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क्या फर्जी एनकाउंटर मामलों में योगी सरकार और पुलिस अधिकारी नपेंगे? 

पुलिस एनकाउंटर या प्रशासन द्वारा खुद सज़ा दे देना एक जघन्य अपराध है। यह संपूर्ण समाज के विरुद्ध जानबूझ कर की जाने वाली हत्या है। यह अगर 'राजसत्ता' (स्टेट) की इच्छा से हो रही है या राजसत्ता इस पर आँखें मूंदे बैठी है तो यह एक ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच जाने को दर्शाती है और संविधान प्रदत्त क़ानून के शासन पर ही सवाल खड़ा हो जाता है। 
अनिल शुक्ल

विकास दुबे से जुड़ी सभी मुठभेड़ों में सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के जैसे तेवर दिखे, यदि वह बुधवार को आने वाले फ़ैसले में परिलक्षित होते हैं और सुप्रीम अदालत की देख-रेख में एक जांच आयोग गठित होता है, तो भविष्य की यह जांच यूपी में 'आपराधिक न्याय प्रबंधन तंत्र’ को सिर के बल खड़ा कर देगी, इतना तय है। 

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने न्यायालय परिसर में उपस्थित 'पीपल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज़' (पीयूसीएल) के वकील संजय पारिख (जिन्होंने विकास दुबे के मामले में भी हस्तक्षेप की अर्ज़ी लगा रखी थी) को सुनवाई के दौरान सूचित किया कि यूपी में फर्जी एनकाउंटरों पर दायर उनकी याचिका को 4 हफ़्ते बाद सुना जायेगा। इससे ज़ाहिर होता है कि न्यायिक दृष्टि से जुलाई और अगस्त के महीने योगी सरकार के लिए भारी पड़ने वाले हैं।         

सर्वोच्च न्यायालय ने संकेत दिए हैं कि विकास दुबे एनकाउंटर प्रकरण को भी दिसम्बर, 2019 में हुए हैदराबाद एनकाउंटर की जांच की रोशनी में ही देखा जायेगा। यूपी सरकार की यही सबसे बड़ी मुश्किल है।

यूपी सरकार जानती है कि पुलिस मुठभेड़ में मारे गए हैदराबाद के अभियुक्त नामी-गिरामी अपराधी नहीं थे। उनके विरुद्ध कोई गंभीर अपराध भी न्यायालय या तेलंगाना के पुलिस थानों में दर्ज़ नहीं थे। उनका क़सूर यद्यपि बेहद क्रूर और निर्मम था। शराब के नशे में उन चारों ने पशु चिकित्सक लड़की को अपनी हवस का शिकार बनाया था। इससे पहले उन पर किसी बलात्कार या इसकी कोशिश के भी आरोप नहीं लगे थे। 

जबकि विकास 22 सालों की जघन्य आपराधिक पृष्ठभूमि वाला अपराधी था। इतने वर्षों से पुलिस की बदौलत ही वह छुट्टा घूमता रहा और हत्या, अपहरण, फ़िरौती, ज़मीनों पर क़ब्ज़ा आदि वारदातों को अंजाम देता रहा। उसके विरुद्ध 60 आपराधिक मामलों की डायरी खुली थी। ये सब कैसे हो सका, व्यापक जांच में इसकी पोल न खुले, 'प्रदेश' इसी को लेकर बेचैन है।  

कैसे मिलती गई जमानत?

लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय अपनी देख-रेख में कार्यरत उक्त जांच आयोग से विकास और उसके गैंग के मैम्बरों की कथित मुठभेड़ों में हुई मौतों की जांच की अपेक्षा रखेगा। साथ ही उसके समक्ष इस बात की भी तफ़्तीश करने की गाइड लाइन निर्धारित कर देगा कि आख़िर वे कौन सी शक्तियां थीं जिनके बलबूते बीते 22 सालों से वह एक के बाद एक वारदात करता रहा और सभी मामलों में उसे ज़मानत मिलती चली गई। इसी बात की फ़िक्र से योगी सरकार, उनकी पुलिस और प्रॉसीक्यूशन-तीनों के होश फ़ाख़्ता हैं। 

संतोष शुक्ला की हत्या

सोमवार के आदेशों की 'बिटवीन द लाइंस' इंगित करती हैं कि 'कोर्ट' चाहेगा कि जांच आयोग इस बात की जांच भी करे कि कैसे बिल्हौर थाने में घुस कर विकास दर्ज़ा प्राप्त मंत्री संतोष शुक्ला की सरेआम हत्या करके उस समय फ़रार हो जाता है, जब थाने के भीतर 5 सब इन्स्पेक्टर और 25 पुलिस कांस्टेबल मौजूद थे। इतना ही नहीं, इन 30 पुलिस कर्मियों में सभी अदालत में 'होस्टाइल' हो जाते हैं और विकास दुबे बाइज़्ज़त बरी हो जाता है। 

जांच आयोग इन पुलिस कर्मियों के अलावा तत्कालीन एसएसपी, कानपुर के उस आचरण की भी जांच कर सकता है जिसमें उन्होंने इन पुलिस कर्मियों के विरुद्ध किसी प्रकार की शासकीय कार्रवाई की संस्तुति नहीं की थी।

जांच आयोग के समक्ष तत्कालीन जिलाधिकारी, कानपुर के आचरण की जांच का मामला भी पेश हो सकता है जिसमें राज्य मंत्री की हत्या के मामले में विकास दुबे के सत्र न्यायालय से बरी हो जाने की स्थिति में 'प्रोसीक्यूशन' प्रमुख की हैसियत से उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपील क्यों नहीं की थी?  

हिस्ट्रीशीट को फाड़ने की जांच होगी?

उक्त जांच आयोग मायावती शासनकाल में (जबकि विकास दुबे 'पार्टी' के टिकट पर ज़िला पंचायत का सदस्य चुन लिया जाता है) तत्कालीन एसएसपी द्वारा विकास दुबे की हिस्ट्रीशीट को फाड़ कर फेंक दिए जाने के मामले की भी जांच कर सकता है।  हिस्ट्रीशीट तभी नष्ट की जाती हैं जब 10-12 साल तक अपराधी के विरुद्ध किसी प्रकार की आपराधिक गतिविधि में संलग्न न होने की सूचना हो या फिर अपराधी बूढ़ा या अशक्त हो गया हो। विकास प्रकरण में ये दोनों ही बातें लागू नहीं होतीं। 

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ज़ाहिर है कि जांच आयोग के समक्ष यह मुद्दा विचारणीय रहेगा ही कि उज्जैन में हुए आत्मसमर्पण/गिरफ़्तारी के बाद क्या पुलिस को इस बात की चिंता थी कि विकास उसके साथ जुड़े उन छोटे-बड़े अधिकारियों के संबंधों के राज़ खोल देगा जो निहित स्वार्थों के चलते अभी तक उसे बचाने की कोशिशें करते रहे थे। 

विकास दुबे मामले में दायर अपने प्रार्थनापत्र में पीयूसीएल ने 'कोर्ट' से निवेदन किया था कि उक्त प्रकरण की जांच हेतु एक 'एसआईटी' का गठन 'सुप्रीम कोर्ट' की निगरानी में हो जिसमें ऐसे पुलिस अधिकारी को रखा जाए जो यूपी में कभी नियुक्त न रहा हो।

नामों का पैनल दे यूपी सरकार

पीयूसीएल ने सर्वोच्च न्यायालय से अवकाश प्राप्त जज के नेतृत्व वाले न्यायिक आयोग का गठन किये जाने की भी मांग की थी। पारिख ने 'सत्य हिंदी' को बताया कि "कोर्ट ने यूपी सरकार से कह दिया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के एक-एक रिटायर्ड जज और एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के नामों वाले पैनल को 'कोर्ट' के समक्ष रखें, गठन का अंतिम फैसला 'कोर्ट' करेगा।" 

पीयूसीएल ने न्यायालय के समक्ष मई, 2018 में दायर अपनी याचिका का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि 'प्रदेश' में मार्च, 2017 से लेकर दिसम्बर, 2019 तक 5,178 एनकाउंटर हुए हैं जिसमें 103 लोग मारे गए और कुल घायलों की संख्या 1,859 है। 

कमेटी के गठन का अनुरोध 

पारिख के अनुसार, उन्होंने 'न्यायालय' से इन सभी कथित एनकाउंटरों की जांच के लिए 'सुप्रीम कोर्ट' के अवकाश प्राप्त जज के नेतृत्व वाली कमेटी के गठन का अनुरोध किया है। 'कोर्ट' ने सुनवाई के दौरान उक्त याचिका पर 4 हफ़्ते बाद का समय दिया है। उन्होंने कहा कि उनकी याचिका में 'मुठभेड़ों' के अलावा प्रदेश में तेज़ी से बढ़ने वाले दूसरे मानवाधिकारों के हनन और इन्हें रोकने के लिए संविधान सम्मत क़ानून का राज स्थापित करने की दृष्टि से एक क़ानूनी मशीनरी के गठन का निवेदन भी किया गया है।  

याचिका में साफ़ कहा गया है कि 'प्रदेश' में 'सुप्रीम कोर्ट' के पिछले फ़ैसलों को जानबूझ कर अनदेखा करके 'एनकाउंटर' के नाम पर 'दंड मुक्ति' हेतु व्यापक 'एनकाउंटर' किये जा रहे हैं। 

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क़ानून के शासन पर सवाल 

पुलिस एनकाउंटर या प्रशासन द्वारा खुद सज़ा दे देना एक जघन्य अपराध है। यह संपूर्ण समाज के विरुद्ध जानबूझ कर की जाने वाली हत्या है। यह अगर 'राजसत्ता' (स्टेट) की इच्छा से हो रही है या राजसत्ता इस पर आँखें मूंदे बैठी है तो यह एक ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच जाने को दर्शाती है और संविधान प्रदत्त क़ानून के शासन पर ही सवाल खड़ा हो जाता है। 

योगी सरकार की मुसीबत बढ़ेगी 

सोमवार की सुनवाई में जिस सख्ती से 'कोर्ट' ने यूपी सरकार के वकीलों- हरीश साल्वे और तुषार मेहता के निवेदन को (''जांच करने से पुलिस का मनोबल गिरेगा'') फटकार लगाते हुए ख़ारिज कर दिया और कहा कि प्रदेश में क़ानून के राज को बहाल करना ज़रूरी है, उससे यह स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में योगी सरकार की दिक़्क़तें बढ़ने वाली हैं और दिन के उजाले में ज़िंदा इंसानों को 'मुठभेड़' के नाम पर मौत की नींद सुलाने के क्रूर अभियान को अब रोकना पड़ेगा। 

'सर्वोच्च अदालत' के दृढ़ रवैये से यह भी दिख रहा है कि प्रदेश में क़ानून को जेब में डाल कर घूमने वाले पुलिस अफ़सरों के इतिहास की खुदाई का सिलसिला शुरू होने वाला है। 

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