्रह हज़ार ही बना रहे तो इसका मतलब है कि दुकानदार अपना काम काफ़ी समझदारी से कर रहा है और विपरीत परिस्थितियों में भी मुनाफ़े पर आँच नहीं आने देता।

लेकिन आम तौर पर यह दोनों चीजें साथ ही गिरती पाई जाती हैं। और अब सोचिए कि एक पूरा बाज़ार अगर महीने भर के लिए बंद कर दिया जाए तो वहाँ दुकानों में क्या बिक्री होगी और क्या मुनाफ़ा? यही हाल अप्रैल के बाद पूरे देश का हो गया था। हालाँकि जून से सरकार ने अनलॉक शुरू कर दिया था, इसके बाद भी देश के ज़्यादातर हिस्सों में अभी तक सब कुछ पटरी पर नहीं आया है। जल्दी ऐसा हो जाएगा इसके आसार भी नहीं दिख रहे हैं। इसी का नतीजा है कि अब जीडीपी बढ़ने की बजाय घटने की तरफ़ है। यानी पूरे देश में कुल मिलाकर जितना क़ारोबार हो रहा था, लेन देन हो रहा था, अब वो कम होने वाला है या हो रहा है।

कितनी है नेगेटिव ग्रोथ

पिछली दो मॉनिटरी पॉलिसी में रिज़र्व बैंक चेता चुका है कि जीडीपी ग्रोथ नेगेटिव टेरिटरी में रहने वाली है अर्थात भारत का सकल घरेलू उत्पाद बढ़ने के बजाय घटने वाला है। यह कमी या गिरावट कितनी होगी, इस सवाल का जवाब रिज़र्व बैंक गवर्नर ने नहीं दिया। उनका तर्क था कि आप अगर बता दें कि कोरोना का संकट कब ख़त्म होगा तो मैं बता दूँगा कि गिरावट कितनी होगी।

सीएमआईई के मुखिया महेश व्यास की राय है कि आरबीआई गवर्नर ने बिल्कुल सही काम किया है क्योंकि इस वक़्त यह अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है कि कोरोना की वजह से इकोनॉमी को कितना नुक़सान पहुँचने वाला है। इसके बावजूद उनकी संस्था सीएमआईई का अनुमान है कि भारत की जीडीपी कम से कम साढ़े पाँच प्रतिशत और ज़्यादा से ज़्यादा चौदह प्रतिशत तक घट सकती है। अगर कोरोना का संकट और विकराल हुआ तो शायद यह गिरावट चौदह प्रतिशत से आगे भी चली जाए, लेकिन सब कुछ अच्छा होता रहा तब भी साढ़े पाँच परसेंट की कमी तो उन्हें दिखती ही है।

अब तक का सबसे आशाजनक अनुमान विश्व बैंक की तरफ़ से आया है जो भारत की जीडीपी में 3.2 परसेंट की गिरावट का अंदाज़ा लगा रहा था, लेकिन आसार हैं कि विश्व बैंक अगले कुछ महीनों में भारत पर जो नई रिपोर्ट जारी करेगा उसमें गिरावट इससे कहीं ज़्यादा बताई जाएगी।

भारत सरकार की तरफ़ से जीडीपी का आँकड़ा 31 अगस्त को जारी होना है। इसमें पता चलना चाहिए कि कोरोना के पहले झटके का भारत की आर्थिक स्थिति पर क्या असर पड़ा। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल तो चेतावनी दे चुकी है कि अप्रैल से जून के बीच देश की जीडीपी में 45 प्रतिशत की गिरावट दिखेगी। पूरे साल के लिए उसने भी पाँच प्रतिशत गिरावट की भविष्यवाणी की हुई है।

और भी बहुत सी एजेंसियों ने भारत की जीडीपी पर अलग-अलग अनुमान जारी किए हुए हैं। लेकिन असली असर कितना होगा इसका फ़ैसला तो तभी हो पाएगा जब नुक़सान हो चुका होगा और उसका हिसाब सामने आएगा। इस बार जो जीडीपी का आँकड़ा आएगा वो ऐसा पहला हिसाब सामने रखेगा।

negative economic growth will impact 5 trillion dollar economy dream - Satya Hindi

जीडीपी गिरी तो क्या होगा असर?

अब सवाल यह रहा कि अगर देश की जीडीपी में तेज़ गिरावट आई तो उसका आम इंसान की ज़िंदगी पर क्या फ़र्क पड़ेगा? भारत को फ़ाइव ट्रिलियन डॉलर यानी पाँच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के सपने का क्या होगा और इस हालत से उबरने का रास्ता क्या है?

आम आदमी की ज़िंदगी पर जीडीपी गिरने का कोई असर सीधे नहीं पड़ता। बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि आम आदमी की ज़िंदगी में आ चुकी दुश्वारियों को ही जीडीपी का आँकड़ा गिरावट के तौर पर सामने रखता है।

और भविष्य के लिए भी यह अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि अगर अर्थव्यवस्था मंदी में जा रही हो तो बेरोज़गारी का ख़तरा बढ़ जाता है।

जिस तरह आम आदमी कमाई कम होने की ख़बर सुनकर ख़र्च कम और बचत ज़्यादा करने लगता है बिल्कुल ऐसा ही व्यवहार कंपनियाँ भी करने लगती हैं और किसी हद तक सरकारें भी। नई नौकरियाँ मिलनी भी कम हो जाती हैं और लोगों को निकाले जाने का सिलसिला भी तेज़ होता है।

सीएमआईई के मुताबिक़ सिर्फ़ जुलाई में पचास लाख नौकरीपेशा लोग बेरोज़गार हो गए हैं।

इससे एक दुष्चक्र शुरू होता है। घबराकर लोग ख़र्च कम करते हैं तो हर तरह के क़ारोबार पर असर पड़ता है। उद्योगों के उत्पाद की माँग कम होने लगती है और लोग बचत बढ़ाते हैं तो बैंकों में ब्याज़ भी कम मिलता है। दूसरी तरफ़ बैंकों से क़र्ज़ की माँग भी गिरती है। उल्टे लोग अपने-अपने क़र्ज़ चुकाने पर ज़ोर देने लगते हैं।

सामान्य स्थिति में यह अच्छी बात है कि ज़्यादातर लोग क़र्ज़ मुक्त रहें। लेकिन अगर ऐसा घबराहट में हो रहा है तो यह इस बात का संकेत है कि देश में किसी को भी अपना भविष्य अच्छा नहीं दिख रहा है इसलिए लोग क़र्ज़ लेने से कतरा रहे हैं क्योंकि उन्हें यक़ीन नहीं है कि वो भविष्य में अच्छा पैसा कमा कर यह क़र्ज़ आसानी से चुका पाएँगे।

एकदम ऐसा ही हाल उन लोगों का भी है जो कंपनियाँ चला रहे हैं, पिछले कुछ समय में तमाम बड़ी कंपनियों ने बाज़ार से पैसा उठाकर या अपना हिस्सा बेचकर क़र्ज़ चुकाए हैं।

देश की सबसे बड़ी प्राइवेट कंपनी रिलायंस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसने इसी दौरान डेढ़ लाख करोड़ रुपए से ऊपर का क़र्ज़ चुका कर ख़ुद को क़र्ज़मुक्त कर लिया है।

पाँच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी का सपना

ऐसी हालत में पाँच ट्रिलियन डॉलर का सपना कैसे पूरा होगा? यह सवाल पूछना ही बेमानी लगता है। लेकिन इंसान अगर हार मानकर बैठ गया तो फिर किसी भी मुसीबत से पार नहीं पा सकता।

प्रधानमंत्री ने आपदा में अवसर की बात कही है। वो अवसर दिख भी रहा है। लेकिन यह अवसर तो पहले भी मौजूद था।

चीन के साथ तुलना या चीन गए उद्योगों को भारत लाने की बात पहली बार नहीं हो रही है। सवाल यह है कि क्या भारत सरकार ऐसा कुछ कर पाएगी जिससे विदेशी निवेशकों को भारत में क़ारोबार करना सचमुच आसान और फ़ायदे का सौदा लगने लगेगा। ऐसा हुआ और बड़े पैमाने पर रोज़गार के मौक़े पैदा हो पाए तब यक़ीनन इस मुश्किल का मुक़ाबला आसान होगा।

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लेकिन किसी भी हालत में अभी ऊँचे सपने देखने का वक़्त नहीं आया है। और यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि विदेशी निवेश को लुभाने के चक्कर में कहीं भारत के मज़दूरों या कर्मचारियों के अधिकार पूरी तरह कुर्बान न कर दिए जाएँ।

रास्ते कम नहीं हैं, विद्वान सुझा भी रहे हैं, लेकिन चुनौती यह है कि कौन सा उपाय कब इस्तेमाल किया जाए ताकि वो कारगर भी हो सके।

सरकार की तरफ़ से इस बात के संकेत मिले हैं कि इकोनॉमी में जान फूँकने के लिए एक और स्टिमुलस या आर्थिक पैकेज लाने की तैयारी है, मगर सरकार इंतज़ार कर रही है कि कोरोना की बला टलने के संकेत मिलें तब ये पैकेज दिया जाए वरना यह दवा बेकार भी जा सकती है।

इसीलिए ज़्यादातर सवालों के जवाब तो कोरोना संकट के साथ ही मिलेंगे।

(आर्थिक मामलाों के विशेषज्ञ आलोक जोशी का यह मूल लेख बीबीसी हिंदी वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुका है। बीबीसी से साभार। )
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