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मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा, सवर्ण समाज के लिए आईना

दलित विमर्श के विलक्षण सिद्धांतकार और लेखक मोहनदास नैमिशराय पिछले तीन-चार दशकों से दलित समस्याओं पर लगातार लिखते और विचार करते आ रहे हैं। दलित समाज के यथार्थ को सामने लाने के लिये उन्होंने पत्रकारिता को अपना साधन बनाया था। ‘धर्मयुग’ और ‘संचेतना’ पत्रिका से जुड़कर लगातार दलित समाज और उसकी राजनीति पर लिखा था। मोहनदास नैमिशराय ने दलित हलकों की समस्याओं को उठाने के लिये अस्सी के दशक में ‘बहुजन अधिकार’ नामक पत्र निकाला था। इस पत्र में सवर्ण वर्चस्व और जाति-व्यवस्था पर बड़ा मारक और तीखा प्रहार किया जाता था। इसके दलित साहित्य और विमर्श को धार देने के लिये उन्होंने ‘बयान’ पत्रिका निकाली थी। दलित साहित्य के योगदान में इस पत्रिका का अपना ही स्थान है। इन सबके बावजूद मोहनदास नैमिशराय का पत्रकारिता की अपेक्षा साहित्य सृजन वाला पक्ष ज़्यादा निखर कर सामने आया है। 

इसमें कोई दो राय नहीं कि साहित्यिक और बौद्धिक दुनिया में उनकी पहचान पत्रकार से ज़्यादा एक दलित विचारक और साहित्यकार की है। मोहनदास नैमिशराय क़रीब पच्चीस साल पहले ‘अपने-अपने पिंजरे’ (1995) नामक आत्मकथा लिखी थी। इस आत्मकथा की चर्चा साहित्य हलकों में ख़ूब हुई थी। जब हिंदी के नामी दलित साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथा ही नहीं लिखी थी, उस समय तक मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा का दूसरा खंड ‘अपने-अपने पिंजरे’ (2001) प्रकाशित हो चुका था। इसके बाद उन्होंने लगातार दलित साहित्य और इतिहास पर शोध जारी रखा। इसके बाद मोहनदास नैमिशराय द्वारा लिखित ‘भारतीय दलित साहित्य आंदोलन का इतिहास’ चार खंडों में प्रकाशित होकर आया था।

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अस्सी और नब्बे का दशक साहित्य और राजनीति में बड़े बदलाव का सूचक माना जाता है। जहाँ अस्सी का दशक दलित राजनीति के फैलाव का सूचक है, वहीं दलित साहित्य की सुगबुगाहट के स्वर भी सुनाई देने लगते हैं। इन्हीं दिनों मोहनदास नैमिशराय मेरठ से आकर दिल्ली में रहने लगते हैं। सरोकारों वाली पत्रकारिता के बल पर दिल्ली और बंबई के बुद्धिजीवियों और प्रतिष्ठित व्यक्तियों के बीच एक अपनी मुकम्मल पहचान भी बना लेते हैं। मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा का तीसरा खंड ‘रंग कितने संग मेरे’ नाम से अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है। इस आत्मकथा को पढ़ने के बाद मुझे महसूस हुआ कि अस्सी के दशक में अपनी अस्मिता और दलित सरोकारों के लिये जद्दोजहद और संघर्ष करते हुये दलित लेखक के अनुभव और संघर्ष के विविध रंगों को बड़ी शिद्दत से सामने लाने वाली आत्मकथा है। 

इसमें कोई दो राय नहीं है कि दलित जीवन संघर्ष और अभाव भरा होता है। सामाजिक अपमान और ग़रीबी उसकी स्थाई जमापूंजी होती है। वह सवर्णों के अपमान और ग़रीबी से निजात पाने के लिये संघर्ष भी करता है। एक चेतना परक दलित व्यक्ति उच्च श्रेणी की मानसिकता और ग़रीबी से एक साथ दो मोर्चों पर लड़ता रहता है। मोहनदास नैमिशराय इस आत्मकथा की शुरुआत में ही एक बड़े मार्के की बात कहते हैं कि संघर्ष की भट्ठी में तपकर उनका जीवन निखरा और सँवरा है। कई तरह के सामाजिक और पारिवारिक अपमान झेलने के बाद भी यह आत्म कथाकार अपने दलित सरोकार और दलित आंदोलन से पीछे नहीं हटता है। इस आत्म कथाकार का कहना है कि संघर्ष करने की प्रेरणा उन्हें दलित महापुरुषों और क्रांतिकारियों से मिली है। 

दलित महानायकों के संघर्ष और त्याग से प्रेरणा लेकर मोहनदास नैमिशराय सामाजिक न्याय के रास्ते में बाधा बनी जातिवादी इमारतों को ढहाने का प्रयास अपने लेखन और पत्रकारिता में करते हैं। वह आत्मकथा में कहते हैं कि जैसे रोज़ सूरज उगता था, वैसे ही मेरे भीतर चेतना उगती और उसका विस्तार होता रहता था।

अस्सी के दशक में मोहनदास नैमिशराय का दलित उत्पीड़न करने वालों के प्रति आक्रोश तीखा और मारक हो जाता है। वे गोष्ठियों और कॉफी हाउस में ज्वलंत समस्याओं और सवालों को उठाने लगते हैं। मोहनदास नैमिशराय का अनुभव बताता है कि कॉफी हाउस में सभी तरह के लोग मिलते थे। नैमिशराय बताते हैं कि सन् 1981 में बामसेफ का ‘समता-समानता’ का आंदोलन अपने उत्कर्ष पर था। और, मान्यवर कांशीराम ने सन् 1981 में ‘दलित शोषित संघर्ष समिति’ बनाकर वैचारिक और राजनैतिक रूप से दलितों और पिछड़ों को गोलबंद करना शुरू कर दिया था। सन् 1984 में मान्यवर कांशीराम ने ‘बहुजन समाज पार्टी’ का गठन कर दलितों को सत्ता के सिंहासन तक पहुँचने का रास्ता तैयार कर दिया था। इन सब घटनाओं का असर मोहनदास नैमिशराय के लेखन और विचार पर भी पड़ रहा था। मोहनदास नैमिशराय ने दलित राजनीति पर एक कवर स्टोरी लिखी थी। इस कवर स्टोरी में उन्होंने बी.पी. मौर्य, कांशीराम, आर.एस. गवई, प्रकाश आंबेडकर, हाजी मस्तान, अरुण काम्बले और मैकूराम जैसे नेताओं के साक्षात्कार लिये थे। मोहनदास नैमिशराय की यह कवर स्टोरी ‘धर्मयुग’ सितम्बर 1989 के अंक में ‘चुनावी हवा, क्या करवटी लेगी दलित राजनीति?’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। 

दलित चेतना 

जब दलित चेतना और राजनीति का विकास हो रहा था तभी सवर्णों ने दलितों को डराने और मनुकाल की याद दिलाने के लिये 24 जून 1989 को राजस्थान उच्च न्यायालय के परिसर में मनु की आदमकद मूर्ति स्थापित करवा दी थी। वहाँ के दलितों ने इस पर प्रतिरोध और आक्रोश भी व्यक्त किया था। इसका असर यह हुआ कि न्यायाधीशों ने यह प्रस्ताव पारित किया कि मनु की मूर्ति वहाँ से हटाई जाए। लेकिन ‘राजस्थान विश्व हिंदू परिषद’ की ओर से याचिका दायर कर दी गई और फ़ैसले में न्यायाधीशों के प्रस्ताव को पलट दिया गया था। मोहनदास नैमिशराय ने अपनी इस आत्मकथा में दर्ज किया है कि लोकतंत्र और राजतंत्र को एक खूँटे में बाँध दिया गया था। और, संविधान को ताक पर धकेलने का प्रयास शुरू हो गया था।

इसमें कोई शक नहीं है कि यह उच्च श्रेणी की मानसिकता वाला समाज दलितों के साथ भेदभाव से पेश आता रहा है। सवर्ण समाज के उच्च शिक्षित और पढ़े लिखे व्यक्ति भी जाति के जामे से अपने आप को मुक्त नहीं कर पाये हैं। एक लेखक और नागरिक के तौर नैमिशराय के जीवन में ऐसा भी क्षण आया, जब उन्हें दलित होने का अहसास सवर्ण संपादकों और बुद्धिजीवियों की ओर से करवाया गया था। 

विद्यानिवास मिश्र का ज़िक्र

विद्यानिवास मिश्र हिंदी के बड़े लेखक और संपादक के तौर पर जाने जाते हैं। हिंदी साहित्य में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा रही है। बड़ी दिलचस्प बात यह है कि विद्यानिवास मिश्र अपनी उच्च श्रेणी वाली मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाये थे। मोहनदास नैमिशराय बताते हैं कि जब वह ‘नवभारत टाइम्स’ के लिये पत्रकारिता करते थे तो एक अनुबंध के तहत उनके संपादक ने उन्हें बोधगया शहर के ब्राह्मणों और पंडों पर एक फीचर लेख तैयार करने के लिये भेजा था। जब बोधगया से लौटे तो पता चला कि ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक विद्यानिवास मिश्र को नियुक्त कर दिया गया है। जब उन्होंने बोधगया के पुरोहितों और पंडों पर लिखा फीचर लेख संपादक विद्यानिवास मिश्र को दिखाया तो उन्होंने लेख को गटर में फेंकने की सलाह दे डाली थी। 

मोहनदास नैमिशराय ने इस फीचर लेख में पुरोहितों और पंडों के पाखंड को उजागर किया था। विद्यानिवास मिश्र इस फीचर लेख में पुरोहितों और पंडों की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सके थे।

दरअसल, इस सोच के संपादक किसी भी अख़बार को लोकत्रांतिक बनने नहीं देते हैं। ऐसे ही संपादकों की जाति मानसिकता के चलते दलित उत्पीड़न की ख़बरें समाचार पत्रों से दरकिनार कर दी जाती हैं। मोहनदास नैमिशराय ने अपने अनुभव में बताया कि अमीर और ग़रीब दोनों प्रकार के ब्राह्मण दलित चेतना के सूरज को रोकने में बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आत्मकथा के लिखने के अपने ख़तरे भी होते हैं। दलित लेखकों को आत्मकथा लिखने पर कई बार सगे संबंधियों और समाज के बीच अपमानित भी होना पड़ता है। मोहनदास नैमिशराय ने अपनी आत्मकथा में एक ऐसे वाकये का ज़िक्र किया है कि जिससे पता चलता है कि आत्मकथा लिखने का खामियाजा किस स्तर तक उठाना पड़ता है। मोहनदास नैमिशराय बताते हैं कि उनके बेटे का किसी लड़की से प्रेम प्रसंग चल रहा था। इस प्रेम प्रसंग की जानकारी मोहनदास नैमिशराय को नहीं थी। इस प्रेम प्रंसग को दोनों परिवार के परिजन विवाह में तब्दील करना चाहते थे। एक दिन मोहनदास नैमिशराय के घर बेटे की प्रेयसी की माँ रिश्ता लेकर आई थी। मोहनदास नैमिशराय ने जाते वक़्त अपने बेटे की प्रेयसी की माँ को अपनी आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ भेंट कर दी थी। इस आत्मकथा की भेंट से उनके बेटे का रिश्ता टूट गया था। क्योंकि मोहनदास नैमिशराय ने आत्मकथा के भीतर अपनी जाति और परिवार की स्थिति के संबंध में लिखा था। शायद लड़की की माँ ने जाति जानने के बाद उनके बेटे से अपनी बेटी का रिश्ता तोड़ दिया था। 

बेटे का रिश्ता तोड़ने का ज़िम्मेदार परिवार वालों ने मोहनदास नैमिशराय और उनकी आत्मकथा को माना था। यह रिश्ते टूटने के बाद मोहनदास नैमिशराय और उनके बेटे के रिश्तों में दरार पड़ गई थी। लेकिन इससे सवर्ण समाज की जातिवादी मानसिकता का भी पर्दाफाश हो गया।

कथाकार कमलेश्वर का एक दौर में फ़िल्मी दुनिया में बड़ा जलवा हुआ करता था। कमलेश्वर का दलित लेखकों और लेखन के प्रति स्वभाव नरम और उदार था। यही सोचकर मोहनदास नैमिशराय ने फ़िल्मी लेखन करने के लिये कमलेश्वर को एक पत्र लिखा था। कमलेश्वर ने मोहनदास नैमिशराय के पत्र का जवाब देते हुए कहा था कि मेरा कार्यक्षेत्र हमेशा बदलता रहता है लेकिन कार्य एक ही रहता है। फ़िल्मों में इतना अधिक काम करने के बावजूद मुझे, इतना रचनात्मक सन्तोष कभी नहीं मिला है। पूरी तरह धँसकर भी मेरी दोस्ती किसी से इतनी प्रगाढ़ नहीं है कि मेरे कहने मात्र से आपके लिये लेखन का रास्ता खोल दे। 

मोहनदास नैमिशराय की लेखकीय यात्रा बहुत आसान नहीं रही है। मोहनदास नैमिशराय इस आत्मकथा में एक जगह कहते हैं कि “मैं सड़क का आदमी था और सड़क का लेखक भी। शब्द ही तो थे जो इस चाबुक का काम करते थे। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि चाबुक की आवाज़ नहीं होती थी।” इस कथन के पीछे मोहनदास नैमिशराय की पीड़ा और संघर्ष के सूत्र पकडे़ जा सकते हैं। 

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संघर्ष की आँच में भी दलित आंदोलन और चिंतन का दामन इस आत्म कथाकार ने नहीं छोड़ा था। दलित आंदोलन और साहित्य उनके जीवन का मिशन बन गया था। संघर्ष के रास्ते में न जाने कैसे-कैसे मोड़ आये लेकिन मोहनदास नैमिशराय ने स्वार्थ और व्यक्तिगत आकांक्षा के लिये दलित साहित्य और आंदोलन से कोई समझौता नहीं किया था। पत्रकारिता और दलित लेखन में उन्होंने लेखन को ज़्यादा तरजीह दी है। मोहनदास नैमिशराय ने लिखा कि पत्रकारिता के जंजाल से निकलकार मैं अपनी अनुभूति और संवेदनाओं का इतिहास लिखना चाहता हूँ। दलित समाज के दुख संघर्ष, अनुभव और इतिहास को उन्होंने साहित्य सृजन के माध्यम से लाने का काम किया है।

यह आत्मकथा सत्तर और अस्सी के दशक के दलित उत्पीड़न और अत्याचार की अनगिनत घटनाओं से रुबरु कराती है। और दलित चेतना के उभार और प्रतिरोध को भी सामने रखती है। समाज और परिवार से बेदखल होने की पीड़ा को महसूस करवाती है। यह दलित जीवन के विभिन्न रंगों और संघषों का पता देने वाली आत्मकथा है। यह आत्मकथा जहाँ दलित जीवन की खौलती हुई सच्चाइयों को सामने रखती है, वहीं सवर्ण समाज के दलितों के प्रति रवैया और सोच को भी उभारने का काम करती है। इस आत्मकथा में दलित जीवन के जो रंग दिखाई देते हैं, वो रोमानियत और भोगविलास के नहीं बल्कि संघर्ष और सरोकार के हैं।
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सुरेश कुमार
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