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जी-20 के लिए 990 करोड़ का बजट, तो भारत को फायदा क्या होगा?

दिल्ली और गुरुग्राम में बीते हफ्ते जी 20 की धूम रही। इस महीने की शुरुआत राजधानी दिल्ली में दो दिनों के विदेश मंत्री सम्मेलन से हुई। साथ ही गुरुग्राम में 1 से 4 मार्च तक भ्रष्टाचार निरोधक कार्य समूह की बैठक भी चलती रही। और बात सिर्फ दिल्ली या गुरुग्राम की नहीं है। इस साल की शुरुआत से अब तक कोलकाता, पुणे, तिरुअनंतपुरम, चंडीगढ़, जोधपुर, चेन्नई, गुवाहाटी, बैंगलुरू, कच्छ के रन, इंदौर, लखनऊ, खजुराहो जैसी जगहों पर कहीं एक और कहीं एक से ज्यादा आयोजन हो चुके हैं। उन शहरों का नज़ारा भी दिल्ली या गुरुग्राम से अलग नहीं है। और आज से हैदराबाद में फाइनेंशियल इनक्लूजन पर अंतरराष्ट्रीय साझेदारी के लक्ष्य पर दूसरी बैठक शुरू हो रही है।

जी 20 का अठारहवां शिखर सम्मेलन दिल्ली के प्रगति मैदान में 9 और 10 सितंबर को होना है। तब दिल्ली में जी 20 समूह के राष्ट्राध्यक्षों या शासकों का जमावड़ा होगा। यह जी 20 के अध्यक्ष के तौर पर भारत की पारी का समापन समारोह भी होगा और दरअसल यही मौका होगा जब भारत इस अध्यक्षता के जरिए दुनिया को क्या संदेश देना चाहता है वो सामने आएगा। यह बात थोड़ी हैरत ज़रूर जगाती है कि जी 20 यानी 19 देशों और यूरोपीय संघ को मिलाकर बने इस संगठन के इतिहास में सत्रह साल बाद भारत को इसकी मेजबानी का मौका क्यों मिला। या इससे पहले यह मौका क्यों नहीं मिल पाया?

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जी 20 की स्थापना 1999 में एशियाई वित्तीय संकट के बाद हुई थी। लेकिन इसके पीछे 1975 में बने जी 7 या सात देशों का समूह था। यह सात देश थे अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और कनाडा। यानी यह उस वक्त के सबसे अमीर देशों का संगठन था। इसकी सालाना बैठकों में अर्थनीति के साथ-साथ राजनीति और सुरक्षा से जुड़े मसलों पर भी चर्चा होती थी। 1998 में रूस को भी इस समूह का सदस्य बनाया गया और तब से इसे जी 8 कहा जाने लगा। हालाँकि 2014 में रूस को बाहर करके इसे फिर जी 7 बना दिया गया। इसकी वजह थी कि रूस ने यूक्रेन के प्रांत क्रीमिया को कब्जा कर अपना हिस्सा बनाने का एलान कर दिया था। हालाँकि रूस जी 20 का सदस्य है, लेकिन इस बार फिर रूस के यूक्रेन पर हमले का सवाल संगठन में विवाद का विषय बना हुआ है। 

जी 7 की बैठकें अब भी अलग से होती रहती हैं। लेकिन जैसे अमीर आदमी को हमेशा यह फिक्र बनी रहती है कि उसके आस-पास अमन चैन है या नहीं, उसी तरह 1999 के एशियाई मुद्रा संकट के बाद इन अमीर देशों को भी यह चिंता सताने लगी कि ऐसी मुसीबतों को कैसे कम से कम किया जाए। यह विचार भी बना कि शायद दुनिया के आर्थिक वर्तमान और भविष्य की फिक्र करते वक्त उन देशों को भी साझेदार बनाना ज़रूरी होगा जो आर्थिक नक्शे पर तेज़ी से अपनी पहचान बना रहे हैं। तभी जी 8 की पहल पर जी 20 की शुरुआत हुई। तब से अब तक जो सत्रह सम्मेलन हुए हैं उनमें से सिर्फ पांच ही हैं जो जी 8 सदस्यों यानी अमीर देशों से बाहर हुए हैं। 

शुरुआत 2010 में कोरिया के साथ हुई और उसके बाद 2015 से अब तक तुर्किए, अर्जेंटाइना, सऊदी अरब और इंडोनेशिया को मेजबानी का मौका मिल चुका है। हालांकि 1999 में जी 20 की पहली बैठक बर्लिन में हुई थी। लेकिन यह इन देशों के वित्तमंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों की एक अनौपचारिक चर्चा जैसी ही थी। इसमें दुनिया की अर्थव्यवस्था का संतुलन बनाए रखने के लिए ज़रूरी मुद्दों पर विचार हुआ। इसके बाद से ऐसी बैठक हर साल होने लगी। 2002 में भारत ने इसकी मेजबानी भी की थी। 
2008 के विश्व आर्थिक संकट के बाद ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए इस बैठक का स्तर बढ़ाकर इसे शिखर सम्मेलन में बदला गया। यानी अब यह राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन हो गया है जहां एक साथ तीन मोर्चों पर विचार विमर्श और रणनीति बनाने का काम चलता रहता है।

जी 8 देशों ने जब जी 20 बनाया तब शायद सोचा भी नहीं होगा कि 2008 के संकट के बाद और फिर कोरोना के बाद की दुनिया में उनका यह कदम कितना दूरंदेशी भरा साबित होगा। अब जी 20 देशों की हैसियत इस बात से समझी जा सकती है कि दुनिया की दो तिहाई आबादी इन्हीं देशों में रहती है, दुनिया की जीडीपी का 85% हिस्सा इनके पास है और विश्व व्यापार में इनकी हिस्सेदारी 75% से ऊपर है। आर्थिक पैमाने पर दुनिया के देशों की हैसियत में भी काफी उतार चढ़ाव हो चुके हैं। एक वक्त जो विकासशील थे वो अब अमीरों में पहुंच चुके थे और अनेक पुराने अमीर अब तंगहाली से जूझते नज़र आ रहे हैं। 

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साफ़ है कि 1999 और 2008 के बाद इस समूह के सामने सबसे बड़ी चुनौती खड़ी है। शायद यह उन दोनों संकटों से कहीं बड़ी और विकट समस्या भी है। इस मौके पर जी 20 का अध्यक्ष और मेजबान होना भारत के लिए जितनी बड़ी चुनौती खड़ी करता है शायद उतना ही बड़ा मौका भी साबित हो सकता है। बाली में पिछले साल हुए जी 20 सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति पुतिन शामिल नहीं हुए थे और उनके विदेशमंत्री भी समय से पहले ही वापस लौट गए थे। यूक्रेन रूस का मसला अभी जारी है और साफ़ दिख रहा है कि जी 20 पर इसकी छाया रहेगी। पहले वित्तमंत्रियों और फिर विदेशमंत्रियों की बैठक के अंत में कोई साझा प्रस्ताव इसीलिए जारी नहीं हो पाया।  

हालांकि उम्मीद है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन सम्मेलन के लिए दिल्ली आएंगे और दुनिया के अनेक देश उम्मीद कर रहे हैं कि यूक्रेन संकट सुलझाने की दिशा में भारत कोई पहल कर पाएगा। ऐसा हो पाया तो शायद गुट निरपेक्ष आंदोलन जैसी स्थिति फिर दिख सकेगी जब नेहरू, नासिर और टीटो जैसे नेताओं ने विश्व राजनीति में एक अलग मुकाम बना लिया था। यूक्रेन मामले पर गतिरोध की एक बड़ी वजह यह है कि ग्लोबल साउथ कहलानेवाले यानी धरती के दक्षिणी हिस्से में मौजूद ज्यादातर गरीब देश ग्लोबल नॉर्थ या खासकर पश्चिम के अमीर देशों के सामने कमजोर नहीं दिखना चाहते। उनमें से अनेक रूस के पक्ष में न होते हुए भी अमेरिका का साथ देते हुए भी नहीं दिखना चाहते। 

भारत से उम्मीद की जा रही है कि वो इस नाजुक वक्त में दोनों पक्षों के बीच पुल का काम कर सकता है। यहां न सिर्फ दुनिया की समस्या सुलझने की उम्मीद है बल्कि दुनिया के शक्ति समीकरणों में खुद भारत के लिए एक बेहतर भूमिका की गुंजाइश भी साफ दिखती है।

लेकिन देश के पचास से ज्यादा शहरों में दो सौ से ज्यादा आयोजन। बजट में जी 20 के लिए 990 करोड़ रुपए का इंतजाम अलग से किया गया है। विदेश मंत्रालय का बजट भी थोड़ा बढ़ाया गया है, और तमाम शहरों में इंतजाम के अलावा सड़कों, इमारतों और साज सज्जा का खर्च अलग। यह सब सिर्फ इसलिए कि इससे भारत की हैसियत कुछ बढ़ सकती है। और वो भी एक ऐसे संगठन की अध्यक्षता पर जो हर साल बारी बारी से किसी न किसी देश को मिलती ही है? यह सवाल पूछा जा सकता है कि इससे हमारे देश को और जनता को भी कुछ मिलेगा क्या? 

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इस सवाल का सीधा जवाब मुश्किल है। लेकिन दो तरह से देखा जा सकता है। एक तो हैसियत बढ़ने का अर्थ यह होगा कि दुनिया की आर्थिक नीतियों में अपने हिसाब से फेरबदल के लिए दबाव बनाना आसान होगा। और दूसरा देश के पचास शहरों में दो सौ से ज्यादा कार्यक्रमों का अर्थ एक तरह से इन शहरों का, इनकी सांस्कृतिक संपदा का और भारत के तमाम क़िस्म के उत्पादों का पूरी दुनिया में प्रचार भी होगा। यह वैसे ही है जैसे स्विट्जरलैंड या नीदरलैंड में भारतीय फिल्मों की शूटिंग से इन देशों के पर्यटन उद्योग को लंबे समय तक फायदा होता रहा। कितना फायदा होगा और कितने समय तक, यह हिसाब लगाना मुश्किल है। लेकिन जैसे 1982 में हुए एशियाई खेलों या कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान शहर में हुए काम का फायदा आज तक दिल्ली में दिखता है, वैसे ही इन शहरों में काफी कुछ ऐसा भी होगा जो आनेवाले समय में शहर के लिए फायदेमंद होगा। 
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आलोक जोशी
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