(…गतांक से आगे)उनके चेहरे पर दर्द की एक तीखी लाइन उभरी जब वह बताने लगे ‘हर रिफ्यूजी (शरणार्थी) की तरह मैं भी लुटे-पिटे हाल में बॉम्बे पहुँचा था। यह सन उन्चास का नवम्बर था। कराची के कुछ दोस्त जो हमसे पहले यहाँ आ गए थे, उन्होंने इन्हें हाथों-हाथ लिया। दोस्तों के भी लेकिन सीमित हाथ थे। आख़िर थे तो वे भी रिफ्यूजी।’ कुछ ही महीनों में उन्हें मरीन ड्राइव की ‘वीर नरीमन रोड’ की शानदार 'क्लॉथ मर्चेंट एंड टेलर शॉप’ में पाँच सौ रुपये महीना पर 'चीफ़ क़टर' की नौकरी मिल गयी। आहिस्ता से अपनी दाहिनी आँख मार कर हंगल साहब मुझसे कहते हैं, ‘ये एक अच्छी ख़ासी इनकम थी यार!’
अवतार किशन हंगल यानी ‘शौक़ीन’ का वो लफ़ंगा
- सिनेमा
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- 17 Aug, 2020

यह सन 2002 का वाक़या है। ए के हंगल साहब तब हाल ही में 'इप्टा' के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे। मैं अपनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में उनका प्रोफ़ाइल ढूँढ रहा था। हमारी पहली मुलाक़ात थी। मैंने उनसे लंबी बातचीत की। इस बातचीत के आधार पर यह जानने की कोशिश की है कि आख़िर 'हंगल साहब कौन थे'। इसका पहला भाग प्रकाशित हो चुका है। आज पढ़िए उसके आगे का दूसरा भाग।
उन्होंने 'इप्टा' को तलाशा, विभाजन के बाद जिसे पुनर्संगठित करने की कोशिशें हो रही थीं। हंगल साहब ने एक्टिंग शुरू की और मुझे कई लोगों ने बताया कि “'इप्टा' खड़ा करने में अपना तन-मन-धन सब झोंक दिया।” उनसे जुड़े छोटे-बड़े एक्टर और बड़े-छोटे डायरेक्टर, सभी का कहना था कि टेलरिंग की दुकान से उनकी तनख़्वाह 500 रुपये थी तो वह 300 रुपये 'इप्टा' को देते थे। उनका वेतन हज़ार रुपये हुआ तो 'इप्टा' को दी जाने वाली रक़म बढ़कर 600 हो गयी। फ़िल्मों में स्टार कैरेक्टर आर्टिस्ट बन जाने के बाद भी उनकी आमदनी का पुख़्ता पार्टनर 'इप्टा' होता था।