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इलाहाबाद हाईकोर्ट।

पीलीभीत फर्जी मुठभेड़ पर हाईकोर्ट का फैसला क्या संकेत देता है 

क्या आपको 12 जुलाई, 1991 में यूपी में पीलीभीत पुलिस द्वारा 11 सिखों को कथित फर्जी मुठभेड़ में मार देने की क्रूरतम घटना याद है? जिन्हें नहीं याद, उन्हें बताते हैं। आरोप है कि इस तारीख को पीलीभीत पुलिस ने जिले के कछला घाट इलाके में 11 बेगुनाह सिखों को एक बस से निकालकर, अलग-अलग ले जाकर कथित तौर पर मार डाला था। घटना के बाद पुलिस महकमे में नीचे से लेकर ऊपर तक दलील दी गई कि ये सिख कथित खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादी थे। सबसे पहले यूपी सरकार ने ही पुलिस की थ्योरी को सही करार दिया और देशभर में चर्चा तथा पंजाब से उठी विरोधी आवाजों को दरकिनार कर दिया। 

अदालती दबाव में जांच कराई गई तो पाया गया कि इस क्रूरतम घटना को 43 पुलिसकर्मियों ने शाबाशी व तरक्की के लालच में कथित तौर पर अंजाम दिया। 11 लोगों के गोलियों से छलनी शव पीलीभीत के न्योरिया, बिलसंडा और पूरनपुर थाना क्षेत्रों के धमेला कुआं, फगुनिया घाट व पट्टाभोजी में बरामद हुए थे। इनमें से एक छोटा बच्चा भी था, जिसका अब तक कोई अता--पता नहीं और जाहिर है कि वह भी दुनिया में नहीं होगा। 

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अनेक मानवाधिकार संगठनों, एमनेस्टी इंटरनेशनल और पंजाब सहित कई प्रदेशों के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने उत्तर प्रदेश पुलिस की इस कथित कार्रवाई के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई थी। राज्य सरकार की खामोशी कमोबेश कायम रही तो पीड़ित परिवारों और मानवाधिकार संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और उसकी हिदायत पर सीबीआई जांच कराई गई।                      

सीबीआई ने गहन जांच में साफ पाया कि पीलीभीत पुलिस के हाथों कथित तौर पर मारे गए सिख कतई आतंकवादी नहीं थे। जिस बस में से पुलिस ने उन्हें निकालकर बेरहमी से मारा, उस बस में कुल 25 यात्री थे। दरअसल, यह सिखों का वह जत्था था जो नानकमत्ता, श्री हजूर साहिब और अन्य गुरुद्वारों के दर्शनों के बाद वापस लौट रहा था। जिन्हें पुलिस ने चुन--चुन कर निकाला और अपनी नीली बस में जबरन बैठा लिया। बाद में पास के जंगल के अलग-अलग हिस्सों में उनके शव मिले। लेकिन मीडिया को बताया गया कि ये हथियारबंद आतंकी थे। इनमें शाहजहांपुर का रहने वाला बच्चा तलविंदर सिंह भी बताया गया! जो जिंदा या मुर्दा, अभी तक बरामद नहीं हुआ। मतलब साफ है कि मारकर उसका शव खुर्द-बुर्द कर दिया गया होगा।

पीड़ित परिवारों ने लखनऊ से लेकर दिल्ली तक इंसाफ के लिए गुहार लगाई लेकिन उनका पक्ष सुना तक नहीं गया और पुलिस की बनाई कहानी को ही सही ठहराया गया। इंसाफ की आस में पीड़ित परिवारों और मानवाधिकार संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अदालत के आदेश पर मामला सीबीआई के हवाले किया गया। सीबीआई ने जांच में 43 पुलिस वालों को फर्जी मुठभेड़ का आरोपी पाया। सीबीआई की तथ्यात्मक रिपोर्ट पर निचली अदालत ने 4 अप्रैल 2016, यानी जख्म मिलने के 31 साल बाद, हत्याकांड के दोषी ठहराए गए तमाम पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। साथ जुर्माना भी लगाया। सजायाफ्ता पुलिसकर्मी बाद में खुद को बेकसूर बताते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट चले गए। 

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने नए सिरे से सुनवाई की और इसी 15 दिसंबर को फैसला सुनाते हुए 43 पुलिसकर्मियों को गैर इरादतन हत्या का दोषी बताते हुए उनकी सजा में कटौती कर दी। हाईकोर्ट ने उन्हें राहत देते हुए, उनकी उम्रकैद की सजा रद्द कर दी और उसे सात--सात साल की सजा में तब्दील कर दिया। जुर्माने की रकम भी घटाकर 10--10 हजार रुपये कर दी।

जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस सरोज यादव की खंडपीठ के समक्ष अभियुक्त पुलिसकर्मी देवेंद्र पांडे व अन्य अभियुक्तों के वकीलों ने पुलिसकर्मियों की उम्रकैद सजा का विरोध करते हुए कहा कि मारे गए कई लोगों का लंबा आपराधिक इतिहास था और वे खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट के सक्रिय सदस्य थे। हालांकि सीबीआई ने अपनी छानबीन में ऐसा कुछ नहीं पाया था। 

बहरहाल, हाईकोर्ट ने भी अपने 179 पन्ने के आदेश में कहा कि मारे गए ज्यादातर लोगों का कोई आपराधिक इतिहास नहीं था। ऐसे में बेगुनाहों को आतंकवादी बताकर मार डालना नाजायज है। खंडपीठ के मुताबिक अभियुक्तों और मृतकों के बीच कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। तमाम अभियुक्त (यानी पुलिसकर्मी) सरकारी मुलाजिम थे और उनका उद्देश्य कानून व्यवस्था कायम करना था। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन लोगों ने अपनी शक्तियों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल किया। 

अदालत ने दोषी पुलिसकर्मियों पर लगाई गई दंड संहिता 302 की धारा को 304-1 में तब्दील कर दिया। इससे हत्यारे पुलिसकर्मी अब उम्रकैद की सजा से राहत पा गए हैं। अब वे गैर इरादतन कत्ल के दोषी हैं। सवाल यह है कि अगर मारे गए निहत्थे लोगों का  किसी किस्म का कोई आपराधिक अतीत था भी, तो भी क्या उन्हें इस तरह मौत की नींद सुला दिया जाए।
इस फैसले से मारे गए बेगुनाहों सिख परिवारों के लिए जख्म नए सिरे से हरे होने वाली बात है। सीबीआई रिपोर्ट पर आधारित निचली अदालत का फैसला बहाल रहता तो उन तमाम पुलिसकर्मियों के लिए कड़ा संदेश होता जो प्रमोशन के लिए बेगुनाहों का 'शिकार' करते हैं।            

बता दें कि पीलीभीत पुलिस ने जब यह कथित मुठभेड़ अंजाम दी थी, तब पंजाब में आतंकवाद जोरों पर था। सिख संगठनों का आरोप है कि उस समय बड़े अफसरों के इशारों पर फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला भी सरेआम चल रहा था। फर्जी मुठभेड़ों में संलिप्त पंजाब के पचासों पुलिसकर्मी बाद में (ज्यादातर सीबीआई जांच के बाद) जेल की सलाखों के पीछे हैं और सैकड़ों ऐसे हैं जो छुट्टा भी घूम रहे हैं। पंजाब का वह काला दौर था। आतंकवादी तो कहर बरपा ही रहे थे। पुलिस और उसके आला अफसर भी पीछे नहीं थे। 

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देश के अन्य हिस्सों और पंजाब की नई पीढ़ी मानती है कि इस राज्य में पहले दौर के आतंकवाद को शासन व्यवस्था पर काबिज नौकरशाहों, राजनीतिकों और खाकी वर्दी वालों ने खत्म किया। यह अधूरे से भी अधूरा सच है। पहली बात तो यह है कि इस सूबे में अमन तथा सद्भाव की जो बहाली हुई, उसमें अवाम (हिंदू-सिख) का बहुत बड़ा योगदान है। वामपंथी संगठनों के लोगों ने भी बेमिसाल कुर्बानियां देकर पंजाब को बचाया। दक्षिणपंथी तक तब लिखते और मानते थे कि दुनिया भर में कम्युनिस्टों के (कथित) पाप एक तरफ हैं और पंजाब में उनके बेमिसाल बलिदानी काम दूसरी तरफ। बहरहाल, हाईकोर्ट के 15 दिसंबर 2022 के फैसले के खिलाफ सीबीआई चाहे तो सुप्रीम कोर्ट जा सकती है। ताकि इस घटनाक्रम में उसकी विश्वसनीयता बहाल रहे और पीड़ित परिवारों के जख्म भी हरे न होंं।

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अमरीक
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