राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने भारत सरकार से अपनी नीतियों में शाकाहार को प्रमुख रूप से "शामिल" करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि "अगर संभव हो तो" हिंदू समाज में मांसाहार को "समाप्त" किया जाना चाहिए। भागवत आरएसएस के 100 वर्ष पूरे होने के मौके पर पीईएस यूनिवर्सिटी के हॉल में लोगों को संबोधित कर रहे थे। 
भागवत ने बेंगलुरु में जो बातें कहीं, वे सिर्फ वैचारिक नहीं बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक दिशा की ओर इशारा करती हैं। उनका कहा था कि “गैर-शाकाहारी भोजन को बीमारी की तरह समझकर उसका इलाज किया जाए।” यह बयान साधारण नहीं है, बल्कि इसे एक संस्कृति थोपने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए।

शाकाहार का सांस्कृतिक नहीं, राजनीतिक एजेंडा 

मोहन भागवत का शाकाहार संबंधी आग्रह यह दर्शाता है कि आरएसएस अब व्यक्तिगत जीवनशैली को भी ‘संघीय अनुशासन’ के दायरे में लाना चाहता है। भारत में खानपान केवल स्वाद या स्वास्थ्य का विषय नहीं, बल्कि संस्कृति, जलवायु और भूगोल से जुड़ा है। केरल, गोवा, पूर्वोत्तर, बंगाल, झारखंड, या तटीय गुजरात जैसे प्रदेशों में मछली और मांस जीवन का हिस्सा हैं। ऐसे में यदि सरकार शाकाहार को नीति में “प्रमुखता” देती है, तो यह बहुसांस्कृतिक समाज पर एकरूपता थोपने का प्रयास प्रतीत होता है- मानो भारत की विविध थाली को ‘एक ही थाली’ में समेट दिया जाए।
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संघ के ‘संस्कारिक राष्ट्रवाद’ की अवधारणा में यह कदम फिट बैठता है, क्योंकि इसके तहत भारत की पहचान को केवल ब्राह्मणवादी-संस्कृतनिष्ठ हिंदू संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन यह विचार भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विविधता की मूल भावना के विपरीत है।

मुसलमानों-ईसाइयों के लिए ‘शर्तों’ वाला आमंत्रण 

भागवत ने कहा कि “मुसलमान और ईसाई संघ में आ सकते हैं, बशर्ते वे अपनी पृथकता (यानी अपनी अलग पहचान, अपना धर्म) छोड़ दें।” यह कथन संघ की कथित “समावेशिता” (सभी संस्कृतियों को साथ लेना) को खोखला कर देता है। समावेश का अर्थ विविधता को स्वीकार करना है, न कि भिन्नता मिटा देना। यदि कोई व्यक्ति अपने धार्मिक या सांस्कृतिक विश्वास के साथ संघ में नहीं रह सकता, तो यह ‘राष्ट्रीय एकता’ नहीं, बल्कि ‘सांस्कृतिक एकरूपता’ का आग्रह है।
संघ के लिए मुसलमान या ईसाई तब तक स्वीकार्य हैं जब तक वे अपनी धार्मिक पहचान छोड़कर ‘सांस्कृतिक हिंदू’ बन जाएँ। यह विचार वही है जो हिंदुत्व के संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर ने रखा था- कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति “संस्कृति से हिंदू” है, चाहे उसका धर्म कुछ भी हो। सवाल यह है कि क्या इस दृष्टिकोण में भारत की असली ताकत, उसकी बहुलता, असहमति और सह-अस्तित्व की कोई जगह बचती है?

सिखों को राष्ट्रीय सिख संगत क्यों अस्वीकार

अब से कुछ वर्ष पहले सिखों को हिन्दु बताने की कोशिश आरएसएस ने की थी। उसने इसके लिए राष्ट्रीय सिख संगत बनाई। लेकिन जब आरएसएस के इस संगठन ने सिखों के बीच अपनी घुसपैठ की और कार्यक्रम आयोजित कर एजेंडा रखा तो सिखों ने इसे नामंजूर कर दिया। सिख पंथक कमेटियों ने आरएसएस को चेतावनी तक जारी कि वे इन चक्करों न पड़ें। सिखों की अपनी पहचान है, वे हिन्दू नहीं हैं। उसके बाद राष्ट्रीय सिख संगत एक मृत संस्था के रूप में मौजूद है। संघ अब उसकी गतिविधियां नहीं चलाता।

संघ का रजिस्ट्रेशन नहींः  जवाबदेही से बचने की नीति

मोहन भागवत का यह कहना कि “संघ का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य नहीं है, हम व्यक्तियों का समूह हैं,” तो यह बात पारदर्शिता और जवाबदेही के सवाल को जन्म देती है। एक ऐसा संगठन जो शिक्षा, राजनीति, समाज सेवा और सांस्कृतिक गतिविधियों से लेकर सत्ताधारी दल की विचारधारा तक प्रभावित करता है, वह यदि “गैर पंजीकृत समूह” बना रहे तो यह लोकतांत्रिक संस्थाओं की पारदर्शिता के सिद्धांत के खिलाफ है।

यहां यह भी ध्यान देना होगा कि संघ तीन बार प्रतिबंधित हो चुका है। 1948 में गांधी हत्या के बाद, 1975 में आपातकाल के दौरान और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद। हर बार इसकी गतिविधियों और संगठन को लेकर गंभीर सवाल उठे। फिर भी आज तक संघ ने अपने संगठनात्मक ढांचे या फंडिंग की कोई स्पष्ट जवाबदेही नहीं दी।

धर्मनिरपेक्ष भारत में ‘एकरूपता’ का संकट 

भारत कोई एकरंगी समाज नहीं है। यहां असंख्य भाषाएं, खानपान की परंपराएं, वेशभूषाएं और आस्थाएं हैं। बाबा साहब आंबेडकर ने संविधान को इसी विविधता को “एकता में अनेकता” की नींव पर खड़ा किया था। परंतु भागवत जैसे लोगों के बयानों से यह आशंका उभरती है कि संघ का लक्ष्य इस विविधता को ‘एक संस्कृति’ में बदलने का है-  जहां सब एक जैसे दिखें, खाएँ और सोचें। लेकिन क्या दक्षिण भारत को उत्तर भारत का की चीजें पसंद आएंगी। क्या पूर्वोत्तर भारत शाकाहार बनेगा और चर्च में जाना बंद कर देगा।

भारत का लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा जब व्यक्ति को अपनी असहमति, आस्था और पहचान के साथ जीने की स्वतंत्रता होगी- न कि तब जब कोई संगठन यह तय करे कि “कैसा खाना भारतीय है” और “कौन-सा धर्म भारत माता का सच्चा पुत्र है।”

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मोहन भागवत के शताब्दी वर्ष के भाषण में संघ का असली चरित्र झलकता है- एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक पहचान की चाह। पर भारत की आत्मा इस चाह में नहीं बसती। वह उन भिन्नताओं में बसती है जिन्हें संघ “पृथक” (दूसरी संस्कृतियां) कहता है। वही पृथकता जो भारत को जीवंत, रंगीन और लोकतांत्रिक बनाती है। शाकाहार हो या हिंदुत्व, ये केवल व्यक्तिगत चुनाव नहीं, अब राजनीतिक औजार बन चुके हैं। और जब राजनीति किसी की थाली और किसी की प्रार्थना तय करने लगे, तब समझ लेना चाहिए कि राष्ट्र की आत्मा पर वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो चुकी है।