loader

आंबेडकर का मानना था, जाति व्यवस्था मनु की देन नहीं

मनु के बारे में आंबेडकर ने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगे तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगे। उनका कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाक़ी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले। उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी क़ानून बना देगा और पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ उसको मानती रहेंगी।
शेष नारायण सिंह

डॉ. अांबेडकर के 62वें निर्वाण दिवस के मौक़े पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर ग़ौर किया जाए। सबको मालूम है कि डॉ. आंबेडकर के दर्शन ने 20वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज़्यादा प्रभावित किया था। लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है। यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबासाहेब जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ थे लेकिन बाक़ी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं। उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा। डॉ. आंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज़्यादा फ़ायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को सँभाल कर रखना चाहती हैं, उसके विनाश में उनकी कोई रुचि नहीं है। वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गई। आंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा। डॉ. आंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियाँ भी हैं। कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा। लेकिन बाबासाहेब ऐसा नहीं मानते थे। उनके एक बहुचर्चित और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

ambedkar  Role of manu in developing caste system - Satya Hindi
डॉँ. आम्बेडकर के भाषणों पर आधारित किताब

डॉ. अम्बेडकर का यह भाषण वास्तव में कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनके अध्ययन के बाद पीएचडी की डिग्री के लिए दाख़िल की गई उनकी थीसिस, Castes in India: Their Mechanism, Genesis and Development का सारांश भी है। मई 1916 का यह भाषण दुनिया की कई भाषाओं में छप चुका है। इसी भाषण में भारत में जाति प्रथा के उद्गम और विकास के बारे में विस्तार से बताया गया है। जाति के विनाश के बारे में उन्होंने लाहौर के जात-पाँत तोड़क मंडल के लिए जो भाषण तैयार किया था, उसमें भी इन विचारों को और पुख़्ता किया गया है। जात-पाँत तोड़क मंडल वाले क्रांतिकारिता का चोला तो धारण किए हुए थे लेकिन वे जातिप्रथा के ज़हर के मूल कारणों पर चर्चा से बचना चाहते थे। शायद इसीलिए उन्होंने डॉ. आंबेडकर से आग्रह किया कि उस भाषण में कुछ बदलाव कर दें लेकिन वे बदलाव के लिए राज़ी नहीं हुए। नतीजा यह हुआ कि उनका भाषण कैंसिल कर दिया गया। उस भाषण को एक किताब की शक्ल में छाप दिया गया और वही किताब, Annihilation of Caste, डॉ. बी. आर. आंबेडकर के राजनीतिक-सामाजिक दर्शन के बीजक के रूप में पूरी दुनिया में पहचानी जाती  है। जाति के उद्गम और उसके विकास की व्याख्या के दौरान ही डॉ. आंबेडकर ने जाति संस्था में मनु की संभावित भूमिका का विस्तार से वर्णन किया है।

यदि मनु थे तो बहुत हिम्मती रहे होंगे

मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगे तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगे। डॉ. आंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाक़ी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले। उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी क़ानून बना देगा और पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ उसको मानती रहेंगी। हाँ, इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगे जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे, उसे सब मान लेंगे और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी।उन्होंने कहा कि मैं इस बात को ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं थी। मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी। मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया। जहाँ तक हिन्दू समाज के स्वरूप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई। उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। 

जाति को एक आदमी नहीं सँभाल सकता

जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, सँभाल ही नहीं सकता। इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की। मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे ग़लत काम किए हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते। हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी ग़लत हो नहीं सकते। बाबासाहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिए नहीं किया जा सकता। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद डॉ. आंबेडकर ने समाज सुधारकों के ख़िलाफ़ कोई बात नहीं कही। ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे। हाँ, उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता।

तो जाति व्यवस्था टूट जाएगी

डॉ. आंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप-वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे साँचों में फ़िट हो जाता है कि एक-दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं। यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किए बिना कोई तरक़्क़ी नहीं हो सकती। सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बँटा हुआ था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था। एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक-दूसरे वर्ग में आने-जाने की रीति ख़त्म हो गई। और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा। अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाए और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराए जाएँ तो जाति व्यवस्था को ज़िंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा। और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा। अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिराव फुले, डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. आंबेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
शेष नारायण सिंह
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

समाज से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें