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पश्चिम बंगाल जीतने के लिए पूरे देश पर एनआरसी की तलवार?

राजनैतिक विश्लेषक संदेह व्यक्त करते हैं कि पूरे देश में एनआरसी लागू करने की सारी क़वायद बंगाल में ममता बनर्जी को विधानसभा चुनाव में परास्त करने के लिए किए गये मास्टर प्लान का हिस्सा है, यदि यह सच है तो यह बहुत ही नुक़सानदेह राजनैतिक सौदा है जिसकी क़ीमत चुकाने की हर कोशिश देशव्यापी तौर पर रक्तरंजित हो सकती है!
शीतल पी. सिंह

असम में एनआरसी प्रक्रिया में करोड़ों लोग परेशान हुए, फिर भी इसे पूरे देश में लागू करने की बात क्यों की जा रही है? असम की दिक्कतों से सीख नहीं ली जा रही है या फिर जानबूझकर चुनावी फ़ायदे के लिए एक त्रासदी पैदा की जा रही है?

संसद में नागरिकता क़ानून में हुए संशोधन के बाद देश भर में आंदोलनों की लहर आ गई है। दरअसल, हुआ यूँ कि गृह मंत्री अमित शाह के ज़ोर देकर यह बोलने के बाद कि पहले वह नागरिकता क़ानून में संशोधन करेंगे और उसके बाद पूरे देश में NRC लागू करेंगे यह विवाद बढ़ा।

अब तक देश भर में कम से कम 18 लोग मारे जा चुके हैं। सैकड़ों लोग गिरफ़्तार हैं और करोड़ों की संपत्ति का नुक़सान हुआ है। देश के कम से कम सौ शहरों में अब तक बड़े प्रदर्शन हो चुके हैं जिनमें तमाम में हिंसा हुई है। सरकार ने घबराहट के सबूत दिये हैं पर वह मामले को फ़िलहाल ठंडा करने की कोशिश करती दिखाई दे रही है।

1979 में असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू हुआ था। आंदोलनकारी लोगों ने अपना एक ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन नामक संगठन बनाया था जिसकी अगुवाई छात्र कर रहे थे। इस आंदोलन का इतना असर हुआ कि 1985 में असम में आन्दोलनकारियों की सरकार बन गई! सरकार तो बन गई लेकिन सरकार बांग्लादेशी घुसपैठियों को कैसे बाहर करेगी, इसका फ़ॉर्मूला न बन सका और इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में छात्रों की यह कोशिश चुनाव हार गई। सरकार फिर कांग्रेस की बनी लेकिन वह भी उस मुद्दे को हल न कर सकी। हालाँकि उसके पहले राजीव गाँधी के नेतृत्व में असम के आंदोलनकारी लोगों के साथ एक समझौता ज़रूर हो गया था। इसी समझौते से एनआरसी निकला।

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आंदोलनकारी इसे लागू कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुँचे और 2013 में सुप्रीम कोर्ट से आए फ़ैसले के चलते असम के लोगों की नागरिकता पहचानने और रजिस्टर करने की महती क़वायद शुरू हुई जो अभी तक जारी है। हालाँकि क़रीब उन्नीस लाख लोगों को असम के क़रीब तीन करोड़ तीस लाख लोगों में से अलग कर लिया गया है जिन्हें संदिग्ध क़रार दिया गया है।

समस्या तब उठ खड़ी हुई जब पाया गया कि इन उन्नीस लाख लोगों में से बंगाली मुसलमानों की संख्या क़रीब सात लाख, बंगाली हिंदुओं की संख्या क़रीब पाँच लाख और बाक़ी सात लाख देश के अन्य भागों से जाकर असम में बस गये हिंदुओं की है। हिंदुओं के हितों की राजनीति पर आश्रित वर्तमान केंद्र व राज्य की बीजेपी सरकार और उसके आधार संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए यह अपाच्य था।

इससे निबटने/निबटाने के लिए उन्होंने नागरिकता क़ानून में संशोधन किया जिसको लोकसभा और राज्यसभा में तो वे पास करा ले गये पर वह सड़क पर फेल होने की ओर है। सारी दुनिया में इस पर सरकार की निंदा हो रही है और देश में अकारण अशांति फैल गई है।

इसका सबसे बड़ा विरोध तो वहीं हुआ जहाँ से इसकी शुरुआत हुई थी यानी असम में। असम में आठ दिन इंटरनेट बंद रखना पड़ा, लगभग पूरे असम में पूरब से पश्चिम तक सड़कों पर लोग उतरे। 

असम में लोगों के जन दबाव का इतना असर था कि बीजेपी के विधायकों और सरकार को छुपना पड़ा। सुरक्षा बलों के साये में जीना पड़ा और उनके लिए सार्वजनिक जीवन निरुद्ध हो गया। असम में बीजेपी वैचारिक लड़ाई हार गई और असम के अवाम की धर्मनिरपेक्ष एकता चट्टानी हो गई।

और एनआरसी का अनुभव क्या रहा?

जिस आदमी ने अपनी सारी जवानी असम से घुसपैठियों को निकालने की मुहिम में लगा दी हो और अंत में वही निराश होकर कहे कि हमने एक पागलपन में ज़िंदगी बर्बाद कर दी तो इसे आप क्या कहेंगे?

यह आदमी हैं मृणाल तालुकदार, जो असम के जाने-माने पत्रकार हैं और एनआरसी पर इनकी लिखी किताब 'पोस्ट कोलोनियल असम का विमोचन' पूर्व चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई ने हफ़्ता भर पहले दिल्ली में किया है।

इनकी दूसरी किताब, जिसका नाम है - 'एनआरसी का खेल' कुछ दिनों बाद आने वाली है। वह एनआरसी मामले में केंद्र सरकार को सलाह देने वाली कमेटी में भी नामित हैं। वे ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसु) से जुड़े रहे। उन्होंने कहा,

“मेरी और मेरे जैसे हज़ारों लोगों की जवानी असम से घुसपैठियों को निकालने के आंदोलन की भेंट चढ़ गई। हममें जोश था मगर होश नहीं था। पता नहीं था कि हम जिनको असम से बाहर निकालने के लिए आंदोलन कर रहे हैं उन्हें किस तरह पहचाना जाएगा और उन्हें बाहर करने की प्रक्रिया क्या होगी।

1979 में हमारा आंदोलन शुरू हुआ और 1985 में हम ही असम की सरकार थे। प्रफुल्ल महंत हॉस्टल में रहते थे। हॉस्टल से सीधे सीएम हाउस में रहने पहुँचे। 5 साल कैसे गुज़र गए हमें पता ही नहीं चला। राजीव गाँधी ने सही किया कि हमें चुनाव लड़ा कर सत्ता दिलवाई। सत्ता पाकर हमें एहसास हुआ कि सरकार के काम और मजबूरियाँ क्या होती हैं।

अगला चुनाव हम हारे मगर 5 साल बाद फिर सत्ता में आए। इन दूसरे 5 सालों में भी हमें समझ नहीं आया कि बांग्लादेशियों को पहचानने की प्रक्रिया हो। लोग हमसे और हम अपने आप से निराश थे। मगर घुसपैठियों के ख़िलाफ़ हमारी मुहिम जारी थी। बहुत बाद में हमें इसकी प्रक्रिया सुझाई भारत के होम सेक्रेटरी रहे गोपाल कृष्ण पिल्लई ने। उन्होंने हमें समझाया कि आप सब की नागरिकता चेक कराओ। अपने आप की भी नागरिकता चेक कराओ और जो रह जाएँ वह बाहरी।

चोर को पकड़ने के लिए क्लास रूम में सभी की तलाशी लेने वाला यह आइडिया हमें खूब जँचा मगर तब नहीं मालूम था कि सवा तीन करोड़ लोग जब काग़ज़ों के लिए परेशान इधर-उधर भागेंगे तब क्या होगा?

बाद में रंजन गोगोई ने क़ानूनी मदद की और ख़ुद इसमें रुचि ली। इसमें असम के एक शख्स प्रदीप भुइँया की खास भूमिका रही। वह स्कूल के प्रिंसिपल हैं उन्होंने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की और अपनी जेब से 60 लाख ख़र्च किए। बाद में उन्हीं की याचिका पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी के आदेश दिए। एक और शख्स अभिजीत शर्मा ने भी एनआरसी के ड्राफ़्ट को जारी कराने के लिए ख़ूब भागदौड़ की तो इस तरह एनआरसी वजूद में आया और वजूद में आते ही हम सब सोचने लगे कि यह हमने क्या कर डाला?

ख़ुद हमारे घर के लोगों के नाम ग़लत हो गए। सोचिए कैसी बात है कि जो लोग घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए आंदोलन कर रहे हैं उन्हीं के घर वालों के नाम एनआरसी की लिस्ट में नहीं आएँ?

बहरहाल ये ग़लतियाँ बाद में दूर हुईं। बयालीस हज़ार कर्मचारी 4 साल तक करोड़ों काग़ज़ों को जमा करते रहे और उनका वेरिफ़िकेशन चलता रहा।

असम जैसे पागल हो गया था। एक एक काग़ज़ की पुष्टि के लिए दूसरे राज्य तक दौड़ लगानी पड़ती थी। जैसे किसी के दादा 1971 के पहले राजस्थान के किसी स्कूल में पढ़े तो उसे दादा का स्कूल सर्टिफ़िकेट लेने के लिए कई बार राजस्थान जाना पड़ा। लोगों ने लाखों रुपये ख़र्च किए। सैकड़ों लोगों ने दबाव में आत्महत्या कर ली। कितने ही लाइनों में लगकर मर गए। कितनों को ही इस दबाव में अटैक आया, दूसरी बीमारियाँ हुईं।

मैं कह नहीं सकता कि हमने अपने लोगों को कितनी तकलीफ़ दी। और फिर अंत में हासिल क्या हुआ? पहले चालीस लाख लोग एनआरसी में नहीं आए। अब 19 लाख लोग नहीं आ रहे हैं। चलिए मैं कहता हूँ, अंत में पाँच लाख या तीन लाख लोग आ जाएँगे तो हम उनका क्या करेंगे?

हमने यह सब पहले से नहीं सोचा था। हमें नहीं पता था कि यह समस्या इतनी ज़्यादा मानवीय पहलुओं से जुड़ी हुई है। मुझे लगता है कि हम इतने लोगों को न वापस बांग्लादेश भेज सकेंगे, न जेल में रख सकेंगे और न ही इतने लोगों को ब्रह्मपुत्र में फेंका जा सकता है। तो अंत में यह निर्णय निकलेगा कि वर्क परमिट दिया जाए और एनआरसी से पीछा छुड़ा लिया जाए। केंद्र सरकार दूसरे राज्यों में एनआरसी लाने की बात कर रही है लेकिन उसे असम का अनुभव हो चुका है।”

-(दीपक असीम, संजय वर्मा की मृणाल से बातचीत के अंश)

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