‘सुन्दर और सुशील कन्या चाहिये’हमारे अख़बारों के वैवाहिक विज्ञापन ऊपर लिखे वाक्य के साथ मुनादी किया करते हैं। यह दीगर बात है कि इन विज्ञापनों में कन्या की चारित्रिक शुद्धता खुले रूप में चिन्हित नहीं की जाती। ‘सुशील’ शब्द कई गुणों की भरपाई करता है।
छपाक से आँखें चुराकर दिखा दिया कि स्त्रियों के प्रति कितना संवेदनहीन है समाज!
- सिनेमा
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- 22 Jan, 2020

हमें भी ऐसी ही उम्मीद थी कि छपाक को दर्शक मुश्किल से ही मिलेंगे क्योंकि हम जानते हैं कि इस समाज में स्त्रियों के प्रति कितनी संवेदना है! प्रमाण भी यही है कि यह फ़िल्म एक स्त्री मेघना गुलज़ार ने बनाई है और यह दीपिका पादुकोण के कंधों पर टिकी है। पुरुष निर्माता कहाँ गये?
क्या लड़कों के लिए भी ये ही योग्यताएँ माँगी जाती हैं? नहीं, ये सब लड़की के लिए अर्हतायें हैं। हाँ, लड़के की नौकरी या अन्य ज़रिये से चलने वाली आजीविका को देखा जाता है जो कुल मिलाकर उसके करियर से जुड़ता है। समाज में ऐसे भेदभावों का चलन सदा सदा से है। नहीं तो लड़की की सुन्दरता न देखकर उसकी योग्यता और क्षमताओं पर ज़ोर देते हुए ‘सुन्दर और सुशील’ जैसे शब्दों का विज्ञापनों में बहिष्कार क्यों नहीं किया जाता?
नहीं किया जाता बहिष्कार क्योंकि पुरुष की आकांक्षाओं में एक हूर परी रहती है। तब वह पत्नी के रूप में पद्मिनी क्यों न चाहे? अब आप कहेंगे कि लड़कियाँ भी राजकुमार जैसा वर चाहती हैं। ज़रूर चाहती होंगी क्योंकि किसी के चाहने पर कोई बंदिश नहीं लग सकती लेकिन विरले ही होती हैं जिनकी ऐसी इच्छायें सर्वोपरि होकर सामने आयें।
मैत्रेयी पुष्पा जानी-मानी हिंदी लेखिका हैं। उनके 10 उपन्यास और 7 कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें 'चाक'