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मिशन चम्बल घाटी -4: युवा बंदूक़ न उठाएं, ज़रूरी है बटेश्वर का विकास 

आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद चम्बल नदी और उसके बीहड़ क्षेत्र के पिछड़ेपन और कंधे पर बंदूक लटकाये 'बाग़ियों' के लिए याद किये जाते रहे हैं। सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, वायदे उसके चाहे जितने रंगीन और लुभावने हों, चम्बल घाटी का न तो पिछड़ापन दूर हुआ है, न यहाँ विकास की कोई धारा बही है और न कभी डाकू समस्या से इसे निजात मिली है। अनिल शुक्ल ने चम्बल के इन बीहड़ों का व्यापक अध्ययन किया है और इस इलाक़े से जुड़े रहे वरिष्ठ प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिज्ञों, और पूर्व डाकुओं से लम्बी बातचीत की है। चम्बल के इस समूचे परिदृश्य की सिलसिलेवार श्रंखला की फ़िलहाल अंतिम किश्त।        

अनिल शुक्ल
 बटेश्वर के उल्लेख के बिना चंबल और इसके बीहड़ों की चर्चा पूरी नहीं की जा सकती। तकनीकी रूप से बटेश्वर यमुना के मुहाने पर बसा आगरा ज़िले (यूपी) का  एक क़स्बा है, लेकिन चंबल से सटा होने के नाते  और इसकी प्राचीनता तथा इससे जुड़ी धार्मिक मान्यताओं के चलते यह मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी समान रूप से लोकप्रिय रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पैतृकस्थली और राष्ट्रीय स्तर पर लगने वाले पशु मेला स्थल  के अलावा आम जनता से लेकर डाकुओं तक का महत्वपूर्ण तीर्थ है बटेश्वर।
विभिन्न राजनीतिक दलों की केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर इसके विकास के वायदे किये जाते रहे हैं, लेकिन ये वायदे या तो थोथे निकले या इतने नाकाफी थे कि बटेश्वर का कुछ भी भला नहीं कर सके। ऊबड़-खाबड़ बटेश्वर का जो हाल है, उससे चंबल के तहस नहस बीहड़ों की समूची दास्तान सुनी और समझी जा सकती है। 
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101 मंदिर

आगरा से 70 किमी दूर है बटेश्वर। बटेश्वर में यमुना सुराही की गर्दन की मानिंद 2 मील का चक्कर लगाकर वापस अपने प्रारंभिक स्थल पर लौट आती है और इस तरह अनोखे प्राकृतिक दृश्य की संरचना करती है। इसके किनारे-किनारे मंदिर की कतार है। आज इनकी संख्या 101 है। हर युग में ये सौ से ऊपर ही रहे हैं। लेकिन दीर्घ आयु, फ़ंड की कमी और देख-रेख में लगातार होने वाली इनकी उपेक्षा के चलते अब इनकी दीवारें दरक रही हैं, घाट धंस रहे हैं। 
चौथी सदी ईसा पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ नियुक्त था। अपने यात्रा वृतांतों में मेगस्थनीज़ ने बटेश्वर की बड़ी शानदार तस्वीर खींची है। बटेश्वर के निकट ही शौरीपुर है, जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार इसके 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ की जन्मस्थली। सन 1871 में कनिंघम ने इस इलाक़े में अनेक बौद्ध टीकाओं और सिक्कों को खोज निकाला था।

कृष्ण के पिता की बारात

मिथकीय विवरणों में बटेश्वर को श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव के राज्य की राजधानी बताया गया है। देवकी के साथ होने वाले विवाह के दौरान वासुदेव की बारात के बटेश्वर से निकाले जाने के उल्लेख मिलते हैं। हिन्दू देवता शिव को बटेश्वर (बट-अर्थात बरगद का ईश्वर) भी कहा जाता है। यूं तो यहाँ प्राचीन काल से शिव मंदिरों की स्थापना का सन्दर्भ मिलता है, लेकिन आज का सबसे प्रमुख मंदिर मध्यकाल (सन 1646) में भदावर नरेश द्वारा बनवाया गया बटेश्वरनाथ का मंदिर है। इस मंदिर के निर्माण के पीछे भी एक लोक गाथा प्रचलित है। 
कहा जाता है कि भदावर नरेश और मैनपुरी के राजा में निरंतर युद्ध होता था। एक बार उनमें इस बात को लेकर समझौता हुआ कि वे अपने बच्चों की शादी करके आपसी रिश्तेदारी जोड़ लेंगे। मैनपुरी के राजा की सिर्फ बेटी थी। बेटी ही भदावर नरेश की भी थी लेकिन उसने यह बात छिपाई। बहरहाल बदले भेष में बेटी को दूल्हा बनाकर बारात रवाना हुई। बेटी इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सकी और रास्ते में यमुना में कूद गयी। तभी यमुना के भीतर से शिव प्रकट हुए, उन्होंने बेटी का हाथ पकड़ा और उसे बेटे में बदल दिया। कहते हैं इसी उपलक्ष्य में भदावर नरेश ने उक्त मंदिर का निर्माण करवाया था।

लोक मान्यता

बटेश्वर के मंदिरों में घंटों की भरमार है। मंदिरों के मुख्य सभा कक्ष में, अगल-बगल के पोर्टिको में, बाहरी अहाते में खड़े पेड़ों में सर्वत्र छोटे-बड़े साईज़ के धातु के घंटे लटके हुए हैं।
इन घंटों को सामान्य भक्तजन भी लटका गए हैं और दस्यु सरगना मान सिंह, मोहर सिंह और मलखान सिंह जैसे 'वीवीआईपी' भी। यमुना और चंबल के समूचे बीहड़ अंचल में बटेश्वर की बड़ी 'मान्यता' है।
इनमें हिन्दू धर्मावलम्बी तो हैं ही, प्रख्यात 'पशु मेले' की स्थली होने के नाते अन्य धर्म वाले भी इसे बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।   

वाजपेयी से रिश्ता

अपने मुख्यमंत्रित्व काल (अक्टूबर, 2014) में अखिलेश यादव ने बटेश्वर के घाटों की मरम्मत को लेकर एक छोटा सा बजट जारी किया था। बाद में बीजेपी ने इस पर बड़ा हो हल्ला किया। पता चला कि यह महानिदेशक 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' द्वारा महानिदेशक 'यूपी पर्यटन' को भेजा गया एक रूटीन सा बजट था जिसे मुख्यमंत्री अपने 'योगदान' के रूप में पेश कर रहे थे। 10 फ़रवरी को लोकसभा में एक लिखित उत्तर में पर्यटन मंत्री प्रहलाद पटेल ने कहा था कि केंद्र के समक्ष बटेश्वर को लेकर पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने को लेकर प्रदेश सरकार का कोई प्रस्ताव नहीं है।
यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है क्योंकि मोदी काल की शुरूआत से लेकर और आगे चलकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के समय बटेश्वर के विकास को लेकर बीजेपी की राज्य सरकार की लम्बी-चौड़ी घोषणाएँ हुई थीं।
बटेश्वर अटल जी की पैतृकस्थली है और अपने प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में इसके विकास की गंभीर कोशिश हुई थीं। स्वयं वाजपेयी ने  इसे लेकर अनेक कार्यक्रमों का सूत्रपात किया था।  

रेल परियोजना कहाँ पहुँची?

6 अप्रैल 1999 को आगरा- इटावा (वाया बटेश्वर) रेल लाइन की आधारशिला तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने रखी थी। कार्यक्रम में मौजूद तत्कालीन रेल मंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि जल्द ही इसे 'उत्तर मध्य रेलवे' और 'उत्तर रेलवे' की 'महत्वपूर्ण लिंक अप लाइन' के रूप में विकसित किया जाएगा। पर्यटन मंत्रालय ने तब बटेश्वर के विकास के लिए राज्य सरकार के साथ मिलकर 220 करोड़ की एक योजना तैयार की थी। 
220 करोड़ तो दूर की बात है, 2 दशकों में 20 करोड़ रूपये भी न तो केंद्र ने खर्च किये हैं न राज्य सरकार ने । 21 वर्षों में इस ' रेलवे हॉल्ट' की प्रगति इतनी है कि यहाँ दो ट्रेनें रुकती हैं।

योगी की घोषणा

अटल जी के देहावसान पर बटेश्वर स्थित यमुना में उनके 'पुष्प कलश' को प्रवाहित करने वालों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी थे। घोषणाओं का दौर एक बार फिर चल  निकला था। अटल बिहारी वाजपेयी के निधन वाले दिन ही मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी  कि उनके नाम से 16 मंडलों में 'रेज़िडेंशियल स्कूलों' की स्थापना होगी।
यह घोषणा 10 महीने बाद आज भी अधर में लटकी है। 24 दिसम्बर 2018 को 10 करोड़ रुपये से बटेश्वर के पर्यटन केंद्र और घाटों की मरम्मत की घोषणा हुई थी। 9 महीने बाद इसमें सिर्फ 3 करोड़ रुपये रिलीज़ हुए। स्थितियाँ यथावत हैं। 

मेले से आय

कई सौ सालों से चल रहा बटेश्वर का ‘पशु मेला’ समूचे उत्तर भारत में प्रख्यात है। 1950 के दशक से इस मेले का आयोजन 'आगरा  जिला परिषद' करती है। मेले से लगभग 20 लाख रुपये की आय होती है। बीच में यह फ़ैसला हुआ था कि उक्त आय को बटेश्वर के विकास कार्यों में लगाया जायेगा। कुछ समय बाद यह फ़ैसला बदल दिया गया।
क्षेत्र से कई बार सांसद रहे समाजवादी पार्टी के रामजीलाल 'सुमन' कहते हैं कि जब तक बटेश्वर के लिए विशेष राहत राशि जारी नहीं की जाएगी, तब तक इसका विकास संभव नहीं।
चंबल के बीहड़ों का 'गेटवे' है बटेश्वर। यह सिर्फ़ इन ऊबड़-खाबड़ बीहड़ों को समतल मैदानों से जोड़ने वाला भौगोलिक जंक्शन ही नहीं समूचे चंबल-यमुना प्रभाग के लोगों की धार्मिक आस्थाओं और सभी धर्म के लोगों की सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक भी है। यहाँ उगने वाली विकास की एक ‘रेख’ समूचे बीहड़ को अपने उजाले से भर देगी। 

बटेश्वर को यदि समुचित शिक्षा और उद्योग के 'रुपहले' केंद्र के रूप में विकसित किया जाता है तो यह दूरदराज़ के सभी युवाओं को आकर्षित करेगा और तब वे बेरोज़गारी और बन्दूक की डगर पर चढ़ाई करने की बजाय विकास पथ को सुनहला बनाने में मददगार साबित होंगे। 

 

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अनिल शुक्ल
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