बिहार चुनाव से पहले एक गज़ब का खुलासा हुआ। दिल्ली में मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार की मुस्कान ने सबको चौंका दिया। बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान करते हुए जब उनसे पूछा गया था कि विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) में कितने विदेशी घुसपैठिए पकड़े गए, तो उन्होंने रहस्यमयी अंदाज में मुस्कुराकर बात टाल दी। कहा कि डेटा राजनीतिक दलों को दे दिया गया है, लेकिन कोई संख्या या सबूत नहीं दिया। यह 7 अक्टूबर 2025 की प्रेस कॉन्फ्रेंस थी, जहां ज्ञानेश कुमार ने बिहार की मतदाता सूची को 22 साल बाद "शुद्ध" करने का दावा किया, लेकिन घुसपैठियों पर चुप्पी ने सवालों का तूफान खड़ा कर दिया।

बात समझिए। भाजपा और उसके सहयोगी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) वर्षों से बांग्लादेशी, रोहिंग्या और नेपाली घुसपैठियों का डर फैलाकर हिंदू वोटरों को एकजुट करते रहे हैं। बिहार में 2025 के चुनाव से पहले यही कहकर एसआईआर अभियान चलाया गया, जहां लाखों नाम काटे गए। मकसद बताया गया - विदेशी घुसपैठियों को पकड़ना। लेकिन अंतिम रिपोर्ट में क्या निकला?
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1 अक्टूबर 2025 को जारी अंतिम मतदाता सूची में 7.42 करोड़ वोटर बचे, जो पहले 7.89 करोड़ थे। हटाए गए 52.9 लाख नामों में 22.34 लाख मृतक, 36.44 लाख प्रवासी (देश के अंदर ही), 6.85 लाख डुप्लीकेट, और सिर्फ 11,484 ऐसे जिनका पता नहीं चला। नेपाली, बांग्लादेशी या रोहिंग्या का नामोनिशान नहीं। इस मुद्दे पर देश के मीडिया ने गंभीरता से सवाल किया। एक-दो नहीं, चार सवाल किये गये। लेकिन देश की सुरक्षा और अस्मिता से जुड़े इन सवालों का कोई जवाब चुनाव आयोग नहीं दे सका। क्या कोई घुसपैठिया था ही नहीं, या मिला नहीं? 

अब ये 11,484 लोग कौन हैं, जिनका अता पता नहीं मिला? क्या इन्हें घुसपैठिए मानें? अगर हां, तो उनके नाम-पते पुलिस और गृह मंत्रालय को क्यों नहीं सौंपे गए? चुनाव आयोग खुद इनके विदेशी होने पर शक करता है, क्योंकि ये संख्या भी कुल वोटरों का सिर्फ 0.014% है। यानी यह संख्या - कोई बड़ा "आक्रमण" नहीं। आयोग की प्रेस रिलीज (जुलाई 2025) में भी सिर्फ नियमित सफाई की बात है, घुसपैठियों का जिक्र नहीं। विपक्षी नेता राहुल गांधी ने इसे "वोट चोरी" कहा, क्योंकि हटाए गए नाम ज्यादातर गरीब, महिला, दलित, पिछड़े और मुसलमानों के थे, जो विपक्ष के समर्थक माने जाते हैं।

बिहार के सीमांचल इलाके में बंगाली बोलने वाले मुसलमानों को "बांग्लादेशी घुसपैठिए" कहकर बदनाम किया जाता है। लेकिन सच्चाई? ये लोग सदियों से यहां बसे हैं, खेती-मजदूरी करते हैं। भाजपा ने चुनाव में इस मुद्दे को भुनाया, लेकिन एसआईआर ने पोल खोल दी।

क्या मतदाता सूची शुद्ध हो गई?

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की जांच (6 अक्टूबर 2025) कहती है कि "शुद्ध" सूची में 1.32 करोड़ नाम के फर्जी या संदिग्ध पते हैं और 14.35 लाख डुप्लीकेट हैं। 3.42 लाख मामलों में नाम, पिता का नाम और उम्र तक एक जैसे। अलग-अलग जातियों के लोग एक ही पते पर दर्ज। राजनीतिक विश्लेषक इसे चुनावी घोटाला कहते हैं, जबकि विपक्ष "सत्ता की साजिश" बताता है। आंकड़े खुद बोलते हैं - शुद्धि के नाम पर सूची और गड़बड़ हो गई।

ऐतिहासिक रूप से देखें। 1971 के बांग्लादेश युद्ध के बाद लाखों शरणार्थी आए, ज्यादातर हिंदू। 1985 का असम समझौता हुआ, जहां 1971 को कटऑफ डेट माना गया। लेकिन बिहार में ऐसा कुछ नहीं। फिर भी भाजपा ने डर फैलाया। 2024 लोकसभा चुनाव में 69 लाख वोटरों को विधानसभा से पहले क्यों हटाया? जीवित लोगों के नाम मृत बताकर काटे गए। राहुल गांधी ने दिल्ली में ऐसे लोगों के साथ चाय पी और योगेंद्र यादव ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पेश भी किया।
विचार से और
यह चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल है, और गंभीर सवाल है। पूर्व आयुक्त टी.एन. शेषन ने कहा था, "चुनाव न सिर्फ निष्पक्ष हों, बल्कि दिखें भी।" लेकिन यहां चुप्पी और मुस्कान ने संदेह बढ़ाया। विपक्ष ने तो एसआईआर को "बैकडोर एनआरसी" कहा। राहुल की 15-दिवसीय यात्रा में INDIA ब्लॉक एकजुट हुआ। स्टालिन ने "लोकतंत्र पर हमला" कहा, अखिलेश ने "गरीबों पर खंजर"। कांग्रेस ने 89 लाख शिकायतें दर्ज कीं। 

सुप्रीम कोर्ट का डंडा चला

चुनाव आयोग ने सबसे बड़ा काम यह किया कि आधार कार्ड को पहचान और नागरिकता - दोनों का आधार मानने से इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद आयोग ने आधार को 12वें डाक्यूमेंट के रूप में स्वीकार करने की बात तो की, लेकिन जब संवाददाताओं ने पूछा कि आधार को स्वीकार करने के बाद कितने मतदाताओं के नाम जोड़े गये तो आयोग इस सवाल पर भी चुप्पी साध गया। और तो और मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार यह दलील देते रहे कि आधार एक्ट के अनुसार यह न जन्मतिथि का प्रमाण है और न निवास का। तो क्या आधार को आयोग ने देश में एक अवैध दस्तावेज करार दिया है? क्या प्रधानमंत्री का "मेरा आधार, मेरी पहचान" का नारा झूठा था? और क्या अब देश में अपनी पहचान बताने के लिए, जन्म से लेकर निवास प्रमाण पत्र साथ रखना होगा?
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बीजेपी-आरएसएस का एजेंडा

आरएसएस 1925 से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात कर रहा है। इसी के तहत भाजपा ने 1980 से घुसपैठ को हथियार बनाया। देवरस, सुदर्शन, भागवत के भाषण: "सांस्कृतिक खतरा"। घोषणापत्रों में वादे: एनआरसी, डिपोर्ट। लेकिन सत्ता में? 2001 में भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी असम यात्रा में बांग्लादेशियों को वर्क परमिट देने की बात कही। 24 साल बाद प्रधानमंत्री मोदी ने फिर कहा - "घुसपैठियों को जाना होगा"। लेकिन न अटल सरकार ने उन्हें बड़े पैमाने पर डिपोर्ट किया और न मोदी सरकार ने। क्या वे अपने आप चले जाएंगे? 

देश में घुसपैठियों के नाम पर डर की बस राजनीति चलायी जा रही है। भाजपा हर चुनाव में "घुसपैठ" का भूत उभारती है - असम 2016, बंगाल 2021, दिल्ली 2020, झारखंड 2024। अमित मालवीय ने एक्स पर दावा किया कि सूची में विदेशी नाम हैं, लेकिन आयोग ने पुष्टि नहीं की। मोदी ने 15 अगस्त 2025 को लाल किले से बिहार में "जनसांख्यिकीय बदलाव" की बात की। लेकिन तथ्य? करीब 20 साल से बिहार में शासन कर रही भाजपा- जदयू की नीतीश कुमार की सरकार कोई घुसपैठिया नहीं खोज पायी। इसीलिए यह सवाल वाजिब दिखता है: कि क्या यह केवल वोटबैंक के लिए था? चुनाव से ऐन पहले बिहार में 33 हजार करोड़ की रेवड़ियां बांटी गईं, लेकिन रोजगार, इंडस्ट्री क्यों नहीं? लोकतंत्र बचाने के लिए जनता को सच्चाई जाननी होगी।