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समान नागरिक संहिता का सबसे ज़्यादा विरोध सवर्ण हिन्दू ही करेंगे?

गुजरात सरकार के एलान के बाद समान नागरिक संहिता एक बार फिर बहस के केंद्र में है। अलग-अलग धर्मों, जातियों-उपजातियों में बँटे भारतीय समाज के हर वर्ग की अलग-अलग वैवाहिक रीतियाँ और पद्धतियाँ हैं। इसी तरह उत्तराधिकार और जायदाद के बँटवारे की भी अलग-अलग पद्धतियाँ हैं। व्यक्तिगत क़ानून का महत्व बहुत पहले से चला आ रहा है।

विक्रमादित्य के शासन के समय हिंदुओं को एक करने के लिए व विवाह और संपत्ति पर अधिकार कै लिए मिताक्षरा लिखी गई। उसमें यह प्रयास किया गया कि सभी हिंदू एक पद्धति से अपने वैवाहिक संस्कारों का संचालन करें। यह सफल नहीं हुआ और फिर दायभाग स्कूल को मान्यता मिली जो ख़ास कर बंगाल में लागू है। 

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हमारे देश में समान नागरिक संहिता कि जो चर्चा चल रही है, वह विवाह पद्धतियों को लेकर ही है। कहा जाता है कि हिंदुओं को कोडिफाई किया गया है और मुसलमानों के लिए कोई क़ानून नहीं लागू किया गया। 1955 के पहले कई प्रकार के विवाह कानून देश के विभिन्न भागों में लागू थे। मुंबई में एक क़ानून, सौराष्ट्र में दूसरा क़ानून। इसी तरह मद्रास  मध्य भारत में अलग-अलग क़ानून प्रचलित थे। स्वतंत्रता के बाद 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम बनाया गया, जिसमें पहले के सभी नियमों को समाप्त किया गया।
1955 के पहले यह प्रतिबंध था कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के अलावा अन्य जाति में विवाह संबंध नहीं कर सकता था। हिंदू मैरिज वैलिडेशन एक्ट 1949 में यह व्यवस्था ख़त्म कर दी गई।

विवाह से जुड़े कई नियम आज भी

भले ही 1955 के कानून से जाति-विहीन परंपरा को मान्यता दी गई हो, परंतु समाज ने इसे स्वीकार नहीं किया। स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी ऑनर किलिंग के मामले सामने आ रहे हैं। भारत में आज भी आनंद विवाह अधिनियम, आर्य समाज विवाह विधि मान्य अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, हिंदू विवाह अधिनियम, विदेशी विवाह अधिनियम, कृष्ण विवाह अधिनियम लागू हैं। इसी तह भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, मद्रास नंबूदरीपाद अधिनियम, मद्रास मारुमक्कठयम अधिनियम, मद्रास एलिया सनातन  अधिनियम मौजूद है। इनको अभी तक संहिता बद्ध नहीं किया गया है। हमारे देश में हजारों हजार जातियाँ और उपजातियाँ हैं। हर 100 किलोमीटर पर प्रथाएँ बदलती हैं। 
समान नागरिक संहिता के नाम पर सारा ध्यान मुसलिम समाज की ओर है। जब भी समान नागरिक संहिता की बात होती है, यह समझा जाता है कि मुसलमानों के पर्सनल लॉ से छेड़छाड़ की जाएगी।

तीन तलाक़ ख़त्म

मुसलमानों के विवाह पद्धति को नियंत्रित करने के लिए भी 1937 में शरीयत क़ानून बना। मुसलमानों में विवाह संबंधों का संचालन निजी प्रथाओं के अनुसार चलता रहा, जिसमें सबसे प्रमुख तीन तलाक का मुद्दा था। क़ानून बनाकर तीन तलाक़ की मान्यता को निष्प्रभावी कर दिया गया। तीन तलाक़ का जो क़ानून बना है, उसमें यह स्पष्ट नहीं है कि  तलाक़ कैसे होगा। इस पर प्रतिबंध लगाया गया है कि एक बार में तीन तलाक़ कहकर विवाह को समाप्त नहीं किया जा सकता और अगर ऐसा किया गया तो वह दंडनीय अपराध माना जाएगा।
अलग-अलग जातियों, समुदायों और धर्मों के हिसाब से बने देश में हजारों जातियाँ अपनी प्रथाओं के अनुसार विवाह संचालित करती हैं। क्या उन्हें एक क़ानून के तहत लाया जाना संभव है?
यदि तानाशाही से देखा जाए तो सब संभव है। मगर यदि सैकड़ों वर्ष पुरानी और रीत को देखा जाए तो एक विवाह कानून लाने में बड़ी कठिनाइयां होंगी। 
अगर समान नागरिक संहिता लागू हो जाए तो इसमें सबसे ज्यादा भला हिंदुओं का होगा और सबसे ज्यादा नुकसान भी हिंदुओं का ही होगा। अगर समान नागरिक संहिता लागू हुई तो फिर कोई भी ब्राह्मण अपने को उच्च नहीं समझ पाएगा और ना ही किसी दीन हीन को दासता का जीवन जीना होगा। जिस दिन समान नागरिक संहिता की किताब लिखना प्रारंभ होगी, उस दिन इसका सर्वाधिक विरोध सवर्णों के द्वारा किया जाएगा। 
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अवधेश कुमार
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