(…गतांक से आगे)उनके चेहरे पर दर्द की एक तीखी लाइन उभरी जब वह बताने लगे ‘हर रिफ्यूजी (शरणार्थी) की तरह मैं भी लुटे-पिटे हाल में बॉम्बे पहुँचा था। यह सन उन्चास का नवम्बर था। कराची के कुछ दोस्त जो हमसे पहले यहाँ आ गए थे, उन्होंने इन्हें हाथों-हाथ लिया। दोस्तों के भी लेकिन सीमित हाथ थे। आख़िर थे तो वे भी रिफ्यूजी।’ कुछ ही महीनों में उन्हें मरीन ड्राइव की ‘वीर नरीमन रोड’ की शानदार 'क्लॉथ मर्चेंट एंड टेलर शॉप’ में पाँच सौ रुपये महीना पर 'चीफ़ क़टर' की नौकरी मिल गयी। आहिस्ता से अपनी दाहिनी आँख मार कर हंगल साहब मुझसे कहते हैं, ‘ये एक अच्छी ख़ासी इनकम थी यार!’